पिछले काफी दिनों से फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ सुर्खियों में छाई हुई है. फिल्म आज रिलीज होने जा रही हैं. अभिनेत्री रत्ना पाठक शाह इस फिल्म का अहम हिस्सा हैं. वह कहती हैं कि लोग सेक्स सीन का नाम लेकर बवाल मचा रहे है लेकिन असल मे उन्हें इस फिल्म से इसलिए परेशानी है क्योंकि यह फिल्म पितृसत्ता को चुनौतीदेती है. अंलकृता श्रीवास्तव के निर्देशन में बनी इस फिल्म में रत्ना पाठक के अलावा कोंकणा सेन शर्मा, अहाना, सुशांत सिंह और शशांक अरोड़ा मुख्य भूमिका में हैं. हाल ही में हमारी संवाददाता उर्मिला कोरी से हुई बातचीत में रत्ना पाठक शाह ने फिल्म को लेकर कई दिलचस्प खुलासे किये.
सेंसर बोर्ड का रवैया इस फिल्म को लेकर काफी विवादस्पद रहा है. आपका क्या कहना है ?
बहुत बुरा लगता है. घुटन होती है. किस तरह की दुनिया में हम जी रहे हैं. किस तरह के समाज में हम रह रहे हैं. वोट तो हम देने के काबिल हैं लेकिन किस तरह की फिल्म हम देखेंगे. यह हम तय नहीं कर सकते हैं. बेवकूफी भी लगती है. वैसे सेंसर की बेवकूफी का सबसे ज्यादा फिल्म को फायदा हुआ है. इतनी आलोचना ने सबसे बड़ा फायदा यह किया किया अलकृंता जब थोड़ी सी ढीली पड़ रही थी तो इस आलोचना और पक्षपात ने उसमें एक नया जोश भर दिया. वैसे भी बहुत मुश्किलों का सामना कर उसने ये फिल्म बनायी है. उसने जब महसूस किया कि सेंसर बोडऱ् का यह रवैया पूरी तरह से गलत है तो उसने तय कर लिया कि हम चुपचाप से नहीं बैठ सकते हैं हमें इसका जवाब देना ही पड़ेगा. दूसरी बात जो ये सामने आयी कि लोगों की जागरुकता इस फिल्म को लेकर बहुत बढ़ गयी. वह यह बात जानने को उत्सुक हो गए कि आखिरकार इस फिल्म की कहानी में है क्या जो दूसरे को परेशान कर रही हैं. ऐसा कौन सा मसला उठा रही है जो सभी की नींद उड़ा रहा है.
आजकल तो एक शब्द पर भी सेंसर को आपत्ति हो रही है, शाहरुख खान की फिल्म ‘जब हैरी मेट सेजल’ में इंटरकोर्स शब्द पर सेंसर को आपत्ति थी. इसे किस तरह से देखती हैं ?
सच कहूं तो एक एजेंडा लग रहा है जो चल रहा है. वह हमारे देश में पहले नहीं था. मुझे बहुत खतरें दिखते हैं और भी आपत्तियां होगी और भी बंधन हमपर थोपे जाएंगे. एक समाज अगर खुद का मंथन करना बंद कर दे तो वह कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता है और यही हो रहा है. दिमाग बंद कर रहे हैं हम खोलने के बजाए. दुनिया भर में ये देखा जा रहा है. सौ साल पहले इंसान का दिल और दिमाग खोलने की बात की जा रही थी. सोच को विस्तृत करने की बात हो रही थी. अलग तरह के लोगों और उनकी सोच को अपनाओ. मुझसे अलग होना परेशानी की बात नहीं होनी चाहिए बल्कि अलगअलग होने का उत्सव होना चाहिए. अलग होना खासियत था लेकिन आज यह परेशानी का बहुत बडा कारण बन गया है. वैसे समाज ने इससे पहले भी बहुत कुछ देखा है. जिसके खिलाफ आवाज उठायी है. बहुत कुछ खोया है तो काफी कुछ पाया भी है. अलकृंता जैसे पागल बंदे तो आपको मिलेंगे ही. जो आपको अपने दिल की कहना चाहेंगे. अपने दिल की बात सुनाना चाहेंगे. उनका साथ देने के लिए हमारे जैसे लोग भी मिल ही जाएंगे. यही वजह है कि मुङो फिक्र तो होती है लेकिन निराशा नहीं होती है. बस हमें अपनी सोच के साथ रहना होगा.हमें अपनी बात और मुद्दे स्टैंड करने की जरुरत होगी.
अगर आपको मौका मिलेगा तो आप क्या सेंसर बोर्ड के पद को संभालना चाहेंगी.
मुझे उनलोगों से बहुत हमदर्दी है उन्हें बहुत ही सड़ी हुई फिल्में देखनी पड़ती है. मेरी हिम्मत नहीं है इतनी सड़ी हुई फिल्में देखने की.
‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ शूटिंग का अनुभव कैसा था परदे पर तो सिर्फ महिलाएं ही दिख रही हैं. ऑफ स्क्रीन माहौल कैसा था ?
परदे पर भले औरतें ही दिख रही हैं लेकिन परदे के पीछे महिलाओं के साथ साथ पुरुष भी थे. कुछ बंबई के थे कुछ भोपाल से आए थे. कुछ सीनियर थे कुछ युवा और नए लोग थे. बहुत ही रोचक लोगों का साथ मिला था. ऐसी फिल्मों की शूटिंग भावानात्मक के साथ साथ शारीरिक रुप से भी चुनौती होती है. एक भी गलत मिजाज का अगर टीम में इंसान जुड़ जाए तो फिर सोच लीजिए. फिल्म का क्या होगा. समझ लीजिए सेंसर बोर्ड वालों की तरह सोच होती थी तो क्या होता था लेकिन अलंकृता ने बहुत खास लोगों को इस फिल्म के लिए चुना था. जिस वजह से शूटिंग बहुत ही यादगार रही. हां दूसरी तरह की दिक्कतें जरुर आयी. इस तरह की फिल्मों की शूटिंग में बहुत सारी दिक्कतें आती हैं. पैसों के अभाव की वजह से बहुत ही सारी चीजों से आपको समझौता करनापड़ता है. समय कम है. आपको जल्दी में शूटिंग करना पड़ता है. कहीं कपड़े बदलने की जगह नहीं है. आराम की जगह नही है. किसी तरह लड़ झगड़कर भिड़कर इस तरह की फिल्में बनती आयी है और ताज्जुब की बात यह है कि इस वक़्त में भी कमोबेश हालात वही हैं.
इस हफ्ते ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ रिलीज हो रही है तो अगले सप्ताह पूरी तरह से कमर्शियल फिल्म ‘मुबारंका’ में आप दिखेंगी. किस तरह से आप दोनों अलग ध्रुवों में सामंजस्य बिठा पाती हैं.
मेरी तो निजी जिंदगी भी ऐसी रही है. हमेशा ही मैं अपोजिट लोगों के बीच ही रही हूं. सबसे ज्यादा मैंनेमजा लुटा है यह भी कहूंगी तो गलत न होगा. मेरे पिता विचारों से आरएसएस थे बिजनेसमैन थे. मेरी मां सोच से कम्युनिस्ट पार्टी की थी. एक्ट्रेस थी. वाद विवाद और खूब बातें होती थी.दोनों की बातें सुनती थी. जो एक दूसरे से बिल्कुल ही विपरित होती थी. मैं किसी से प्रभावित नहीं होती थी बल्कि दोनों बातें सुनकर फिर अपनी सोच से फैसला लेती थी. जिस वजह से मेरे लिए हमेशा ही अलग अलग रास्ता चुनना आसान था. फिल्मी चक्र कर रही थी उस वक्त तारा भी कर रही थी. थिएटर, फिल्म और टेलिविजन तीनों अलग अलग माध्यम लेकिन मैंने तीनों में बखूबी सामांजस्य बिठाया.
फिल्म में कितने कट्स हुए हैं ?
यह तो मैं आपको नहीं बता पाऊंगी लेकिन इस फिल्म में सिर्फ सेक्स नहीं दिखाया गया है. जिसकी इतनी चर्चा हो रही है. यह फिल्म महिलाओं से जुड़े बहुत और मसलों को भी छेडती है. सेक्स हमारीजिंदगी का हिस्सा है. उसी तरह इस फिल्म का भी यह हिस्सा है. मूल रुप से यह फिल्म पितृसत्ता केखिलाफ हैं. शायद इसलिए कुछ लोगों को ज्यादाबुरी लगी है लेकिन वह ऐसा तो बोल नहीं सकते हैंइसलिए सेक्स का नाम लिए जा रहे हैं. वैसे पितृसत्ता के खिलाफ आवाज होनी भी चाहिए। गलत चीजों को गलत बताने में क्या दोष है. पितृसत्ता का विनाश सिर्फ महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि पुरुषों के लिए भी फायदेमंद होगा.
सेंसर ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया में भी कईलोग इस फिल्म के खिलाफ बातें कर रहे हैं कि महिला सशक्तीकरण के इस दौर में इस तरह की फिल्में क्या दिखा रही हैं.
किसी ने फिल्म देखी नहीं लेकिन अपनी राय बनाली है. यही तो सबसे बड़ा दुर्भाग्य है.आज तक हमारे विचारों को सुना नहीं गया था तो अब आप बिना सोचे समङो बस फूट रहे हैं. जितने ओपिनिएन हैं उतनी मीडिया भी है. यही वजह है कि सही गलत बिना सोचे हम बस पागलों की तरह इंटरनेट पर बातें हीकरते जा रहे हैं. सोचते भी नहीं कि हम अपने को कितना बेवकूफ दिखा रहे हैं. मुङो जहां तक लगता है कि जो लोग ये कमेंट लिख रहे हैं. वह युवा होंगे. कल को जब वह पचास साल के होंगे और इन कमेंटस को देखेंगे तो जरुर सोचेंगे कि मैं जवानी में किस कदर बेवकूफ था. मुङो ऐसे लोगों पर दया आती है.
हमारे समाज में महिलाओं की जो स्थिति हैं उसकेलिए आप किसे सबसे ज्यादा जिम्मेदार मानती हैं ?
एक बहुत ही पुराना जुमला है. मैं उसे इस बात पर दोहराना चाहूंगी कि औरत ही औरत की दुश्मन है.यह औरत ही है जो पितृसत्ता को अगली जेनेरशन तक पहुंचाती है. घर की सीमा में औरतों का यहीकाम बना दिया गया है. अपनी बेईज्जती किस तरह से करायी जाए. खुद को नीचा किस तरह से हमेशा दिखाया जाए. फिर यही मां अपनी बेटियों को यही सब सीखाएंगी कि बेटी चुप रह. आवाज मत उठा.ऐसे कपड़े मत पहन. ऐसे बैठ मत. यह पुरुषों की सोच है लेकिन इसे सबसे ज्यादा घर की महिलाएं दोहराती है. बार बार पितृसत्ता ने जो नियम कानून बनाएं हैं. उसे थोपने का काम मर्द नहीं करते हैं. वो औरतों से करवाते हैं. हमलोग दोनों तरह से पिटी हैं. हमें एक और तो देवी, पूजा भगवान, लक्ष्मी का दर्जा दिया जाता है लेकिन हकीकत में मां को देवी बताने वाले बूढी मां को घर से बाहर निकालने में सबसे आगे होते हैं. जिस पत्नी को लक्ष्मी का रुप बताते हैं हकीकत में उसे पीटने से पीछे नहीं रहते हैं. बेटी को घर की इज्जत बताते हैं और उसकी भ्रूण में ही हत्या कर देते हैं.कुलमिलाकर हाथी के दांत दिखाने के और और खाने के और वाला पूरा मामला है. हमारा पूरा समाज इसी सोच पर चलता है. यही परेशानी है.
एक औरत होने के नाते आप औरतों को क्या सलाह देंगी ?
औरतों को अपने आप पर विश्वास करना होगा. लड़ाई लड़ने की हिम्मत जुटानी होगी. एक महिला को दूसरी महिला की मदद करनी होगी. नीचा नहीं दिखाना है. औरत ही औरत की दुश्मन है यह जुमला बहुत ही खतरनाक है. हमें यह बात समझनी होगी. औरत को साथ मिलकर आवाज उठाना चाहिए. हमारे विचार अलग हो उसमे कोई परेशानी नहीं है. हमारा हक तुम्हारा हक एक ही है. इसे अच्छी तरह से जीना चाहिए इसमे कोई समझौता नहीं होना चाहिए.