विजय बहादुर
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बिहार के राज्यपाल डाॅ रामनाथ कोविंद को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गंठबंधन (एनडीए) का राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया है. ऐसा लगता है कि वह आसानी से देश के अगले राष्ट्रपति निर्वाचित हो जायेंगे. दलित समाज से आनेवाले डाॅ कोविंद को राष्ट्रपति प्रोजेक्ट कर भाजपा ने सधी और दूर की कौड़ी खेली है.
तात्कालिक एजेंडा 2019 का लोकसभा चुनाव है. भाजपा जानती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जलवा अभी कायम है. लेकिन, यह भी सच्चाई है कि 2019 के आम चुनाव में उसे जनता को यह बताना होगा कि 2014 में किये गये वादों में से उसने कितने पूरे किये.
सरकार के तमाम दावों के बावजूद रोजगार सृजन के मामले में सरकार का प्रदर्शन ठीक नहीं रहा है. बेरोजगारी के कारण युवाओं में निराशा का माहौल पनप रहा है. लेकिन, सरकार का दावा है कि कौशल विकास योजना यानी स्किल इंडिया के माध्यम से करोड़ों लोगों को स्वरोजगार से जोड़ा गया है.
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दूसरी ओर, मध्यम और व्यापारी वर्ग, जिसे भाजपा का सबसे बड़ा आधार और कोर वोटर माना जाता है, नोटेबंदी की मार से परेशान है. दोनों ही वर्गों में सरकार के प्रति काफी नाराजगी देखी जा रही है. अब 1 जुलाई से जीएसटी लागू होनेवाला है. छोटे और मध्यम वर्ग के व्यापारी इससे आशंकित तो हैं ही, उनमें बेचैनी भी है. छोटे-मझोले व्यापारियों को लग रहा है कि भाजपा उनके एकतरफा समर्थन का बेजा इस्तेमाल कर रही है.
सशक्त विपक्ष के अभाव में हो सकता है कि भाजपा 2019 के चुनाव में 2014 का प्रदर्शन दोहरा दे, लेकिन भाजपा रिस्क लेने के मूड में नहीं है. सामाजिक समीकरण का लाभ भाजपा यूपी विधानसभा चुनाव में ले चुकी है. इसलिए डाॅ कोविंद को आगे कर अपने वोट बैंक के आधार को और मजबूत करना चाहती है. इसलिए विकास के मुद्दे पर होनेवाली लोगों की नाराजगी से बचने के लिए सामाजिक समीकरण तैयार करने में जुट गयी है.
सभी जानते हैं कि आजादी के बाद यदि कांग्रेस ने पांच दशक से अधिक समय तक निष्कंटक देश पर राज किया, तो इसका श्रेय उसके दलित वोट बैंक को ही जाता है. 1990 के बाद मायावती, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव जैसे क्षेत्रीय छत्रपों ने कांग्रेस के दलित जनाधार में सेंध लगायी और कांग्रेस धीरे-धीरे पहले कुछ राज्यों और फिर पूरे देश में कमजोर हो गयी.
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जनसंघ के जमाने में भाजपा की छवि शहरी, ब्राह्मण और बनिया समर्थित पार्टी की रही थी. लेकिन, राम मंदिर आंदोलन के समय भाजपा का फैलाव देश के गांवों और पिछड़ी जातियों में हुआ. कोविंद को सामने करना भाजपा का जनाधार बढ़ाने की बड़ी कोशिश है.
भाजपा का यह दलित कार्ड मायावती, लालू जैसे दलित ब्रांड की राजनीति करनेवाले नेताओं को बैकफुट पर धकेल सकता है, जो भाजपा को सवर्ण और बनिया समुदाय की पार्टी बताते हैं.
कुछ महीने पहले गुजरात में, गुना में और हाल में सहारनपुर में दलित उत्पीड़न की घटनाएं हुईं. भीम सेना का उभार भी शुरू हुआ है, जिससे भाजपा बैकफुट पर नजर आ रही थी. डाॅ कोविंद को आगे लाने से दलितों के बहुत बड़े समूह को भाजपा यह संदेश देने में सफल हो सकती है कि वह सिर्फ दलितों के उत्थान की बात नहीं करती. उसे महत्व भी देती है. दलितों को संगठन से जोड़ने की भाजपा लगातार कोशिश करती रही है.
मिशन 2019 : उत्तर प्रदेश में आसान नहीं होगा 2014 का इतिहास दोहराना
केआर नारायणन के बाद डाॅ रामनाथ कोविंद दूसरे दलित राष्ट्रपति होंगे. लेकिन, उत्तर भारत और उत्तर प्रदेश से पहले दलित राष्ट्रपति बनेंगे. 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए सबसे महत्वपूर्ण राज्य होगा. 2014 के लोकसभा चुनावों में 73 सीट जीतने का इतिहास दोहराना आसान नहीं होगा. यह भी खतरा है कि 2015 में जैसा गंठजोड़ नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने किया था, वैसा ही गंठबंधन यूपी में अखिलेश यादव (मुलायम नहीं) और मायावती न कर लें. ऐसा हो गया, तो लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं.
दलित समाज में जायेगा सकारात्मक संदेश, लंबे अरसे तक मिलेगा भाजपा को लाभ
संघ के रणनीतिकार भली-भांति जानते हैं कि अगर देश में हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाना है, अपनी जड़ों को और मजबूत करना है, तो समाज में हासिये पर चले गये लोगों को अपने साथ जोड़ना ही होगा. धर्मांतरण को लेकर भी दलित समाज काफी संवेदनशील रहा है. देश में पहली बार संघ का स्वयंसेवक राष्ट्रपति बन सकता है और वह भी दलित. इससे बेहतर कॉम्बिनेशन संघ के लिए कुछ हो ही नहीं सकता. सॉफ्ट लाइनर पढ़े-लिखे डाॅ कोविंद संघ के एजेंडे के लिए बिलकुल मुफीद शख्सीयत हैं. भाजपा को उम्मीद है कि रामनाथ कोविंद के माध्यम से वह पूरे भारत में दलितों को सकारात्मक सामाजिक संदेश देने में सफल रहेगी, जिसका राजनीतिक लाभ उसे वर्षों तक मिलता रहेगा.