बल्देव भाई शर्मा
संत विनोबा भावे के बचपन का एक प्रसंग है कि उनके घर में कटहल का एक पेड़ था. जब उस पेड़ पर पहली बार कटहल लगा, तो घर में खुशी छा गयी. सब इंतजार में थे कि जब कटहल बड़ा हो जायेगा, तो उसे तोड़कर मां सब्जी बनायेगी. घर में पेड़ पर लगे कटहल की सब्जी को खाने का जो सुख है, वह बाजार से खरीद कर लाये कटहल में कहां. कटहल बड़ा हुआ तो तोड़ा गया, लेकिन यह क्या मां ने तो उसे काट कर चार टुकड़े कर दिये और विनोबा को कहा कि एक पड़ोस की काकी के घर देकर आ, एक घर में काम पर आने वाली बाई के लिए, एक मौसी के लिए और बाकी बचा एक टुकड़ा अपने घर में सब्जी बनाने के लिए.
सभी भाई-बहन परेशान कि हमारे घर का कटहल और मां बाहर बांट रही है. हमें तो थोड़ा ही खाने को मिलेगा, यह भी कोई बात हुई. हम तो इतंजार में थे कि कटहल बड़ा होगा, तो खूब सब्जी खायेंगे, खूब मजा आयेगा. लेकिन मां ने तो सारे अरमानों पर पानी फेर दिया. आखिरकार विन्या (मां विनोबा को इसी नाम से बुलाती थी) ने मां से पूछ ही लिया- मां हमारे घर का कटहल तूने दूसरों को क्यों बांट दिया. मां बोली, देख, कटहल का पेड़ तो हमारे घर में है, इस पर और भी कटहल आयेंगे तब हम खूब खायेंगे. लेकिन जब पहला कटहल लगा है हमारे पेड़ पर, तो इस खुशी को हम अपने आस-पड़ोस में दूसरों के साथ बांटेंगे और वे सब भी खुश होंगे. इस तरह खुशी या सुख बांटने से बढ़ती है.
विनायक नरहरि भावे जिन्हें महात्मा गांधी ने विनोबा नाम दिया, को मां से मिला यह पाठ उनके जीवन का मंत्र बन गया. शायद इसी मंत्र में से विनोबा ने सर्वोदय यानी सबकी उन्नति का मार्ग तलाशा. उन्होंने अपना जीवन सबके हित के लिए समर्पित कर दिया. यह आश्चर्यजनक ही है कि देशभर में घूम-घूम कर उन्होंने बड़े-बड़े जमींदारों व भूस्वामियों से भूमिहीनों के लिए करीब दो करोड़ एकड़ जमीन दान में ले ली. विनोबा का भूदान आंदोलन दुनिया की एक अनोखी घटना है, यह अलग बात है कि जमीन तो खूब मिली, पर उसका व्यवस्थापन ठीक नहीं हो पाया.
विनोबा जिन्हें गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना जाता है, उन्हीं गांधी ने ट्रस्टीशिप का सिद्धांत दिया. विशेषकर सत्ता का संचालन करने वाले राजनेताओं के लिए खुद सत्ता का सुखोपभोग करने के लिए सरकार चलाने की जिम्मेवारी उन्हें नहीं दी जाती, बल्कि जनता के हित में उसे सब तरह से खुशहाल बनाने के लिए सत्ता का संचालन किया जाना ही न्यासी भाव यानी ट्रस्टीशिप है. निजी जिंदगी में भी समाज के प्रति यह कर्तव्य बोध लेकर जीना ही मनुष्यता है कि मैं केवल अपने सुख के लिए नहीं जीऊंगा, बल्कि दूसरों को खुशी देना भी मेरे जीवन का लक्ष्य है.
हमारे शास्त्रों में उल्लेख आता है ‘भद्रं पश्यंति ऋषय:’ यानी जो लोक की भलाई चाहे और वैसे ही काम करे, निस्वार्थ भाव से जीये, वही ऋषि है. भारत इसी ऋषि परंपरा का देश है, इसीलिए भारत का विचार और जीवन दर्शन मानवता को सुखी बनाने का और अपने सुख को दूसरों में बांट कर जीने का रहा है. प्रलय के बाद जब धरती पर प्रथम मनुष्य के रूप में मनु महाराज का अवतरण होता है, तो मनु को जीवन का उद्देश्य बताते हुए कहा गया, जिसे जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ में लिखा है – औरों को हंसते देखो मनु/हंसो और सुख पाओ/ अपने सुख को विस्तृत कर लो/ जग को सुखी बनाओ. ऋग्वेद में इसी भाव-भावना को ‘आत्मनो मोक्षार्थ जगद्हिताय च’ के रूप में व्यक्त किया गया है. यानी अपने कल्याण के साथ-साथ संसार के कल्याण का भी ध्यान रखो. समाज के हित को चोट पहुंचाकर अपने फायदे भर की सोचना मानव धर्म नहीं है. इसीलिए यह लोकोक्ति बनी ‘जो देता है सो देवता, जो रखता है सो राक्षस.’
पाश्चात्य विचार व्यक्ति की निजता को महत्व देते हुए कहता है ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ लेकिन भारत ने ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का संदेश देकर मानवता का पोषक किया है. स्वामी विवेकानंद ने ‘नर सेवा नारायण सेवा’ का मार्ग दिखाया और रामकृष्ण मिशन की स्थापना करते समय ऋग्वेद के मंत्र ‘आत्मनो मोक्षार्थ जगद्हिताय च’ को मिशन का ध्येय वाक्य बना कर उसी भाव को व्यक्त किया. एक सुभाषित में साधु और दुष्ट की परिभाषा देते हुए कहा गया है- विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति परेषां परपीड़नाय/विपरीतमेतन खल साधु वृत्ति ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय. यानी दुष्ट ज्ञान, धन और बल का दुरुपयोग विवाद के लिए, भोग विलास और दूसरों को सताने के लिए करता है जबकि साधु या सज्जन का स्वभाव इसके विपरीत ज्ञान का प्रसार, दान करना व दूसरों की रक्षा करना होता है.
जीवन स्वयं में एक विज्ञान है जिसकी व्याख्या भारतीय चिंतन को परिभाषित करने वाले ग्रंथों वेद व उपनिषद में की गयी है. अच्छे या बुरे परिणामों का पूरा एक तर्क सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है जो बड़े सहज भाव से लोकोक्तियाें में भी परिलाक्षित होता है. ‘अपने लिए करो सो अच्छा, दूसरों के लिए करो सो सच्चा’ उक्ति में इस जीवन दर्शन को कितनी सरलता से समझा दिया गया है. पांच जून यानी दो दिन बाद ‘पर्यावरण दिवस’ है जब सारी दुनिया पृथ्वी पर छाये जलवायु संकट से निबटने के उपायों पर एक बार फिर रस्म अदायगी करेगी, लेकिन यह खतरा कम होने की बजाय और बढ़ता जायेगा हर साल की तरह. केवल चिंता जताने या सोच-विचार करने से कुछ नहीं बदलता न सुधरता है.
जीवन के आचरण में प्रतिदिन स्वच्छता, जल संरक्षण या प्रकृति की खूबसूरती को बचाये रखने के लिए हम कितना सजग रहते हैं, इसका पल-पल ध्यान रखना जरूरी है. अपनी विलासिता के लिए विकसित देश या धनी लोग सुख-सुविधाओं के नाम पर पर्यावरण को प्रदूषित करते रहेंगे और दूसरों को उपदेश देंगे कि वे पर्यावरण को प्रदूषित करते रहेंगे और दूसरों को उपदेश देंगे कि वे पर्यावरण को बचायें. पश्चिम के भौतिक चिंतन का पहला पाठ ही यह है कि धरती पर या उसके गर्भ में जो कुछ भी है वह मानव के उपभोग के लिए है, इसलिए उसे खोज-खोज कर खूब ऐश करो. इसलिए विकास का अर्थ हो गया प्रकृति का विनाश और अब रो रहे हैं पर्यावरण संरक्षण के लिए? इस विरोधाभास के चलते न धरती बचेगी, न प्रकृति और एक दिन मानव प्रजाति भी नहीं. यह चिंता प्रख्यात वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग ने भी व्यक्त की है.
भारत के चिंतन ने धरती और प्रकृति को मां माना है और कहा गया कि इनसे अपनी जरूरत के मुताबिक ही लो क्योंकि ये हमारी आवश्यकताएं तो पूरी कर सकती हैं, इच्छाएं नहीं. इसे भूल हम अपनी इच्छाएं बढ़ाते चले गये और उनके अनुरूप पृथ्वी व प्रकृति का शोषण व दोहन करते जा रहे हैं. मां के अंग नोच कर कोई संतान कैसे सुखी हो सकती है. हम गौरा देवी को याद तो करते हैं, लेकिन कितने हैं जो उनकी तरह पेड़ों को बचाने के लिए जीवन का बलिदान देने तक को तत्पर हैं. भारत के अध्यात्म का ऐसा त्यागपूर्ण जीवन जीने का संदेश ही सबके बीच समन्वय का मंत्र है.