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पुस्तकालय कर रहा सौ साल के जश्न की तैयारी

इंतजार Â 1917 में यहां आये थे गांधी और रखी थी वाचनालय की नींव, वैशाली के लालगंज में सौ सालों से चल रहा है शारदा सदन पुस्तकालय एक हजार से अधिक सदस्यों वाले इस पुस्तकालय में हैं 83 हजार से अधिक किताबें लालगंज(वैशाली) : चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष को लेकर जहां बिहार में अलग-अलग जगहों […]

इंतजार Â 1917 में यहां आये थे गांधी और रखी थी वाचनालय की नींव, वैशाली के लालगंज में सौ सालों से चल रहा है शारदा सदन पुस्तकालय

एक हजार से अधिक सदस्यों वाले इस पुस्तकालय में हैं 83 हजार से अधिक किताबें
लालगंज(वैशाली) : चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष को लेकर जहां बिहार में अलग-अलग जगहों पर आयोजन हो रहे हैं, वहीं वैशाली के ग्रामीण क्षेत्र का एक प्राचीन पुस्तकालय कुछ अलग वजहों से महात्मा गांधी को याद कर रहा है. 103 साल पुराने इस पुस्तकालय में ठीक सौ साल पहले महात्मा गांधी पहुंचे थे और उन्होंने उनके ही नाम पर एक वाचनालय की नींव रखी थी. यह वाचनालय तब से आज तक लगातार रोज खुलता है और आसपास के दर्जनों लोग रोज यहां आने वाली 40 से अधिक पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते हैं.
इस गांधी वाचनालय और गांधी के आगमन के सौ साल पूरे होने के अवसर पर यह पुस्तकालय एक सेमिनार आयोजित करने की तैयारी कर रहा है. इसके लिए राज्य के कला और संस्कृति मंत्रालय ने भी पुस्तकालय से प्रस्ताव मांगा है, जिसे समिति ने प्रस्तुत भी कर दिया है.
यहां दो बार आये थे महात्मा गांधी : 27 जून, 1914 को स्थापित यह पुस्तकालय काफी समृद्ध और अपने आप में अनूठा है. किसी ग्रामीण पुस्तकालय में एक हजार से अधिक सदस्य और 83 हजार से अधिक पुस्तकों का होना और एक सौ तीन सालों से लगातार अपने पाठकों को सेवा उपलब्ध कराना भी अपने आप में अनूठी बात है. 1917 में गांधी वाचनालय की नींव रखने तो गांधी यहां आये ही थे, 1934 के भूकंप में जब इस पुस्तकालय का भवन क्षतिग्रस्त हो गया तब भी वे यहां पहुंचे थे. उन्होंने तत्काल डॉ. राजेंद्र प्रसाद से कह कर भवन के जीर्णोद्धार के लिए रिलीफ फंड से 400 रुपये की राशि दिलवायी थी. उस वक्त महात्मा गांधी ने जो निरीक्षण पंजी में लिखा था, वह इस पुस्तकालय के लिए किसी धरोहर की तरह है.
आजादी की लड़ाई में भी रही है महती भूमिका : उन्होंने लिखा था- ‘मकान तो गिरा, लेकिन विद्या का नाश नहीं हो सकता, इसलिए पुस्तकालय से विद्या धन प्राप्त करें.’ गांधी जी के साथ जुड़ाव की वजह से इस पुस्तकालय का देश के स्वतंत्रता संग्राम से भी स्वाभाविक जुड़ाव हो गया. 1925-26 के आसपास इस पुस्तकालय में क्रांतिकारी जुटते थे, इसलिए तब से अंगरेज सरकार की टेढ़ी निगाह इस पर पड़ने लगी. 1932 में तिरहुत प्रमंडल के आयुक्त जेई स्कॉट ने सरकारी योजनाओं का प्रचार करने को कहा, तो पुस्तकालय ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. इस पर सरकारी कर्मचारियों के पुस्तकालय में जाने पर रोक लगा दी गयी और पुस्तकालय को बंद कराने के प्रयास शुरू हो गये. मगर सरकार इस प्रयास में सफल नहीं हो पायी. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी इस पुस्तकालय के प्रधानमंत्री व कर्मचारी समेत कई सदस्यों ने सक्रिय भागीदारी की और उन्हें जेल जाना पड़ा.
आज भी मिलता है पाठकों का स्नेह
आज जब लोगों में पुस्तकों के प्रति रुचि घटती जा रही है, तब भी इस पुस्तकालय के प्रति लोगों का स्नेह बचा हुआ है. पुस्तकालय के सहायक सचिव संजय कुमार मंडल कहते हैं, आज की तारीख में 1093 सदस्य हैं और रोजाना औसतन 30 पाठक पुस्तकालय पहुंचते हैं. मंगलवार को छोड़कर रोजाना यह छह घंटे खुलता है. इसके 14 विभाग हैं, जिनके आठ पदों पर चार कर्मी कार्यरत हैं. अपनी इस महान परंपरा की याद में यह पुस्तकालय एक राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित करना चाहता है.
संजय मंडल कहते हैं कि उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से इस बारे में अनुरोध किया था, संभवतः इसी के मद्देनजर कला और संस्कृति मंत्रालय ने उनसे सेमिनार के लिए प्रस्ताव मांगा था, जिसे उन्होंने 16 जून, 2017 को विभाग को उपलब्ध करा दिया है.
देश भर के साहित्कार और राजनेता आते रहे हैं यहां
अपनी समृद्ध विरासत की वजह से यहां गांधी और राजेंद्र प्रसाद के अलावा रामधारी सिंह दिनकर, बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, आजाद हिंद फौज के सेनानी कर्नल महबूब अहमद, चित्रकार उपेंद्र महारथी, गांधी जी की पोती मनु बेन, डॉ. जाकिर हुसैन, बांग्ला उपन्यासकार विमल मित्र, डॉ. विंदेश्वरी पाठक, रामविलास पासवान समेत बिहार के अधिकांश मुख्यमंत्री यहां आ चुके हैं. 1952 में इस पुस्तकालय ने साइकिल से पाठकों के घर पुस्तक पहुंचाने की अनूठी योजना शुरू की .
जो 1980 तक चलती रही और आसपास के 154 गांवों के 2500 से अधिक सदस्यों को यह सुविधा उपलब्ध कराती रही.

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