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निराधार का आधार

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार जब से सुना है कि गाय का भी ‘आधार’ बनेगा, तब से खयाल आ रहा है कि गाय खुद किस तरह काफी समय तक हमारे जीवन का आधार बनी रही. जिस कुल या ‘गोत्र’ में हम जन्म लेते हैं, वह मूलत: गायों के रहने के स्थान को कहते थे. मनुष्यों का […]

सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
जब से सुना है कि गाय का भी ‘आधार’ बनेगा, तब से खयाल आ रहा है कि गाय खुद किस तरह काफी समय तक हमारे जीवन का आधार बनी रही. जिस कुल या ‘गोत्र’ में हम जन्म लेते हैं, वह मूलत: गायों के रहने के स्थान को कहते थे.
मनुष्यों का ही नहीं, गायों का भी कुल होता था, जिसके बारे में रसखान की कामना थी- मानुस हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन! गायों का पालक ‘गोपाल’ हमारा भगवान था, जिसके लिए मीरा ने कहा था कि ‘मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई.’ ‘गोधन’ ही आम आदमी का संतोष-धन के बाद सबसे बड़ा धन था. ‘गव्य’ गाय से मिलने वाले पदार्थों को कहते थे. दही, दूध, घी, गोबर और गोमूत्र- इन पंचगव्यों के बाद अब एक छठा गव्य ‘गोलाइन’ भी बाजार में आ गया है, जिसे खरीदभर लेने से ‘गायों को कत्लखानों में जाने से बचाया जा सकता है’.
‘गोस्वामी’ गायों के स्वामी को कहते थे और आगे चलकर उसी को ईश्वर कहना भी स्वाभाविक ही ठहरा. यही गोस्वामी बिगड़कर ‘गोसाईं’ या ‘गुसैंया’ हो गया, तो सूरदास ने साफ कर दिया कि- खेलत मैं को काको गुसैंया? विवाह-मुहूर्तों में क्रूर ग्रह, युति, वेध, मृत्युवाण आदि दोषों की शुद्धि होने पर भी विवाह का शुद्ध लग्न न निकलने पर जिस गोधूलि-लग्न में विवाह-संस्कार संपन्न करने की आज्ञा शास्त्रों ने दी है, वह ‘गोधूलि’ भी मूलत: शाम को गायों के जंगलों से लौटने पर उनके खुरों से उड़नेवाली मिट्टी होती थी. ‘गोष्ठी’ गायों के रहने की जगह थी, ‘गवेषणा’ खोई हुई गायों की खोज को कहते थे और ‘गोचर’ उस मैदान को, जहां गायें चरती थीं. भवसागर पार उतरने के लिए गाय की पूंछ ही एकमात्र उपकरण होने के कारण मरने के बाद ‘गोदान’ जरूरी बताया गया, जिसके बारे में प्रेमचंद का उपन्यास ‘गोदान’ पढ़कर विस्तार से जाना जा सकता है.
और तो और, पहले अतिथि को ‘गोघ्न’ की संज्ञा से भी नवाजा जाता था. यह शब्द बताता है कि प्राचीन काल में लोग गायों का भक्षण भी करते थे और विशेषत: अतिथियों के आने पर उनका स्वागत पान-पराग से नहीं, गो-मांस से किया जाता था. बाद में गाय की उपयोगिता देख उसका वध बंद किया गया और तब उसका नाम ‘अघ्न्या’ पड़ा, लेकिन यह नाम भी यह बताने के लिए काफी है कि गाय कभी ‘घ्न्या’ भी थी और हिंदुओं के द्वारा ही.
गायों का ‘आधार’ बनने के बाद भले ही उसका भूख मिटाने के लिए कूड़े के ढेरों में मुंह मारना न रुके, सार्वजनिक शौचालयों में थूथन घुसा कर मल खाने को भी वह भले ही विवश बनी रहे, पर निराधार बिलकुल नहीं रहेगी, क्योंकि उसका आधार-कार्ड बन जायेगा.

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