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प्रो मनोज झा
समाज कार्य विभाग, डीयू
एक ऐसे दौर में जब कोई भी असहमति और हर प्रकार के प्रतिरोध पर पहरा हो और पहरेदार लगातार सक्रिय हो, तो असहमति की जुबान को एक नहीं, कई वकीलों की आवश्यकता है. मैं अपने आप को वकील मानते हुए आपसे कुछ अर्ज करना चाहता हूं. हालांकि, मैं यह जानता हूं कि तारीख में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है और ना ही आखिरी बार है. अगर आज हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं, तो इसमें सहमति के साथ असहमतियों ने भी योगदान किया है, और इस यात्रा में समवेत स्वर के साथ प्रतिरोध के स्वर ने भी योगदान दिया है.
जिंदा लोग अगर समाज और सरकार की तारीफ में हमेशा रीतिकालीन व्यंजनाओं और अलंकारों का प्रयोग करेंगे, तो सरकार और वह समाज बिलकुल ठहर जायेगा, क्योंकि सरकार और समाज दोनों को चुनौतियों की जरूरत होती है और असहमति और प्रतिरोध चुनौती के माध्यम से दोनों के बेहतर होने का अवसर देता है. अगर गांधी और नेहरू भी कांग्रेस में उभर रहे असंतोष के प्रति इतना ही असहिष्णु होते, तो क्या स्वाधीनता संग्राम और कांग्रेस ने ये मंजिलें भी हासिल की होती?
अगर समकालीन हालात में कुछ ऐसे लक्षण हैं, जिनके लिए समाज और ध्यान आकृष्ट करना फौरी तौर पर जरूरी है, तो मौन रहना क्या उन लक्षणों के पक्ष में खड़ा होना नहीं है? अगर सत्ता और संसाधन में हिस्सेदारी का प्रश्न महत्वपूर्ण है, तो क्या हम खामोशी को अपनी जुबान बना लें?
अगर किसानों की आत्महत्या और लैंगिक असमानता हमारे समाज को लील रही है, तो हम कैसे कह दें कि हम नया भारत बना चुके हैं. अगर कुछ इलाकों में लगातार मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है और सरकार खामोश है, तो क्या सब सत्ता प्रतिष्ठान की इच्छानुसार के मुहावरे बुनते रहें? उम्मीद यह की जाती है कि हम दृष्टिहीनों की बस्ती में सूरमे कि दुकान सजा कर बैठ जायें. बकौल दुष्यंत क्या हम मान लें कि ‘तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की’.
आज जिन्हें हर किस्म की असहमति से असहमति है, उन्हें स्वाधीनता संग्राम के महानायकों के पत्राचार को एक बार जरूर पढ़ना चाहिए, चाहे वह बापू और नेहरू के बीच का हो या फिर नेहरू और पटेल के बीच का.
उन्हें तब संभवतः यकीन होगा कि मुल्क या समाज और उनके बीच का वैचारिक चिंतन और विमर्श एकांगी और एकरंगा नहीं हो सकता. अगर समाज और मुल्क में घोर असमानता है, तो क्या स्वस्थ और जिंदा चिंतन अपनी नजरें फेर यह कहने लगे कि मौसम है आशिकाना. या अगर जातिगत विषमता और उत्पीड़न हमारे जेहन में कूट-कूट कर भरा है, तो क्या वंदे मातरम् के नकली शोर में इस दौर का विमर्श रोहित वेमुला और सभ्यता के नाम उसके खुदकुशी के खत को बिसरा दे और करतल ध्वनि में बोले ऑल इज वेल. अगर मजहबी जुनून आम अवाम के सरोकारों और उसकी प्राथमिकताओं को हाशिये पर धकेल रहा हो, तो आज के दौर में इकबाल ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ बिना डिस्क्लेमर के नहीं कह सकते. क्या आज की एम्मा गोल्डमेन उसी आजादी के साथ यह कह सकती है कि ‘अगर यह में मेरी क्रांति नहीं है, तो इस पर मैं नृत्य नहीं कर सकती.’ विविधता और बहुलता समाज को समृद्ध करती है, लेकिन न जाने क्यूं हम इसे बिलकुल बिसरा कर कर उलटे पांव की यात्रा पर निकल चुके हैं. मसलन, अगर असहमति और मतभिन्नता के प्रति यही विद्वेष और प्रतिरोध रहा होता, तो हमारे ‘कबीर’ का क्या हुआ होता.
फर्ज कीजिये आज के माहौल में अगर एनिहिलेशन ऑफ कास्ट प्रकाशित की जाती, तो किस प्रकार की प्रतिक्रिया होती. प्राइम टाइम में इस पर किस दृष्टिकोण से सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा प्रायोजित बहसे आयोजित की जाती.
क्या बाबा साहेब का भी डीएनए विश्लेषण होता? तुलसी राम मुर्दहिया में लिख गये, ‘एक हिंदू अंधविश्वास के अनुसार किसी गांव में दक्षिण दिशा से ही कोई आपदा, बीमारी या महामारी आती है, इसलिए गांवों के दक्षिण में दलितों को बसाया जाता था. अतः मेरे जैसे सभी लोग हमारे गांव में इन महामारियों और आपदाओं का प्रथम शिकार होने के लिए ही दक्षिण की दलित बस्ती में पैदा हुए थे. अगर आज इन पंक्तियों को लोक विमर्श में रोहित वेमुला के खुदकुशी के खुत के संदर्भ में लाया जाये, तो आक्रोश और गुस्से से भरी प्रतिक्रियाओं की भविष्यवाणी आसानी से की जा सकती है.
जब 1947 में विभाजन के साये में मुल्क आजाद हुआ, तो उस आजादी पर सवाल उठानेवाले लोगों, कार्यकर्ताओं और साहित्यकारों पर कोई सवाल नहीं उठा.
बीते दिनों दिल्ली विवि की एक छात्रा ने कहा कि ‘मेरे पिता को युद्ध ने मारा है, पकिस्तान ने नहीं.’ तब कितना हाय-तौबा मचा, बड़े-बड़े लोगों ने उसकी समझ से लेकर उसकी देशभक्ति पर सवाल उठाना शुरू कर दिया. युद्ध और युद्ध के राजनीतिक अर्थशास्त्र पर लोगों को गांधी के विचार के साथ-साथ होवार्ड जिन्न को पढ़ना चाहिए. इससे भी बात न बने, तो गुलेरीजी की कहानी पर आधारित फिल्म ‘उसने कहा था’ में फिल्माये गये तरक्की पसंद शायर और क्रांतिकारी मखदूम मोहीउद्दीन के इन लाइनों पर गौर करें- जानेवाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है.
असंतोष और असहमति के इस अफसाने में गुरुदेव टैगोर को भी लाया जाये. क्या आज का राष्ट्रप्रेम का विमर्श टैगोर के राष्ट्रवाद से संबद्ध विचारों को आत्मसात कर आयेगा. प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात उन्होंने राष्ट्रवाद की तात्कालिक समझ की गंभीर आलोचना की. उनका मानना था कि न सिर्फ यूरोपीय देश, बल्कि हिंदुस्तान में भी राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति आक्रोश से भरे मरदाना तेवर का है.
जाहिर है, गांधी और नेहरू उनके व्यक्त विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते थे, लेकिन उस असहमति को आपराधिक नहीं बनाया गया. टैगोर के माफीनामे की कहीं से भी आवाज नहीं उठी. क्या यह संभव नहीं है कि हम इस मुल्क की कल्पना टैगोर के ख्यालों के अनुरूप साकार करें, जहां मन और विचारों की उड़ान पर कोई पहरा न हो और जहां अपने सिर को डर से झुकाना न पड़े?’

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