आज दुनियाभर के विभिन्न हिस्सों में लगभग डेढ़ अरब लोग भयावह गरीबी में जी रहे रहे हैं. दुर्भाग्य से 54 फीसदी लोग दक्षिण एशियाई क्षेत्र से हैं, जहां के हम बाशिंदे हैं. वर्ष 1990 से 2015 के बीच गरीबी में गिरावट तो आयी, लेकिन इस क्षेत्र में असमानता बढ़ती गयी. स्वास्थ्य, जीवन-प्रत्याशा, प्रति व्यक्ति आय जैसे मोर्चों पर नाकामी का ही नतीजा है कि विकास के वैश्विक मानकों पर देश का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है. अंतरराष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी विश्व प्रसन्नता सूचकांक की 155 देशों की सूची में भारत को 122वां स्थान मिला है.
यहां तक कि अस्थिरता से प्रभावित पड़ोसी देश पाकिस्तान और आर्थिक रूप से कमजोर नेपाल का भी प्रदर्शन भारत से बेहतर है. अशांति से त्रस्त अफगानिस्तान (141) को छोड़ कर अन्य दक्षिण एशियाई देशों- पाकिस्तान (80), भूटान (97), बांग्लादेश (110) और श्रीलंका (120) से हम पीछे हैं. प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पादन, जीवन-प्रत्याशा के स्वस्थ वर्षों, सामाजिक सहयोग, विश्वास, निर्णय लेने की स्वतंत्रता और उदारता आदि मानकों पर प्रसन्नता सूचकांक तैयार किया जाता है. इन सभी मोर्चों पर भारत के प्रदर्शन में गिरावट आयी है.
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक में भी भारत 131वें स्थान पर है. कुपोषण से निपटने और लचर स्वास्थ्य सुविधाओं में हमारा पिछड़ापन जगजाहिर है. देश की बड़ी आबादी के प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम होने के बावजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च कुल घरेलू उत्पादन का महज 1.4 प्रतिशत है. पिछले ढाई दशकों में शिशु मृत्य दर, शिशु रोग में मामूली कमी आयी है और जीवन-प्रत्याशा में सुधार हुआ है, लेकिन यह उपलब्धि इतनी भी बड़ी नहीं है कि हमारा देश विकास के मानकों पर अपने पड़ोसी देशों की भी बराबरी कर सके.
समाज के वंचित तबकों को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए योजनाएं बनती रहीं, लेकिन संतोषजनक भागीदारी का स्तर सुनिश्चित करने के लिए अभी लंबा सफर तय करना है. हालांकि, सूचना का अधिकार, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और शिक्षा का अधिकार जैसे कानूनों ने सामाजिक सुधार की बड़ी उम्मीद जगायी है. विकास के अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरने के लिए देश में बढ़ती आर्थिक और लैंगिक असमानता के विरुद्ध कृत-संकल्प होकर बड़ी मुहिम छेड़नी होगी, तभी देश तरक्की की राह पर आगे बढ़ सकेगा.