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दलित राजनीति में नयी सुगबुगाहट

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com दलित राजनीति के मोर्चे पर इस समय सबसे ज्यादा हलचल और अगर-मगर है. कहीं भारतीय राजनीति का यह अध्याय नये सिरे से लिखा जानेवाला तो नहीं? दलितों के एकजुट समर्थन के सहारे चार बार यूपी की सत्ता हासिल करनेवाली बहुजन समाज पार्टी बिखराव के दौर से गुजर रही है. कांग्रेस […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
दलित राजनीति के मोर्चे पर इस समय सबसे ज्यादा हलचल और अगर-मगर है. कहीं भारतीय राजनीति का यह अध्याय नये सिरे से लिखा जानेवाला तो नहीं? दलितों के एकजुट समर्थन के सहारे चार बार यूपी की सत्ता हासिल करनेवाली बहुजन समाज पार्टी बिखराव के दौर से गुजर रही है.
कांग्रेस की अखिल भारतीयता का अपहरण करने में लगभग कामयाब हो चुकी भाजपा दलितों का राष्ट्रव्यापी समर्थन पाने की जीतोड़ कोशिश में है और दलित राजनीतिक नेतृत्व में बन रहे निर्वात में ‘भीम सेना’ की हुंकार गूंज रही है. राजनीतिक प्रेक्षकों, पार्टियों और नेताओं के कान खड़े हैं. बसपा और भाजपा नेतृत्व के माथे पर स्वाभाविक ही चिंता की रेखाएं हैं.
दो साल पहले नौकरी की तलाश में भटकते दो युवकों, विनय रत्न और चंद्रशेखर ने तय किया कि उन्हें अपने दलित समाज की उन्नति के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने चाहिए. शिक्षा ही सबसे अच्छा रास्ता सूझा. सो, सहारनपुर के फतेहपुर भादों गांव में एक पाठशाला खोली गयी, दलित बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा के लिए. आज पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और शामली जिलों में ऐसी 350 पाठशालाएं हैं. अभियान सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं रहा. कुएं से पानी पी लेने जैसे मुद्दों पर दलित उत्पीड़न, महिलाओं पर अत्याचार और भेदभाव के कई मुद्दे भी उठने लगे. इस तरह भीम सेना बनी.
पाठशालाओं के साथ सदस्यता बढ़ती गयी. उत्पीड़न के खिलाफ आवाज दबायी जाने लगी, तो वह और जोर से उठने लगी. पिछले दिनों शब्बीरपुर में सवर्णों के हाथों एक दलित युवक की मौत के विरोध को प्रशासन ने दबाया, तो वह भड़क उठी. उसके नेताओं पर नक्सली होने तक के आरोप लगे. भीम सेना के एक आह्वान पर जंतर-मंतर पर बड़े और आक्रामक प्रदर्शन ने देश का ध्यान खींचा है.
भीम सेना के प्रदर्शन की अनुगूंज कोई तीन दशक पहले कांशीराम के ऐसे ही प्रदर्शनों की याद दिलाती है, जिनसे अंतत: बहुजन समाज पार्टी का जन्म हुआ था. इस प्रदर्शन में सवर्ण-विरोध और भाजपा-संघ विरोधी स्वर भी बहुत मुखर हुए. भीम सेना का कोई राजनीतिक कार्यक्रम घोषित नहीं हुआ है, लेकिन उसमें दलितों को आकर्षित करनेवाले राजनीतिक चुंबक के संकेत देखे जा सकते हैं. गुजरात में पटेलों और महाराष्ट्र में मराठों के हालिया प्रदर्शनों के तेवर भी इसमें देखे गये.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में सफाये व यूपी विधानसभा चुनाव में बड़ी पराजय के बाद मायावती बसपा को बचाये रखने का रास्ता खोज ही रही थीं कि भीम सेना ने उनकी नींद उड़ा दी है.
दलित नेतृत्व कहीं और उभरना उन्हें क्यों मंजूर होगा. सहारनपुर में दलित अत्याचार की बड़ी वारदात के बावजूद शांत बैठी मायावती मंगलवार को भागी-भागी सहारनपुर गयीं, तो सिर्फ इसलिए कि बीते रविवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर भीम सेना के आह्वान पर हजारों दलितों की भीड़ जमा हो गयी थी. चिंता की लकीरें भाजपा के नेताओं के माथे पर भी देखी जा रही हैं. दोनों पार्टियों की परेशानी के बड़े कारण हैं और उनका तात्कालिक महत्व भी है.
बाबा आंबेडकर की वैचारिकी और क्षेत्रीय दलित नेताओं के आंदोलन ने स्वतंत्रता-आंदोलन के समय से महाराष्ट्र में चाहे जितनी लहरें उठायीं हों, सत्ता की राजनीति से दलित सशक्तीकरण का प्रयोग कांशीराम ने ही सफल करके दिखाया. ‘बामसेफ’ और ‘डीएस-4’ के आंदोलनों से होते हुए 1984 में बहुजन समाज पार्टी बना कर कांशीराम ने संपूर्ण दलित, बल्कि ‘बहुजन समाज’ को राजनीतिक रूप से गोलबंद किया.
वे दलित-वंचित जातियों को यह विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि उनकी दयनीय हालत के लिए सवर्ण मानसिकता वाले राजनीतिक दल जिम्मेवार हैं और इसे बदलने के लिए बसपा को सत्ता तक पहुंचाना जरूरी है. कांशीराम की आवाज पंजाब और महाराष्ट्र जैसे दलित बहुल राज्यों में क्यों कर अनसुनी रही, यह विश्लेषण की मांग करता है, लेकिन यूपी के दलितों ने बसपा को सिर-आंखों पर बैठाया.
दो-ढाई दशक से यूपी और राष्ट्रीय स्तर पर मायावती की राजनीतिक चमक-धमक दलित-समर्पण की ही देन रही, मगर 2014 और 2017 के चुनावों में वे दलित समाज की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं. उनकी अपनी उपजाति के जाटवों को छोड़ दें, तो बाकी दलित जातियां बसपा से छिटकी हुई हैं. बल्कि, भीम सेना के उभार में नये जाटव नेतृत्व के उभार के संकेत मिल रहे हैं.
परिवर्तन की लहर ने 2014 में दलित वोटरों को नरेंद्र मोदी की तरफ झुकाया, तो 2017 के विधानसभा चुनाव में वे मायावती से मोहभंग के कारण भाजपा की विजय का कारण बने. उनका कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा भी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का दलित-आधार बनाने और उसे मजबूत करने की मांग करता है. कभी कांग्रेस की अखिल भारतीयता के पीछे दलित-मुसलिम जनाधार मुख्य होता था. इसी जनाधार के खोते जाने से कांग्रेस हाशिये पर जाती रही और आज भाजपा को अपनी अखिल भारतीयता पर मोहर लगाने के लिए ही दलित समर्थन की सबसे ज्यादा जरूरत है. इसलिए भीम सेना के उभार पर भाजपा चौकन्नी है.
योगी सरकार बनने के दो महीने में ही पश्चिम यूपी के दलित उत्पीड़न कांड और उससे उपजा भीम सेना का आक्रोश भाजपा के लिए बड़ा सिर दर्द बन सकता है. उसके ध्यान में निश्चय ही है कि तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में दलित वोट कितने महत्वपूर्ण हैं. एक मात्र बड़ा राज्य जहां अभी कांग्रेस सत्ता में है और जिसे भाजपा उससे छीन लेना चाहती है, उस कर्नाटक में दलित अभी कांग्रेस के साथ हैं. यह समीकरण वह तोड़ना चाहती है. यानी भाजपा के एजेंडे में दलित अभी सबसे ऊपर हैं.
भाजपा की मुश्किल यह भी है कि उसके और उससे जुड़े संगठनों के मूल चरित्र में बड़ा बदलाव लाये बिना उसका दलित-हितैषी चेहरा विश्वसनीय नहीं बन सकता. दलित-प्रेम के तमाम नारों, अभियानों और कार्यक्रमों के बावजूद आये दिन होनेवाले दलित-उत्पीड़नों से उसका दामन दागी बना रहता है.
बहरहाल, दलित समाज इस समय राजनीतिक नेतृत्वहीनता की स्थिति में है. भीम सेना के उभार में वे एक नयी उम्मीद देख सकते हैं. ऐसा हुआ तो बसपा और हाशिये पर जायेगी एवं भाजपा की उम्मीदों को झटका लग सकता है.

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