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चीन के जाल में फंसते देश

प्रशांत त्रिवेदी टिप्पणीकार prashantjnu.trivedi22 @gmail.com चीन ने अभी एक दशक पहले से दक्षिण एशिया के देशों को सरंचना अवस्थापना के लिए बड़ी मात्रा में ऋण के रूप में धन देना शुरू किया है. इससे उसके कई हित सध रहे हैं- प्रथम तो चीन देशों को भारत का भय दिखा के इन देशों में अपनी रणनीतिक […]

प्रशांत त्रिवेदी
टिप्पणीकार
prashantjnu.trivedi22
@gmail.com
चीन ने अभी एक दशक पहले से दक्षिण एशिया के देशों को सरंचना अवस्थापना के लिए बड़ी मात्रा में ऋण के रूप में धन देना शुरू किया है. इससे उसके कई हित सध रहे हैं- प्रथम तो चीन देशों को भारत का भय दिखा के इन देशों में अपनी रणनीतिक मुकाम बना रहा है. दूसरा, निवेश के नाम पर इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी पहुंच बना रहा है.
तीसरा, ये देश चीन के वस्तु उत्पादन के लिए, उसके नागरिकों के रोजगार के लिए नये उपनिवेश बन चुके हैं. चीन इस इन देशों में निवेश और आर्थिक ऋण के माध्यम से अपने व्यापार, यातायात, संचार और सामरिक हित एक साथ ही साध ले रहा है. अब अपने ओबीओआर में जोड़ने के लिए बड़ी मात्रा में धन दे रहा है.
साल 2016 में चीनी राष्ट्रपति की बांग्लादेश यात्रा के दौरान चीन ने बांग्लादेश को 24.45 बिलियन डॉलर के प्रोजेक्ट के लिए ऋण देने की सहमति दी.
यह रकम पूरे बंगलादेश के सकल घरेलू उत्पाद के करीब 20 प्रतिशत के बराबर है. अब चीन इस इतने बड़े सॉफ्ट लोन को कॉमर्शियल लोन में बदलने जा रहा है, जिसका साधारणतया मतलब है कि चीन अब अपनी ब्याज दर बढ़ा रहा है और बांग्लादेश को इसी महंगे ब्याज दर में लोन चुकाना होगा. परिणामस्वरूप बांग्लादेश चीन के कर्ज जाल में फंस जायेगा, भविष्य में यह ब्याज चुकाने के लिए फिर ऋण लेगा और एक ब्याज का दुश्चक्र चलता रहेगा. इसी तरह श्रीलंका पूरी तरह से चीन के बिछाये कर्ज जाल में फंस चुका है, निकट भविष्य में उससे निकलने की आशा नहीं दिख रही है.
श्रीलंका अपने न्यूनतम आर्थिक विकास दर के कारण उधार दे पाने में असमर्थ है. चीन की ब्याज संबंधी शर्तों को न पूरा कर पाने के कारण ब्याज अब एक्विटी में बदल रहे हैं, जिसके कारण उनके घरेलु प्रोजेक्ट में चीन की हिस्सेदारी बन रही है.
यहां प्रश्न यह है कि जो परियोजनाएं आर्थिक रूप से अगर लाभकारी नहीं हैं, तो भी चीन इनमें इतनी रुचि क्यों रख रहा है? क्योंकि इन परियोजनाओं में हिस्सेदारी से चीन को इंडियन ओशन में तो सामरिक बढ़त मिल रही है, जो उसके वन रोड वन बेल्ट के लिए भी मददगार होगी. चीन को एशिया की सबसे बड़ी शक्ति बनना है, इसके लिए भारत के प्रभाव को इस क्षेत्र में रोकना है. जिसके लिए पर भारत के लिए यह परेशानी का सबब हो सकती है. चीन यूरेशिया के जानेवाले पूरे संचार लाइन में कब्जा करना चाहता है.
अतः इस पोर्ट के माध्यम से यह काम बहुत आसानी से हो जायेगा. एक अन्य बात यह है कि श्रीलंका के हम्बनटोटा के आसपास के 15 हजार एकड़ इलाके को भी चीन ने खरीद लिया है, जहां से चीनी कंपनियां उत्पादन करेंगी. इस पूरे क्रम में श्रीलंका को कुछ नहीं मिला. भारत के लिए समस्या यह नहीं है कि श्रीलंका में चीन व्यापार कर रहा है, समस्या यह है कि हम्बनटोटा पोर्ट से भारत के तटीय सामरिक स्थान श्रीहरिकोटा, अंडमान बहुत नजदीक हैं, जहां हमारी सबमरीन है. यानी यह भारत को घेरने की साजिश है.
यही हालात चीन ने नेपाल में पैदा कर दिया है. ब्याज को न लौटा पाने के कारण नेपाल के एक बड़े बांध में चीन की कंपनी ने 75 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीद ली है. चीन इन निवेशों को पाने के लिए कर बल-छल सब प्रयोग किया. इसी प्रकार की हालत चीन ने कंबोडिया, म्यामार, लाओस, थाईलैंड में बना दिया है, ताकि पूरे आसियान देशों के बीच एकता न बन सके और उसकी दक्षिण चीन सागर में उसकी स्थिति मजबूत रहे!
चीन ने पाकिस्तान के एक प्रोजेक्ट के लिए 46 बिलियन डॉलर का ऋण दिया है, जो उसके सकल घरेलु उत्पाद का पांचवां भाग है. पाकिस्तान के घरेलू समाचारपत्र इतने बड़े लोन और उसके ऊंचे ब्याज दर पर चिंता व्यक्त करते रहे हैं. हालांकि, चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर के तहत बनाये जा रहे ग्वादर बंदरगाह व उसके आस पास के विकास के लिए चीन शून्य प्रतिशत ब्याज पर धन मुहैया करवाया है.
लेकिन, बलूचिस्तान, जहां पर यह बंदरगाह स्थित है, का विकास नहीं हो पायेगा और सारा माल जायेगा चीन की कंपनियों को. साथ में इस क्षेत्र के कॉपर और सोने की खदानों का काम चीन की कंपनियों द्वारा किया जा रहा है, जिसमें रोजगार तक का एक अत्यंत छोटा भाग ही यहां के स्थानीय लोगों को मिल रहा है; क्योंकि वहां मजदूर चीन के ही होते हैं. श्रीलंका जैसा हाल पाकिस्तान का भी होगा.हम्बनटोटा की तरह ग्वादर के माध्यम से चीन अब भारत को रणनीतिक रूप से घेरने की कोशिश कर रहा है.
सयुंक्त राष्ट्र की एक कमेटी ने कहा है कि ओबीओआर के कारण दक्षिण और मध्य एशियाई देश वित्तीय संकट में पड़ सकते हैं. वहीं भारत को संतुलित करने के चक्कर में चीन ब्याज चक्र में न फंस जाये. वैश्विक वित्तीय संस्थाओं को भी इस ओर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि अगर कोई देश वित्तीय अनियमिता में फंसता है, तो उस देश सहित पूरे क्षेत्र में सामाजिक दिक्कतों का जन्म होता है.

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