परिणाम के अनुसार, सरकारी मेडिकल कॉलेजों (बांग्ला मीडियम और हिंदी मीडियम) के छात्रों को महज सात फीसदी सीट ही मिल पायी है. कमोवेश यही हाल इंजीनियरिंग और निफ्ट या अन्य प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला लेने के इच्छुक छात्रों के साथ हो रहा है.
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शिक्षा के गिरते स्तर से अभिभावक चिंतित
कोलकाता: सरकारी स्कूलों में शिक्षा के गिरते स्तर ने अभिभावकों को निजी स्कूलों की तरफ रुख करने को मजबूर कर दिया है. यह दावा किसी विपक्षी दल का नहीं है, बल्कि आंकड़े सच्चाई को बयान कर रहे हैं. इससे शिक्षा जगत से जुड़े लोगों के साथ अभिभावक चिंतित है. जानकारों के मुताबिक, इस बार मेडिकल […]
कोलकाता: सरकारी स्कूलों में शिक्षा के गिरते स्तर ने अभिभावकों को निजी स्कूलों की तरफ रुख करने को मजबूर कर दिया है. यह दावा किसी विपक्षी दल का नहीं है, बल्कि आंकड़े सच्चाई को बयान कर रहे हैं. इससे शिक्षा जगत से जुड़े लोगों के साथ अभिभावक चिंतित है. जानकारों के मुताबिक, इस बार मेडिकल के लिए घोषित नीट (नेशनल एलिजिबिलिटी कम इंट्रेस टेस्ट) का जो परिणाम आया है, वह काफी हताशाजनक है.
इस बाबत चर्चा करने पर बंगीय शिक्षक व शिक्षा कर्मी समिति के संयुक्त सह सचिव अमीय कुमार दास ने बताया कि शिक्षा के गिरते स्तर के लिए पूरी तरह राज्य सरकार जिम्मेदार है. वजह बताते हुए वह कहते हैं कि पश्चिम बंगाल में उच्च माध्यमिक का पाठ्यक्रम राष्ट्रीय स्तर का नहीं है. राष्ट्रीय मापदंड के पैमाने पर हम लोग पिछले पायदान पर खड़े हैं. इस स्थिति में आप बच्चों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि प्रतियोगी परीक्षाओं में वह बेहतर परिणाम लाये. जब बुनियाद ही खोखली होगी तो बुलंद इमारत बनाने की बात तो सपना ही होती है. वही हो रहा है.
उन्होंने कहा कि बेहतर परिणाम के लिए तैयारी जरूरी है. पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय स्तर पर बराबरी करने के लिए सिलेबस बना तो लिया जाता है, लेकिन शिक्षकों को पढ़ाने का जरूरी प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है. ऐसे में शिक्षक जब स्कूल में जायेंगे तो बच्चों को क्या पढ़ायेंगे. राज्य सरकार की शिक्षा नीति इस मामले में पूरी तरह विफल है.
कमोवेश यही विचार बंगीय प्राथमिक शिक्षक समिति के महासचिव कार्तिक साहा का है. उनका कहना है कि वाममोरचा सरकार के समय शिक्षा में प्रयोग की नीति के तहत पहले प्राथिमक स्तर से अंगरेजी हटा दी गयी. इसके बाद पास फेल प्रथा को खत्म किया गया. इसकी वजह से शिक्षा का मान खत्म हो गया. कोढ़ में खाज की स्थिति उस वक्त हो गयी, जब कक्षा आठ तक नो डिटेंशन की नीति अपनायी गयी. इसकी वजह से कक्षा आठ तक बिना पढ़े भी छात्र पास कर सकते हैं. इसके अलावा स्कूलों में शिक्षकों की कमी और बुनियादी सुविधाओं का अभाव तो है ही, जिसका सीधा असर शिक्षा के स्तर पर पड़ता है.
प्रतियोगी परीक्षाओं में सरकारी स्कूलों के छात्रों की विफलता के बारे में अभिभावक इस्लाम खान कहते हैं कि हर कोई अपने बच्चों का बेहतर भविष्य बनाने के लिए उनको पढ़ाना चाहता है. जिनकी आर्थिक हालत थोड़ी भी अच्छी होती है तो वो सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने की बजाय निजी विद्यालयों का रुख करते हैं, क्योंकि उनको पता होता है कि भले ही उनके बच्चे को मुफ्त के ड्रेस और पाठ्य सामग्री मिल जाये, साथ में दोपहर का भोजन भी मिल जाये, लेकिन उनको शिक्षा तो मिलने से रही. ऐसे में बेहतर भविष्य की आस में निजी स्कूलों के पास जाना मजबूरी हो गयी है. सरकार को चाहिए कि जब इतना खर्च हो रहा है तो कम से कम बच्चों को सही शिक्षा मिले यह सुनिश्चित कराये.
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