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जल-विवाद पर जरूरी पहल

बीते साल सितंबर महीने में कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच तनातनी ने उग्र रूप लिया, तो एक बात साफ नजर आयी कि विवाद से जुड़े सारे पक्ष किसी समाधान तक पहुंचने में लाचार महसूस कर रहे हैं. तमिलनाडु ने पुरानी संधि का हवाला देकर कर्नाटक से पानी […]

बीते साल सितंबर महीने में कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच तनातनी ने उग्र रूप लिया, तो एक बात साफ नजर आयी कि विवाद से जुड़े सारे पक्ष किसी समाधान तक पहुंचने में लाचार महसूस कर रहे हैं. तमिलनाडु ने पुरानी संधि का हवाला देकर कर्नाटक से पानी मांगा. कर्नाटक ने रोना रोया कि हमारे खुद के लिए ही पानी कम पड़ रहा है.
अदालत से तमिलनाडु के लिए पानी छोड़ने के निर्देश आये, तो कर्नाटक सरकार ने दुखड़ा रोया कि किसान नाराज हो रहे हैं और पानी देने से विरोध और भड़केगा. केंद्र सरकार मामले में सीधे हस्तक्षेप करने से हिचक रही थी, क्योंकि सांविधानिक व्यवस्था केंद्र के हस्तक्षेप के अनुकूल नहीं है. वर्ष 2010 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने साफ कह दिया था कि कर्नाटक उनके हिस्से का पानी नहीं दे रहा है और केंद्र सरकार हाथ बांधे तमाशा देख रही है. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का जवाब था कि नदी जल बंटवारे को लेकर पहले से कुछ स्थापित मान-मर्यादाएं हैं और हमें उसी के अनुकूल चलना है. इस उदाहरण से स्पष्ट है कि जल बंटवारे की मौजूदा व्यवस्था कारगर नहीं है. समय-समय पर बननेवाले ट्रिब्यूनल भी मसले का हल नहीं निकाल सके हैं. मिसाल के लिए, नर्मदा जल-विवाद ट्रिब्यूनल 1979 में बना और गोदावरी कृष्णा जल-विवाद से संबंधित ट्रिब्यूनल 1980 में. ये दोनों मसले अभी भी कायम हैं, पर ट्रिब्यूनल अब अमल में नहीं हैं.
इसी तरह से अन्य कई राज्यों के बीच विभिन्न नदियों के पानी पर अधिकार को लेकर खींचतान जारी है. अब तक आठ से अधिक ट्रिब्यूनल बनाये जा चुके हैं. आगे ऐसी लाचारी का सामना न करना पड़े, इसके लिए केंद्र सरकार ने एक सराहनीय पहल की है. सरकार का इरादा अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद (संशोधन) अधिनियम को पारित कराने का है. अगर संशोधन विधेयक कानून का रूप लेता है, तो अलग-अलग राज्यों के नदी जल-विवाद के लिए अलग-अलग ट्रिब्यूनल बनाने की बाधा खत्म हो जायेगी.
एक ही समेकित और स्थायी ट्रिब्यूनल के जरिये सभी संबद्ध पक्षों के बीच सुलह की कोशिश होगी. भविष्य में पानी की बढ़ती मांग, मॉनसून-चक्र में बदलाव और जलवायु-परिवर्तन के साझे कारणों से राज्यों के बीच नदियों के पानी को लेकर झगड़े और गंभीर होंगे. इसलिए यह पहल दूरगामी सोच का परिचय देती है. इस संदर्भ में हमें विशेषज्ञों की यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि ऐसे विवादों का एक प्रमुख कारण बड़े बांध हैं. ऐसी समस्याओं का तीव्र राजनीतिकरण भी बड़ी चिंता का कारण है. सरकार को प्रस्तावित विधेयक को अंतिम रूप देने से पहले राज्यों से विचार-विमर्श कर समुचित वैधानिक व्यवस्था की ओर अग्रसर होना चाहिए.

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