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बेटों की सही परवरिश ही बेटियों की सुरक्षा
रचना प्रियदर्शिनी भारत की बेटियां आज पढ़ रही हैं, आगे बढ़ रही हैं, देश-दुनिया में अपना नाम रोशन कर रही हैं, फिर भी उनके खिलाफ होनेवाले अपराध कम होने के बजाय निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं. एनसीआरबी की मानें तो पिछले 10 सालों में महिलाओं के खिलाफ होनेवाले अपराध दोगुने से भी ज्यादा बढ़ […]
रचना प्रियदर्शिनी
भारत की बेटियां आज पढ़ रही हैं, आगे बढ़ रही हैं, देश-दुनिया में अपना नाम रोशन कर रही हैं, फिर भी उनके खिलाफ होनेवाले अपराध कम होने के बजाय निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं. एनसीआरबी की मानें तो पिछले 10 सालों में महिलाओं के खिलाफ होनेवाले अपराध दोगुने से भी ज्यादा बढ़ गये हैं. भारत में हर दो मिनट पर इस तरह का कोई केस दर्ज किया जाता है.
हर घंटे महिलाओं के साथ दुष्कर्म की चार घटनाएं होती हैं. आखिर क्यों? क्या इसके लिए महिलाएं खुद दोषी हैं, जैसा कि आये दिन समाज के कुछ ‘तथाकथित प्रबुद्ध’ लोगों द्वारा इस संबंध में टिप्पणी की जाती रही है या फिर इसके लिए हमारे सामाजिक परवरिश की वह संरचना जिम्मेदार है, जिसमें लड़कियों को तो ‘आदर्श’ बनने का पाठ पढ़ाया जाता है, लेकिन लड़कों के लिए ऐसे किसी मापदंड की जरूरत नहीं समझी जाती. इसी मुद्दे पर विमर्श करती हमारी आज की कवर स्टोरी.
पिछले एक दशक से राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय खबरों में एक तरफ जहां महिला उपलब्धियों की खबरें पढ़ने-सुनने को मिलती रही हैं, वहीं दूसरी ओर लगभग हर दिन उनके खिलाफ होनेवाले अपराधों की खबरों से भी हमारा आमना-सामना होता रहता है. आखिर हम क्यों नहीं महिलाओं के हित में तमाम तरह की योजनाएं बनाने के बावजूद उन्हें एक ऐसा सुरक्षित वातावरण दे पा रहे हैं, जिसमें वह खुल कर जी पा रही हैं? क्यों उन्हें हर बार देर रात घर से बाहर निकलने, कहीं अकेले जाने या किसी अनजान शख्स से बात करने के लिए हमेशा सोचना पड़ता है? कुछ लोग इसके लिए महिलाओं द्वारा पहने जानेवाले छोटे कपड़ों को जिम्मेवार ठहराते हैं, तो कुछ लोग उनके देर रात घर से बाहर घूमने-फिरने को इसकी वजह बताते हैं.
पर क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि समस्या की मूल जड़ कहीं और हैं, क्योंकि जरा सोचिए न, अगर लड़कियों के छोटे कपड़े उन्हें बेआबरू करने के लिए जिम्मेवार होते, तो फिर सलवार-सूट-दुपट्टा पहने या बुर्के से ढंकी लड़कियों के साथ बलात्कार क्यों होते हैं? अगर रात में देर तक उनके घूमने के कारण उन्हें ‘आइटम गर्ल’ समझ लिया जाता है, तो फिर दिन के उजाले में राह चलती लड़कियों को ‘माल’ के रूप क्यों देखा जाता है? इन सबके पीछे जो मूल वजह है, वह है हमारे सामाजिक परवरिश का ढांचा, जिसमें लड़कियों के लिए तो आदर्श बेटी, बहू, पत्नी और मां के रूप में तमाम तरह के नियम-कानून तथा वर्जनाएं हैं, जबकि लड़कों के लिए सिवाय उन्हें ‘मर्द’ बनाने के नुसखे के और किसी तरह के शिक्षा की जरूरत नहीं समझी जाती.
संवेदनशीलता का पाठ है जरूरी
लड़का हो या लड़की, जन्म से लेकर लगभग पांच साल तक दोनों ही समान रूप से संवेदनशील होते हैं. वे भूख-प्यास लगने पर एक ही तरह से रोते हैं. कोई उनके सामने उनके प्रियजनों को मारे-पीटे, तो उन्हें समान रूप से तकलीफ होती है. लेकिन जैसे-जैसे लड़के बड़े होते हैं,
हमारा समाज उनके लिए संवेदनशीलता के भिन्न मापदंड निर्धारित करने लगता है, जैसे- उनसे कहा जाता है ‘क्या बात-बात पर लड़कियों की तरह आंसू बहाते रहते हो.’ मतलब उन्हें यह सिखाया जाता है कि रोना-धोना सिर्फ लड़कियों का काम है. लड़कों को ज्यादा भावुक नहीं होना चाहिए. उन्हें शक्तिशाली, कठोर और आक्रामक होना चाहिए. ऐसे लड़के अपनी फीलिंग्स को एक्सप्रेस न कर पाने के कारण भीतर-ही-भीतर कुंठित होते हैं और यही कुंठा आगे चल कर उन्हें आक्रामक और कठोर बनाने में अहम भूमिका निभाती है. इसलिए जरूरी है कि बेटियों की तरह बेटों को भी खुल कर अपनी फीलिंग्स को एक्सप्रेस करने, अपनी गलतियों पर पछताने, आंसू बहाने का मौका दें, ताकि वे अपने दर्द के साथ-साथ दूसरों की तकलीफ को भी बेहतर तरीके से समझ सकें.
जो गलत है, उसका विरोध करना सिखाएं
असंवेदनशील परिवेश में पले-बढ़े लड़कों से हम आखिर यह उम्मीद कर ही कैसे सकते हैं कि वे दूसरों के प्रति संवेदनशील रवैया अपनायेंगे. बचपन से ही बेटियों के साथ-साथ बेटों को भी यह सीखाना जरूरी है कि जो गलत है, वे उसे नजरअंदाज करने के बजाय उसका विरोध करें. चाहे खुद उनके साथ कुछ गलत हो या फिर किसी और के साथ. इसके अलावा, अपने विपरीत लिंग के साथी के लिए कभी भी अभद्र भाषा का प्रयोग न करें और न ही उन्हें मजाक का पात्र बनाएं या बनने दें, ताकि अगर उन्हें कोई यह कहे कि ‘चूल्हा-चौका लड़कियों का काम है,’ तो वे यह कह सकें कि ‘वक्त पड़ने पर मुझे भी इसकी जरूरत पड़ सकती है.’
रोल मॉडल खड़ा करने की है जरूरत
कहते हैं बच्चे अपने बड़ों को देख कर ही ही सीखते हैं. बचपन में लड़कियों के लिए मां उसकी रोल मॉडल होती है, जबकि लड़कों के लिए उसके पिता. लड़कियां मां को घर संभालते हुए, सबकी देखभाल करते हुए और सबकी जरूरतों का ख्याल रखते हुए देखती है, तो वे भी ऐसा करना सीख जाती हैं. दूसरी ओर, हमारे पितृ-सत्तात्मक समाज में लड़के पिता को अकसर परिवार के मुखिया के रूप में देखते हैं, जो आदेश देता है और परिवार के लिए नियम-कानून बनाता है. प्राय: घर के सभी सदस्य उसका सम्मान करते हैं (चाहे मन से या फिर मजबूरी में). ऐसे में लड़के कैसे कुछ अलग सीख पायेंगे. अगर उन्हें संवेदनशील बनाना है, कुछ अलग सीखाना है, तो खुद पिता को भी वैसा ही बनना होगा.
लड़का होने के नाते आपके बेटे को हमेशा शर्ट-पैंट ही पहनना चाहिए, क्रिकेट ही खेलना चाहिए, लड़कियों के साथ नहीं, बल्कि लड़कों के साथ ही खेलना चाहिए, पिंक कलर की चीजें नहीं, ब्लू कलर की चीजें यूज करनी चाहिए… ऐसा क्यों? क्या आप अपनी बेटियों को ऐसा कुछ करने से रोकते हैं?
वे तो जब जींस-टीशर्ट पहन कर लड़कों की तरह क्रिकेट में चौके-छक्के लगाती हैं, तो आप फूले नहीं समाते. फिर बेटे को लड़कियोंवाली चीजें करने से क्यों मना करते हैं. आपका यही व्यवहार उनमें सुपीरियोरिटी कॉम्प्लेक्स पैदा करता है और वे लड़कियों को कमजोर समझने लगते हैं. ऐसा न करें. बेटों को लड़कियों से बात करने, उनके बारे में अधिक-से-अधिक जानने, उनसे जुड़ी विभिन्न समस्याओं को समझने और उसके बारे में खुल कर बात करने का मौका दें. कहते हैं व्यक्ति में संस्कारों की शुरुआत घर से होती है, तो फिर क्यों नहीं बेटों की परवरिश भी हम उन्हीं परिवेश और संस्कारों के साथ करें, जिसमें बेटियों की करते हैं, क्योंकि समानता की अवधारणा तो तभी साकार होगी.
एक पिता अपने बच्चों के लिए सबसे प्रमुख चीज, जो वह कर सकता है, वह है उनकी मां से प्रेम करना और समय-समय पर अपनी बातों एवं व्यवहारों के माध्यम से उस प्रेम को प्रदर्शित करना.
थिओडर हेस्बर्ग
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