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हिंदी पत्रकारिता दिवस : सोशल मीडिया ने पूरे मी़डिया जगत पर असर डाला है

हिंदी पत्रकारिता में गुणवत्ता की कमी राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार जब मैं एक हिंदी अखबार के लिए किसी विषय पर लेख लिखता हूं, तो उस पर जवाब के रूप में जितनी प्रतिक्रिया आती है, इसके मुकाबले ठीक उसी विषय पर जब एक अंगरेजी अखबार में लिखता हूं, तो उतनी प्रतिक्रिया नहीं आती. इसका मतलब है […]

हिंदी पत्रकारिता में गुणवत्ता की कमी
राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
जब मैं एक हिंदी अखबार के लिए किसी विषय पर लेख लिखता हूं, तो उस पर जवाब के रूप में जितनी प्रतिक्रिया आती है, इसके मुकाबले ठीक उसी विषय पर जब एक अंगरेजी अखबार में लिखता हूं, तो उतनी प्रतिक्रिया नहीं आती. इसका मतलब है कि हिंदी पत्रकारिता का प्रभाव काफी बढ़ा है.
चाहे हिंदी के अखबार हों, या न्यूज चैनल हों, हिंदी पत्रकारिता की पहुंच दूर-दूर तक बढ़ रही है. अगर पिछले एक दशक की हिंदी पत्रकारिता को देखें, तो आज हिंदी पत्रकारिता को ज्यादा तवज्जो मिल रही है. हालांकि, बीते दशक में भी हिंदी पत्रकारिता को खूब अहमियत मिली है, लेकिन मैं यह नहीं कहूंगा कि इसकी गुणवत्ता भी बढ़ी है. खासकर हिंदी न्यूज चैनलों पर खबरों के मुकाबले सनसनी ने ज्यादा जगह ले ली है. चैनलों की बहसों में चीखना-चिल्लाना ज्यादा बढ़ गया है, जिसके चलते खबरें कहीं दब के रह जाती हैं. फिर भी, मौजूदा हिंदी पत्रकारिता बीते दस साल के मुकाबले काफी हद तक अग्रसर है और अपना विस्तार कर रही है.
बीते कुछ सालों से हमारे नेता और मंत्री भी हिंदी में ही अपनी बातें कहने लगे हैं. इस मामले में अंगरेजी का जमाना अब धीरे-धीरे कम होता जा रहा है, और यह हिंदी पत्रकारिता के लिए अच्छी बात है.
एक बात यहां बहुत महत्वपूर्ण है कि हिंदी पत्रकारिता का विस्तार तो हो रहा है, लेकिन उसकी गुणवत्ता अब भी सुधरनी बाकी है. हालांकि, हिंदी अखबारों की गुणवत्ता में सुधार कुछ हद तक देखने को मिला है, लेकिन न्यूज चैनलों में सुधार नहीं हुआ है. इस मामले में हिंदी अखबारों के मुकाबले न्यूज चैनल थोड़े कमजोर पड़ गये हैं. इसकी वजह भी है.
वह यह कि चैनल ज्यादातर पैकेज या स्टूडियो की बहस में व्यस्त हो गये हैं, जिससे महत्वपूर्ण खबरें छूटती जा रही हैं. दरअसल, चैनलों का ज्यादा ध्यान ब्रेकिंग न्यूज और सनसनी से भरी खबरों पर ही रहने लगा है. वहीं हिंदी अखबारों ने हाल के वर्षों में राजनीति के साथ-साथ, अंतरराष्ट्रीय खबरें, बिजनेस की खबरें, खेल और कुछ अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर खबरें करनी शुरू कर दी हैं, जो हिंदी पत्रकारिता के लिए बहुत अच्छी बात है और साथ ही उसके पाठकों के लिए भी. लेकिन, न्यूज चैनलों पर अब भी इन खबरों का अभाव दिखता है, क्योंकि वहां ब्रेकिंग और बहस हावी हैं.
एक दशक पहले तक हिंदी अखबार हों या हिंदी न्यूज चैनल, या अन्य सूचना के माध्यम भी, सब ग्रामीण क्षेत्र और जमीन से ज्यादा जुड़े हुए होते थे और उन पर दबाव भी कुछ ज्यादा रहता था.
लेकिन, मौजूदा परिस्थिति में यह दबाव कुछ कम हुआ है, क्योंकि क्षेत्रीय खबरों की जगह चकाचौंध और सनसनी ने ले ली है. हिंदी अखबारों के संपादकीय पेज हों या ऑप-एड पेज हों, उन पर अच्छे-अच्छे और प्रासंगिक लेख छपते हैं. अच्छे और मौलिक विचारों से भरे उन लेखों में न सिर्फ अच्छी जानकारियां मिलती हैं, बल्कि पाठकों के लिए वे लेख एक प्रकार से वैचारिक खुराक भी होते हैं. दूसरी तरफ, न्यूज चैनलों में इस चीज का अभाव हमेशा बना रहता है.
हिंदी पत्रकारिता में एक तो पहले ही गुणवत्ता की कमी का संकट है, वहीं अब सोशल मीडिया ने पूरे मीडिया जगत पर एक नये तरह का असर डाला है. सनसनी बनाना, तथ्यहीन बातों को फैलाना, गंभीर मुद्दों पर भी आलोचना करना, किसी छोटे से बयान को बड़ी खबर की ओर मोड़ देना आदि ये सब सोशल मीडिया कर रहा है. पत्रकारिता के लिए यह सब एक चुनौती की तरह है, क्योंकि सोशल मीडिया में ज्यादातर मामलों में जमीनी हकीकत गायब होती है.
इस चुनौती का मुकाबला इस तरह किया जा सकता है कि जमीन से जुड़ी जो पत्रकारिता है, एक बार फिर उसके वर्चस्व को लोगों के सामने रखना होगा. यह सबसे बड़ी चुनौती है. अखबार या चैनल केवल राजनीतिक सनसनी की दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो वे अपने पाठकों और दर्शकों के साथ अन्याय कर रहे हैं. क्योंकि अगर हिंदी पत्रकारिता जमीन से नहीं जुड़ी रहेगी, तो फिर कौन रहेगा?

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