II उर्मिला कोरी II
फ़िल्म: ट्यूबलाइट
निर्माता: सलमान खान फिल्म्स
निर्देशक: कबीर खान
संगीत: प्रीतम
कलाकार: सलमान खान,सोहेल खान, ओम पुरी,मातिन, ज़हू ज़हू
रेटिंग: ढाई
‘एक था टाइगर’, ‘बजरंगी भाईजान’ के बाद निर्देशक कबीर खान और अभिनेता सलमान खान की जोड़ी ‘ट्यूबलाइट’ में फिर साथ है. इस जोड़ी की दोनों फिल्में जबरदस्त कामयाब रही है इसलिए इस फ़िल्म से उम्मीदें बहुत ज़्यादा बढ़ गयी थी. मनोरंजन के उस उम्मीद पर यह फ़िल्म पूरी तरह से खरी तो नहीं उतरती है लेकिन इस फ़िल्म में सलमान खान अपने लोकप्रिय इमेज से बिल्कुल अलग नज़र आए हैं. अपनी फिल्मों में एक साथ दर्जन भर लोगों को पीटने वाले सलमान इस फ़िल्म में पिटते नज़र आते हैं. हर दूसरे सीन में उनकी आंखों में आंसू हैं.
एक एक्टर के तौर पर उन्होंने कुछ अलग करने का साहस किया है लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट इस हौंसले को कमज़ोर कर जाती है. फ़िल्म की कहानी का दो भाइयों लक्ष्मण (सलमान खान) और भरत (सोहेल खान) की है. लक्ष्मण मानसिक रूप से कमज़ोर है. जिस वजह से बड़ा भाई होते हुए भी लक्ष्मण का ख्याल भरत को ही रखना पड़ता है. दोनों अपनी ज़िंदगी में खुश हैं लेकिन इसी बीच चीन और भारत का युद्ध छिड़ जाता है. भरत सैनिक के तौर युद्ध लड़ने चला जाता है. लक्ष्मण अकेला रह जाता है अपने भाई का इंतज़ार करते. फिर उसे एक जादूगर से यकीन का सबक मिलता है. जिसे ओम पुरी का किरदार गाँधीजी की प्रेरक बातों से जोड़कर लक्ष्मण को एक नई सोच देते हैं सत्य, अहिंसा, भाईचारे, प्यार का.
जिसके दम पर इंसान पहाड़ को भी हिला सकता हैं लक्ष्मण पहाड़ हिलाने की कोशिश करता है और यह यकीन भी रखता है कि उसका भाई चीनियों की कैद से रिहा होकर वापस आ जायेगा. इसी यकीन की कहानी ‘ट्यूबलाइट’ है. फ़िल्म की स्क्रिप्ट का फर्स्ट हाफ ठीक है सेकंड हाफ में कहानी बहुत खींची गयी है. क्लाइमेक्स के पहले 15 मिनट व्यर्थ हैं और क्लाइमेक्स भी कमजोर हैं. फ़िल्म की कहानी मौजूदा दौर के टेंशन भरे माहौल के साथ भी बहुत हद तक मेल खाती है बस मुस्लिम के बजाय चीनी को कहानी में जोड़ दिया गया है.
फ़िल्म की कहानी जब गाँधीजी की बातों पर चलती है तो कई बार लगे रहो मुन्नाभाई की झलक भी सामने ले आती है. फ़िल्म की कहानी पूरी तरह से इमोशनल है. फ़िल्म में हर दूसरे सीन में इमोशन है लेकिन वह आपको जोड़ नहीं पाता है. यही फ़िल्म की खामी है. इमोशन को कम करने के लिए हल्की फुल्की हंसी के दृश्य भी फ़िल्म में जोड़े गए हैं जिसमें आर्मी में भर्ती और सलमान का सच स्वीकारने वाला दृश्य अच्छा बन पड़ा है. ऐसे दृश्यों की फ़िल्म को और ज़रूरत थी.
अभिनय की बात करें तो सलमान ने लक्ष्मण के किरदार को बड़ी मासूमियत के साथ जिया है. सोहेल के साथ परदे पर उनकी केमिस्ट्री खास है. सोहेल का अभिनय औसत है. मोहमद जीशान और बिजेंद्र कालरा और दिवंगत ओम पुरी अपने किरदारों में पूरी तरह रचे बसे हैं. मातिन और ज़हू ज़हू को भले ही ज़्यादा मौके न मिले हो लेकिन वह अपने परफॉरमेंस से याद रह जाते हैं. फ़िल्म के गीत संगीत की बात करें कहानी के अनुरूप हैं. किंतु परन्तु और मैं अगर खास बन पड़े है. फ़िल्म का कैमरावर्क कमाल का है. फ़िल्म के संवाद औसत हैं. कुलमिलाकर अगर आप सलमान के प्रशंसक हैं और उनकी लार्जर देन लाइफ वाली इमेज से कुछ अलग देखना चाहते हैं तो यह इमोशनल फ़िल्म आपको लुभा सकती है.