-कौशलेंद्र रमण-
रमेशजी किसी भी बात के नकारात्मक पहलू पर सबसे पहले सोचते हैं. उनके मित्र बताते हैं कि यह आदत उनमें बचपन से हैं. उनके बचपन के एक मित्र बताते हैं कि मैट्रिक पास करने के बाद हमलोगों ने तैराकी सीखने की योजना बनायी. घर के नजदीक स्विमिंग पूल था. वहां अच्छा कोच भी था. लेकिन, रमेशजी ने डूबने के डर से तैराकी नहीं सीखी. नौकरी लगने के बाद उन्हें मोटरसाइकिल सीखने की सलाह दी गयी. उन्होंने कहा – सीखने के दौरान गिर गया तो? रास्ते में एक्सिडेंट हो गया तो? उन्होंने इस तरह के इतने नकारात्मक सवाल किये कि दोस्तों ने उनसे कुछ कहना ही छोड़ दिया.
रमेशजी की नकारात्मक सोचने की आदत की वजह से वह हमेशा डरे रहते. दफ्तर में कोई भी व्यक्ति बॉस के कमरे में जाता है तो रमेशजी को लगता कि वह उनकी शिकायत करने गया था. अगर किसी सहयोगी को उन्होंने कोई काम समझाया और उसके तुरंत बाद वह बॉस के कमरे में चला जाता है तो रमेशजी का बीपी बढ़ने लगता है. उन्हें लगता है कि आज नौकरी चली गयी. इस तरह के डर का प्रभाव उनके काम पर भी पड़ने लगा है. नौकरी करते हुए दस साल हो गये, लेकिन आज तक वह किसी भी काम को आत्मविश्वास के साथ नहीं कर पाते हैं. हमेशा दस लोगों से पूछते हैं.
जिम्मेदारी लेने से भागते हैं. इस वजह से उनका केआरए लगातार खराब होता जा रहा है. एक दिन कंपनी के एचआर हेड ने उनसे पूछा – आप इतने डर में क्यों जीते हैं. नये लोग आपसे ज्यादा आत्मविश्वास से काम करते है. पुराने होकर भी आप खुद किसी काम की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं. रमेशजी ने कहा – मुझे डर लगता है कि कही गलती हो गयी तो क्या होगा.
एचआर प्रमुख ने कहा – अगर गलती होगी तो उसे दोबारा करना होगा, लेकिन आपका आत्मविश्वास तो बढ़ेगा. एक बात याद रखिए – डर आपको कैदी बनाता है और आशा आत्मविश्वास भरता है. सीखने के लिए प्रेरित करता है. यह आपको तय करना है कि डर कर जीना है या आत्मविश्वास के साथ.