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कहां गये पुस्तकालय?

मणींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू पिछले साल गांधी जयंती पर बेगुसराय के गोदरगावां गांव में जाने का मौका मिला था. इस गांव में एक एक अद्भुत संस्था है. इसकी कहानी यह है कि सन् बयालीस के भारत छोड़ो आंदोलन के समय अंगरेजी सरकार ने रेल की पटरी उखाड़ने की सजा में इस गांव पर […]

मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
पिछले साल गांधी जयंती पर बेगुसराय के गोदरगावां गांव में जाने का मौका मिला था. इस गांव में एक एक अद्भुत संस्था है. इसकी कहानी यह है कि सन् बयालीस के भारत छोड़ो आंदोलन के समय अंगरेजी सरकार ने रेल की पटरी उखाड़ने की सजा में इस गांव पर एक सामूहिक जुर्माना लगाया था. स्वतंत्रता मिलने के बाद नयी सरकार ने गांव को जुर्माने की रकम वापस कर दी.
गांववालों ने उसी पैसे से यहां एक पुस्तकालय बनवाया. इसलिए इसका नाम भी रखा ‘विप्लवी पुस्कालय’. मैं चिंतित था कि गांधी और राष्ट्रवाद जैसे विषय पर मैं ग्रामीण श्रोताओं के बीच कैसे बोलूं. लेकिन मुझे आश्चर्य यह हुआ कि इस पुस्तकालय के सभागार में सात सौ से ज्यादा लोग उपस्थित थे और आयोजकों ने मुझे सुझाव दिया कि आप ठीक उसी तरह से बोलें, जैसे किसी बड़े विश्विद्यालय में हों. फिर मुझे पता चला कि इस पुस्तकालय में हिंदी के लगभग सभी साहित्यकार और आलोचक अपना वक्तव्य दे चुके हैं.
क्या यह थी बिहार के गावों में पुस्तकालयों की परंपरा? तबसे आज तक जब भी मैं किसी गांव में जाता हूं, सबसे पहले यही पता करने का प्रयास करता हूं कि क्या इस गांव में भी कोई पुस्तकालय है. लेकिन, जानकार दुख होता है कि लगभग सब जगह खबर यह होती है कि किसी जमाने में गांवों में दो-दो पुस्तकालय हुआ करते थे. अब सवाल है कि कहां गायब हो गये ये पुस्तकालय? क्या अब उनकी जरूरत नहीं रही?
मुझे याद है, बचपन में पूर्णिया शहर के महत्वपूर्ण लोगों में वहां के जिला पुस्तकालय के प्रभारी भी हुआ करते थे. शहर के एक कोने में बना पुस्तकालय शाम में खचाखच भरा रहता था. शहर में एक नेहरू युवक केंद्र था, जिसमें छोटा-सा पुस्तकालय था. मेरी पूरी मित्रमंडली शाम में वहां पहुंच जाती थी. आपस में किताबों को लेकर बहस होती थी.
‘राग दरबारी’ तो जैसे हमारे बालमन पर छाया रहा था कई दिनों तक. इस बार की शोध-यात्रा में उन पुस्तकालयों को खोजता रहा. सभी वीरान हो चुके हैं या मर चुके हैं. शहर में अब कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां लोग आपस में समसामयिक स्थितियों पर या साहित्य पर कोई चर्चा कर सकें. किसी-किसी शहर में ‘कला भवन’ जैसे सांस्कृतिक संस्थाएं भी हैं. लेकिन, लोग वहां केवल कार्यक्रमों पर ही जमा होते हैं. अनायास ही शाम में साहित्य चर्चा के लिए जमा होने की परंपरा मर सी गयी है. ऐसी परंपराओं का चल पाना पुस्तकालयों के बिना संभव भी नहीं है.
बिहार के गांवों में लगभग तीन हजार पुस्तकालय बंद हो गये हैं. क्योंकि, नौ करोड़ की जनसंख्या वाले इस राज्य में सालाना पुस्तकालयों पर केवल दस लाख रुपये खर्च किये जाते हैं. सुना था कि पंचायती राज में पुस्तकालय की चर्चा है, लेकिन इसका कोई नामों-निशान नहीं दिखता है. यह एक पहेली है कि बिहार में शिक्षा को लेकर जबरदस्त जागरूकता होने के बावजूद पुस्तकालयों की बदहाली क्यों है. अब तो विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी पुस्तकालय के लिए राशि घटती जा रही है. शायद ही कोई विद्यालय, महाविद्यालय या विवि में एक सुचारु रूप से संचालित पुस्तकालय होने का दावा कर सकता है.
क्या हमारे समाज को पुस्तकालय की जरूरत नहीं रह गयी है? तमाम इंटरनेट की सुविधा के बावजूद फ्रांस जैसे देश में पुस्तकालयों को लेकर बहस है. मुद्दा यह है कि कैसे उन्हें रविवार को भी खुला रखा जाये. आप किसी भी विकसित देश में चले जायें, आपको पुस्तकालय की बेहतरीन सुविधा मिल जायेगी. इसलिए यह कहना बिलकुल सही नहीं होगा कि भारत के समाज को इसकी जरूरत अब नहीं रही. सच तो यह है कि पुस्तकालयों की जरूरत लोगों को अब ज्यादा है. आप समाज की बैद्धिकता का आकलन इस बात से कर सकते हैं कि वहां पुस्तकालय कैसे हैं और कितने लोग उसमें पाये जाते हैं.
इस विषय पर कोई तर्क देने की जरूरत तो नहीं है कि समाज की तरक्की के लिए, उसमें अमन के लिए ज्ञान की जरूरत है, साझदारी की जरूरत है. सच तो यह है कि मनुष्य को मुक्ति के लिए भी ज्ञान मार्ग को उत्तम बताया गया है. निरंतर ज्ञान का श्रोत पुस्तकालय नहीं तो और क्या हो सकता है.
पुस्तकालय के बारे में बात करने की प्रेरणा मुझे उस पुरस्कार वितरण समारोह से मिली, जहां बहुत दिनों के बाद किसी मंत्री को कहते सुना कि हर विधानसभा क्षेत्र में कम-से-काम चार पुस्तकालय खुलने चाहिए. अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. हिंदी के साहित्यकारों, पत्रकारों, कवियों, आलोचकों को हाल में दिल्ली सरकार ने सम्मान से नवाजा है. साहित्य जगत की खोज खबर लेने मैं भी पहुंचा था, क्योंकि लगने लगा है कि साहित्य में आम लोगों की रुचि घटने लगी है.
किताबें बिकती नहीं हैं, लोगों तक पहुंचती नहीं हैं. पुरस्कार शायद इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि इससे साहित्यकारों की तरफ भी खबरिया चैनलों का ध्यान जाये और लोगों तक उनके होने की खबर फैले. यहां पुस्तकालय की चर्चा हो, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है.
अब सवाल है कि पुस्तकालय कैसे हों? और इसी संदर्भ में मुझे विप्लवी पुस्तकालय की याद आ गयी, उसकी आधुनिकता ने मुझे बेहद प्रेरित किया. आज के जमाने में पुस्तकालयों का स्वरूप भी बदलना चाहिए.
यहां केवल पुस्तक ही नहीं हो, बल्कि इंटरनेट सुविधा युक्त कंप्यूटर भी अच्छी संख्या में होने चाहिए. इसे एक तरह का ज्ञान केंद्र होना चाहिए, जहां हर उम्र, हर धर्म, हर जाति के स्त्री पुरुष अध्ययन तो करें ही, साथ ही उनके बीच संवाद भी हो सके. नाटक, संगीत, लोक कला, आदि की शिक्षा भी हो सके. संवाद और शिक्षा के नये केंद्र के रूप में यदि पुस्तकालयों की कल्पना भारत में की जाये, तो शायद जनता को यह बड़ी देन होगी. शिक्षा के लिए जो चाहत यहां की जनता में है, उसके लिए उनके पास उतनी क्रयशक्ति नहीं है.
इसलिए यह सरकारों का दायित्व है कि इसे बजट का आवश्यक हिस्सा बनाये. लेकिन, बिना जनआंदोलन के क्या हमारी सरकारें इस दिशा में कोई कदम उठाने के बारे में सोच सकती हैं? नेताओं में अवाम को शिक्षित करने की कोई इच्छा शायद ही है.

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