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यूपी चुनाव का रिजल्ट मायावती के लिए सदमे से कम नहीं

!!विजय बहादुर!!लखनऊ : 2017 यूपी चुनाव के रिजल्ट मायावती और उनकी पार्टी बसपा के लिए किसी सदमे से कम नहीं है. पूरे चुनाव में मायावती ने दलित मुस्लिम गठजोड़ बनाने की पूरी कोशिश की लेकिन उनका आंकड़ा 19 सीटों के न्यूनतम स्तर पर चला गया. उनके लिए संतोष की एक ही बात है की उनका […]

!!विजय बहादुर!!
लखनऊ :
2017 यूपी चुनाव के रिजल्ट मायावती और उनकी पार्टी बसपा के लिए किसी सदमे से कम नहीं है. पूरे चुनाव में मायावती ने दलित मुस्लिम गठजोड़ बनाने की पूरी कोशिश की लेकिन उनका आंकड़ा 19 सीटों के न्यूनतम स्तर पर चला गया. उनके लिए संतोष की एक ही बात है की उनका मत अब भी 22 % है. 2012 के यूपी चुनाव से बसपा का ग्राफ नीचे ही गया है. 2012 में बसपा को यूपी में लगभग 25 % वोट मिले थे और लगभग 29 % वोट शेयर के साथ अखिलेश के नेतृत्व में सपा की सरकार बनी थी.

2007 में यूपी में बसपा अपने चरम पर थी और लगभग 30 % वोट शेयर के साथ मायावती के नेतृत्व में बसपा की सरकार बनी थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का प्रदर्शन सबसे खराब रहा. यूपी में सिर्फ 20 % मत और कोई सीट नहीं. एक समय बसपा का फैलाव धीरे-धीरे दूसरे राज्यों मध्य प्रदेश,बिहार,पंजाब में भी हो रहा था और खासकर दलितों में उनकी पैठ बढ़ रही थी. वही पार्टी अब हाशिये पर दिख रही रही है.

बसपा का जन्म कांशीराम के नेतृत्व में हुआ और यह पार्टी धीरे-धीरे खासकर यूपी में हाशिये में बैठे समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े दलितों के सामजिक आवाज के रूप में सामने आयी. इस सामाजिक उत्थान ने बहुत बड़ी राजनीतिक ताकत बनायी. कांशीराम ने अपनी पूरी विरासत मायावती को सुपुर्द कर दी थी और मायावती को 4 बार यूपी की सत्ता संभालने का मौका मिला. 2012 पहले तक यूपी में मायावती एक धूरी जरूर रहती थी. समय-समय पर राजसत्ता के लिए मायावती को बहुत सारे गठजोड़ करने पड़े. 2007 में उन्होंने सतीशचंद्र मिश्र को आगे रखकर दलित -ब्राह्मण गठजोड़ बनाया जो बहुत सफल रहा. लेकिन लगातार सत्ता के गठजोड़ के कारण बसपा की वैचारिक ताकत कुंद होती गयी.

2012 तक बसपा को न सिर्फ दलितों का समर्थन था, बल्कि पिछड़े वर्ग में भी सबसे पिछड़ी छोटी-छोटी संख्या बल वाली जातियों का भी समर्थन प्राप्त था. दलितों के बहुत बड़े हिस्सें में भी ये भावना उपजी कि मायावती बात पूरे दलित समाज की करती हैं लेकिन ज्यादा लाभ जाटवों को ही मिल रहा है. इसलिए मायावती को दलितों में जाटवों का ही ज्यादा समर्थन मिल पा रहा है जो यूपी की आबादी में 12 % ही है जबकि दलितों की कुल आबादी यूपी में 23 % है. जाटव के अतिरिक्त दलितों का बहुत बड़ा हिस्सा आज भाजपा के साथ खड़ा है. मायावती ने अपनी पार्टी में दूसरे किसी को खड़ा भी नहीं होने दिया इसलिए धीरे धीरे बहुत सारे प्रभावी नेता दूसरी पार्टियों में चले गए इस कारण भी उस जाति से संबंधित वोट बसपा से कटता चला गया.

इस यूपी चुनाव में मायावती के दलित मुस्लिम गठजोड़ की कोशिश के कारण मुस्लिम वोटों का बंटवारा हुआ. मायावती ने 98 मुस्लिमों को टिकट दिया और मुस्लिमों खासकर पसमांदा मुसलमानों के वोट का एक हिस्सा बसपा को मिला भी. तमाम कोशिश के बावजूद सपा मुस्लिमों के वोट मिलने के मामले में नंबर 1 पर रही. मुस्लिम वोट के बड़े बंटवारे ने भाजपा की राह यूपी में आसान कर दी.

आने वाला समय मायावती के लिए और कठिन होगा. उसके दो कारण हैं. पहला कारण है बसपा का यूपी चुनाव में तीसरे नंबर पर रहना. मुस्लिमों के बहुत बड़े हिस्से जिसने उसे वोट दिया है को लगेगा की बसपा भाजपा को चुनौती देने के हालात में नहीं है. सपा का नंबर 2 में रहना आने वाले 2019 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिमों को उसकी तरफ वापस लाएगा जिससे बसपा और कमजोर होंगी. दूसरा कारण सपा में तमाम पारिवारिक उठापटक के बावजूद भी अखिलेश का मुलायम के उत्तराधिकारी के रूप में आगे आना भी है जबकि मायावती के बाद बसपा में कोई बड़ा कद्दावर नेता नहीं है जो उनकी विरासत को आगे ले जाए.

आज जिस हालात में बसपा है उसमे 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस के साथ यूपी में महागठजोड़ बना कर ही अपने आपको प्रासंगिक रख सकती हैं. 2017 यूपी चुनाव के रिजल्ट के बाद सपा और कांग्रेस भी पस्त है. उनके पास भी भाजपा से अकेले लड़ने की क्षमता नहीं दिखती है. ऐसे हालात में इन तीनों दलों के पास आने वाले लोकसभा चुनाव में गठजोड़ कर चुनाव लड़ने के अलावे कोई और रास्ता दिखता नहीं है. बिहार चुनाव में लालू ,नीतीश और कांग्रेस के महागठजोड़ की सफलता भी ये पार्टियां देख चुकी हैं और उन्हें पता है की यही भाजपा और मोदी लहर को रोकने का एक मात्र रास्ता हो सकता है. अकेले अकेले चुनाव में भाजपा के खिलाफ लोक सभा चुनाव में जाना इन दलों के लिए आत्महत्या करने जैसा होगा.

लेकिन व्यवहारिक रूप से यूपी में महागठजोड़ करना आसान भी नहीं है. मायावती मुलायम के बीच की व्यक्तिगत तल्खी ,अहम् और साथ में टिकट का बटवारां का दुरूह काम. उसके बाद निचले स्तर पर कार्यकर्ताओं के बीच सामंजस्य. यूपी में खासकर ग्रामीण इलाकों में पिछड़ों खासकर यादवों और दलितों की अदावत जगजाहिर है इसलिए सामजंस्य बनाना बहुत ही मुश्किल काम है. लेकिन बसपा और मायावती की राजनीति के लिए कोई दूसरी राह मिलनी भी मुश्किल है.

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