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आत्महत्या का सिलसिला

भारत उन देशों में शामिल है जहां छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं सर्वाधिक होती हैं. पर इस सिलसिले को रोकने के लिए हम सरकारी और सामाजिक स्तर पर ठोस प्रयास कर पाने में असफल रहे हैं. इस संदर्भ में आंकड़े भयावह हैं. हमारे देश में 15 से 29 वर्ष की आयु के हर एक लाख […]

भारत उन देशों में शामिल है जहां छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं सर्वाधिक होती हैं. पर इस सिलसिले को रोकने के लिए हम सरकारी और सामाजिक स्तर पर ठोस प्रयास कर पाने में असफल रहे हैं. इस संदर्भ में आंकड़े भयावह हैं. हमारे देश में 15 से 29 वर्ष की आयु के हर एक लाख लोगों में 30 से 40 लोग हर साल मौत को गले लगा लेते हैं. यह आत्महत्याओं के कुल मामलों का करीब एक-तिहाई है. वर्ष 2010 से 2015 के बीच 39,775 छात्रों ने खुद अपनी जान ले ली. वर्ष 2015 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक हर घंटे एक छात्र ने आत्महत्या की. परीक्षाओं में अधिकाधिक अंक लाने और प्रतियोगिता में सफलता पाने का दबाव न सहन कर पाना आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण है.
यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि असफल होने या इसके भय से जान देनेवाले छात्रों की संख्या आत्महत्या करनेवाले छात्रों की संख्या का करीब 30 फीसदी ही है. अनेक आत्महत्याओं का कारण बच्चों पर अभिभावकों द्वारा जबरिया कैरियर या पाठ्यक्रम लाद दिया जाता है. इस संबंध में बच्चे की मर्जी, पसंद या विकल्प को कोई महत्व नहीं दिया जाता है. जीवन में आगे बढ़ने की होड़ और अभिभावकों की अपनी कुंठाएं बच्चों को अवसाद के अंधेरे में धकेल देती हैं. खराब शिक्षा तंत्र भी छात्रों के लिए जानलेवा है. पढ़ने-पढ़ाने और परीक्षा के तौर-तरीके छात्रों में नकारात्मक भावनाएं भर देते हैं.
घर, स्कूल, कॉलेज, कोचिंग सेंटर या स्वास्थ्य केंद्रों में जागरूकता और प्रशिक्षण के अभाव के कारण छात्रों में चिंता, आतंरिक बेचैनी और अवसाद के प्रारंभिक लक्षणों को नजरअंदाज कर दिया जाता है. हमारे सामाजिक और पारिवारिक परिवेश की बनावट के कारण बच्चे भी अपनी उलझन और परेशानी को सीधे कह पाने में असमर्थ होते हैं या फिर उनके पास समुचित साहस नहीं होता. लैंगिक और जातिगत पूर्वाग्रह और शोषण भी छात्रों को आत्महत्या के लिए विवश करते हैं. आंकड़े यह भी बताते हैं कि देश के शिक्षित और विकसित हिस्सों में आत्महत्या की दरें पिछड़ेपन के शिकार प्रांतों की तुलना में अधिक हैं. मौत को विकल्प के रूप में स्वीकार करनेवाले अधिकतर छात्र मध्यवर्गीय परिवारों से आते हैं.
सांस्थानिक उपायों के इंतजाम और व्यवस्थागत बदलावों के साथ यह बहुत जरूरी है कि अभिभावक और शिक्षक बच्चों की क्षमता का सही आकलन करें और उन्हें अपनी रुचि के अनुरूप पढ़ने और पेशे का चुनाव करने की आजादी दें. इतनी बड़ी संख्या में छात्रों की आत्महत्या यही इंगित करती है कि छात्रों पर बहुत दबाव है. देश के बेहतर भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए त्वरित कदम उठाये जाने चाहिए.

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