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चंपारण सत्याग्रह के सौ साल : गांधी ने बिहार आकर खुद को खोजा

बिहार ने गांधी को पाकर खुद को पहचाना बिहार के लोगों ने गांधी से पूछा था : हमसे अाप क्या चाहते हैं? गांधी ने बिहार से पूछा था: अाप क्या कर सकेंगे? इस सवाल-जवाब के सौ साल बाद फिर बिहार पूछ रहा है : अाप हमसे क्या चाहते हैं ? जवाब देने वाला कोई गांधी […]

बिहार ने गांधी को पाकर खुद को पहचाना
बिहार के लोगों ने गांधी से पूछा था : हमसे अाप क्या चाहते हैं? गांधी ने बिहार से पूछा था: अाप क्या कर सकेंगे?
इस सवाल-जवाब के सौ साल बाद फिर बिहार पूछ रहा है : अाप हमसे क्या चाहते हैं ?
जवाब देने वाला कोई गांधी कहीं है क्या?
इतिहास ने गांधी का हाथ बिहार के हाथ में दे दिया
चंपारण में गांधी
कुमार प्रशांत
10 अप्रैल, 1917! सुबह के करीब 10 बजे हैं अौर एक रेलगाड़ी अभी-अभी पटना जंकशन पर अाकर थमी है. एक नया अादमी स्टेशन पर उतरता है जिसे न पटना जानता है अौर न जिसने कभी पटना को जाना-देखा है.
नाम है मोहनदास करमचंद गांधी! मोहनदास करमचंद गांधी नाम का यह अादमी राजकुमार शुक्ल नाम के उस अादमी को भी बहुत थोड़ा जानता है जो उसे कलकत्ता से साथ लेकर पटना अाया है. राजकुमार शुक्ल भी इस मोहनदास करमचंद गांधी को बहुत थोड़ा जानते हैं. हां, वे इतना जरूर जानते हैं कि यह अादमी गुजराती है लेकिन देश में जो कुछ लोग उसे जानते हैं वह सुदूर के देश दक्षिण अफ्रीका के कारण जानते हैं जहां इस अादमी ने ‘कुछ किया’ है. क्या किया, क्यों अौर कैसे किया, यह राजकुमार शुक्ल भी नहीं के बराबर ही जानते हैं… अौर दोनों यह भी नहीं जानते हैं कि पटना में उन्हें जाना कहां है! मोहनदास करमचंद गांधी को तो पटना कहां है यही नहीं मालूम था अौर राजकुमार शुक्ल को पटना में कौन, क्या है यह नहीं मालूम था.
राजकुमार अपने मेहमान मोहनदास को ले कर पहुंचते हैं अपने बड़े वकील साहब के घर. घर के बाहर की तख्ती पर लिखा है : राजेंद्र प्रसाद! राजेंद्र प्रसाद बहुत बड़े अौर बड़े कमाऊ वकील थे लेकिन देश जिस राजेंद्र प्रसाद को जानता है उसका अभी जन्म नहीं हुअा है. अौर किस्सा यह कि वे राजेंद्र प्रसाद भी न तो घर पर थे, न पटना में थे. नौकरों ने बताया कि वकील साहब पुरी गये हुए हैं. एकदम अजनबी-से शहर में, एक अजनबी अादमी के घर के बरामदे में, दो अजनबी-से अादमी एक अजनबी-सी रात गुजारने को अभिशप्त थे.
अब तक मोहनदास समझ चुके थे कि राजकुमार भोले अादमी हैं जिनकी गठरी में व्यावहारिक बातें कम होती हैं. अपनी डायरी खंगाल कर मोहनदास ने एक नाम निकाला – मजहरुल हक! पटना के नामी वकील अौर मुस्लिम लीग के राष्ट्रीय मंत्री ! लेकिन मोहनदास के लिए उनका परिचय दूसरा भी था – वे कभी लंदन में मोहनदास के सहपाठी रहे थे. मोहनदास ने उनको खबर भिजवायी तो हक साहब अपनी मोटर में भागे अाये अौर मोहनदास को अपने घर ले अाये. घर तो क्या, कोठी कहें हम! मोहनदास कोठी से ही हिचक गये, जीवन-शैली की तड़क-भड़क ने अौर भी परेशान किया. जब बताया कि
राजकुमार उन्हें चंपारण ले जा रहे हैं तो बारी हक साहब के बिदकने की थी – क्यों यह सारी मुसीबत मोल लेनी जैसा कुछ कहा उन्होंने. वे अपने इंगलैंड वाले दोस्त मोहनदास को इस परेशानी से बचाना चाहते थे. मोहनदास को उनका रवैया अौर उनकी दिखावटी जीवन-शैली पची नहीं अौर उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि हक साहब कट कर रह गये.
अागे की कहानी जैसे चलती है, उसे वैसे ही चलने को छोड़ कर हम सीधा मुजफ्फरपुर पहुंचते हैं जहां मोहनदास को घेर कर बैठे हैं बिहार व देश के नामी वकील साहबान! बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद भी हैं, राजेंद्र प्रसाद भी हैं, रामनवमी प्रसाद भी हैं, सूरजबल प्रसाद, गया बाबू भी हैं. अौर भी कई लोग हैं. चंपारण में चल रही तिनकठिया प्रथा अौर उससे किसानों का हो रहा अकल्पनीय शोषण – सारे महानुभाव इससे परिचित थे. कैसे परिचित नहीं होते! ये सभी इन्हीं शोषित-पीड़ित- वंचित किसानों के मुकदमे भी तो लड़ते थे. न्याय दिलाना इनका पेशा ही था. मोहनदास को बड़ी हैरानी हुई कि ऐसे मृतप्राय किसानों से ये सारे साहबान हजारों रुपयों की फीस वसूलते थे. तर्क उनका सीधा था : घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या!!
लेकिन मोहनदास हमसे चाहते क्या हैं? – यह सवाल था जो कहे-अनकहे सारे माहौल पर पसरा हुअा था. मोहनदास ने कहा : हमें ये मुकदमे लड़ना ही बंद कर देना चाहिए. इनसे लाभ बहुत कम होता है. जब इतना भय हो, इतना शोषण हो तो कचहरियां कितना काम कर सकती हैं ! तो पहला काम है लोगों का भय दूर करना! दूसरी बात है यह संकल्प कि ‘तिनकठिया’ बंद न हो तब तक चैन से नहीं बैठना है. इसलिए वहां चंपारण के किसानों के बीच लंबे समय तक रहना पड़ेगा अौर जब जरूरत पड़े तब जेल जाने की तैयारी रखनी पड़ेगी. मोहनदास चुप हुए तो सारा माहौल चुप हो गया ! चेहरे पर सबके एक ही बात लिखी थी : यह तो अजीब ही तरह का अादमी है. हम मुकदमा लड़ते हैं, यही क्या कम है! अब हम ही मुकदमा भी लड़ें, इनके बीच जा कर भी रहें, इनके लिए जेल भी जाएं! कोई खानदानी अादमी कभी जेल जाता है क्या?
सबकी तरफ से जवाब ब्रजकिशोर बाबू ने दिया : हम अापके साथ रहेंगे, अापका बताया काम भी करेंगे. जिसके पास जितना समय है, वह भी देंगे. जेल जाने वाली बात एकदम नयी है. हम उसकी हिम्मत बनायेंगे.
वे हिम्मत बनाते रहे अौर मोहनदास बात बनाने निकल पड़े. जो जहां, जिस भी तरह चंपारण से जुड़ा था, वे उन सबसे मिलने, बात करने में लगे थे. अौर सबसे जरूरी था कमिश्नर साहब से यह अनुमति पाना कि मोहनदास चंपारण जा सकते हैं. मोहनदास को यह जितना जरूरी लग रहा था कमिश्नर उतना ही साफ था कि यह कतई जरूरी नहीं है कि एक बाहरी अादमी चंपारण की शांति-व्यवस्था भंग करने पहुंच जाये. दोनों की टेक साफ थी. मोहनदास ने बड़ी मासूमियत से अपने वकील साहबानो से कहा: “कमिश्नर साहब जो भी कहें, मैं चंपारण जाऊंगा!” सारे वकील साहबान हैरानी से मोहनदास को देख रहे थे. मोहनदास ने एक पत्र लिखा कमिश्नर साहब के नाम : चाहता तो था कि अापकी अनुमति ले कर जाऊं; अब बिना अनुमति जा रहा हूं. मोहनदास ने मन-ही-मन हिसाब लगाया : क्या मेरे हिसाब से पहले ही मुझे जेल जाना होगा ?
15 अप्रैल 1917! शाम चार बजे मोहनदास मोतिहारी स्टेशन पहुंचे!
इतिहास ने अागे बढ़ कर परदा उठा दिया : सामने था छोटा-सा मोतिहारी का रेलवे स्टेशन, भाप छोड़ती इंजन की सूं-सूं, अटपटी अौर अजनबी-सी हालत में खड़े मोहनदास अौर अपार, अपार जन!! … मुझे मालूम नहीं कि इतिहास में कभी, कहीं ऐसी अटपटी स्थिति में कोई ऐसा नाटक खेला गया हो जिसने इतिहास को ही बदल डाला हो! लेकिन अाज से ठीक सौ साल पहले ऐसा हुअा था – इतिहास ने अागे बढ़ कर मोहनदास करमचंद गांधी का हाथ थामा अौर बिहार के हाथ में धर दिया !
यहां से अागे बहुत कुछ बदला
मोहनदास करमचंद गांधी इतना बदले कि नाम, धाम, काम, वस्त्र, जीवन, बोली-बानी, साथी-संगति सब बदलते गये. नाम भी कट-छंट कर रह गया सिर्फ गांधी; फिर वह भी नहीं रहा – रह गये सिर्फ बापू! चंपारण मोहनदास का वाटर-लू हो सकता था लेकिन गांधी ने उसे बना दिया अंगरेजी साम्राज्यवाद का वाटर-लू! जब परदा उठा था तब जो गांधी अकेले दिखे थे. वहां से सफर शुरू हुअा तो नापते-नापते गांधी ने इतना कुछ नाप लिया कि इतिहास का हर मंच छोटा पड़ने लगा; अौर जिस यात्रा के प्रारंभ में वे अकेले थे, उसी यात्रा में वे अकेले-एकांत के एक पल के लिए तरसने लगे.
गांधी ने बिहार अा कर अपना वह हथियार मांजा-परखा जो दक्षिण अफ्रीका में तैयार हुअा था; बिहार ने गांधी को पा कर वह हथियार चलाना सीखा जिसे सत्याग्रह कहते हैं. बिहार के लोगों ने गांधी से पूछा था : हमसे अाप क्या चाहते हैं? गांधी ने बिहार से पूछा था: अाप क्या कर सकेंगे?
इस सवाल-जवाब के सौ साल बाद बिहार पूछ रहा है : अाप हमसे क्या चाहते हैं? जवाब देने वाला कोई गांधी कहीं है क्या?

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