आज का दौर महिला सशक्तीकरण का दौर है. सरकार भी इस दिशा में तेजी से काम कर रही है. आप किसी भी बोर्ड के 10वीं और 12वीं के परीक्षा परिणाम को देखें, तो पायेंगे कि लड़कियां, लड़कों से बाजी मार लेती हैं, लेकिन इसके बाद लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों के मुकाबले में पिछड़ने लगता है और वे हर क्षेत्र में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करने लगती है. बात चाहे प्रशासनिक सेवा की हो, बिजनेस फील्ड, इंजीनियरिंग, मेडिकल या राजनीति की ही क्यों ना हो, लड़कियां पीछे नजर आती हैं. ऐसा आखिर क्यों?
निर्णय लेने में हिचकती हैं महिलाएं
भारतीय सामाजिक व्यवस्था कुछ इस तरह की है और लड़कियों की nourishing (देखभाल या परवरिश) ही कुछ इस तरह से की जाती है कि वे निर्णय लेने में हिचकती हैं. 12वीं के बाद जब समय आता है कैरियर को लेकर निर्णय करने का तो वे दुविधा में फंस जाती हैं और कई बार सही निर्णय नहीं कर पातीं. यह एक बड़ा कारण दिखता है, जिसके कारण लड़कियां उच्च शिक्षा और कैरियर की दौड़ में पिछड़ जाती हैं. कई बार उनके निर्णय भी अपने नहीं होते अभिभावक निर्णय लेते हैं, जिसके कारण लक्ष्य साधने की उनकी क्षमता और रुचि दोनों प्रभावित होती है.
नेतृत्व क्षमता का अभाव
महिलाओं में नेतृत्व क्षमता का अभाव दिखता है. वे इस बात के लिए तैयार नहीं दिखती हैं कि वे कार्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में नेतृत्व दे सकती हैं. पारंपरिक सोच के अनुसार पुरुष ही नेतृत्व करता आया है, बात चाहे धर्म की हो, समाज की या राजनीति की. यही कारण है कि महिलाएं नेतृत्व करने में संकोच करती हैं, यह बात कई सर्वे में सामने आयी है. महिलाएं स्वभाव से पुरुषों की अपेक्षा कम महत्वांकाक्षी होती हैं, जिसके कारण भी वे पिछड़ती जाती हैं.
लड़कियों पर खर्च करने में संकोच करते हैं अभिभावक
इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाओं के प्रति समाज का सोच बदला है. बावजूद इसके आज भी अभिभावक लड़कियों पर इंवेस्ट करने की बजाय लड़कों पर करना ज्यादा सुरक्षित समझते हैं. इसके कारण लड़कियां मनपसंद कैरियर नहीं चुन पाती हैं और पिछड़ती जाती हैं.
समाज आज भी महिलाओं पर नहीं करता विश्वास
अपवाद को छोड़ दें, तो यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि समाज आज भी महिलाओं पर विश्वास नहीं करता, जिसके कारण किसी भी क्षेत्र में महिलाएं ‘कीपोस्ट’ तक नहीं पहुंच पातीं. उनके लिए राह बहुत कठिन होती है बनिस्पत एक पुरुष के.