पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक
प्रधानमंत्री मोदी इससे पहले इजराइल की राजधानी पधारें, उससे कुछ हफ्ते पहले एयर इंडिया तेल अबीब-नयी दिल्ली के बीच सीधी उड़ान की तैयारी में है. तीन मार्च को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल तेल अबीब से लौट आये. उनके वहां जाने की वजह प्रधानमंत्री की यात्रा से पहले की तैयारी बतायी गयी है. जून के आखिर में प्रधानमंत्री मोदी इजराइल जायेंगे. मगर, फरवरी में हवाई सुरक्षा से संबंधित इजराइली प्रणाली ‘स्पाइडर एयर डीफेंस मिसाइल सिस्टम’ लगाने के वास्ते ढाई अरब डॉलर की एक बड़ी डील को प्रधानमंत्री हरी झंडी दे चुके हैं. मुमकिन है कि प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के बाद, इजराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू जनवरी 2018 में भारत आयें. साल 2003 में तब के प्रधानमंत्री अरियल शेरोन नयी दिल्ली आये थे. उससे पहले, और 2003 से अब तक इजराइल के किसी प्रधानमंत्री ने भारत का रुख नहीं किया है.
मोदी जी सत्ता में आये, तो नागपुर का दबाव था कि प्रधानमंत्री पहली विदेश यात्रा इजराइल की करें.
मगर, ऐसा हुआ नहीं. यों, 2006 में गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी तेल अबीब जा चुके हैं. इजराइल-भारत के बीच संपूर्ण कूटनीतिक संबंध के पच्चीस साल 29 जनवरी, 2017 को पूरे हुए. तब भी उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री मोदी उस अवसर पर तेल अबीब जायेंगे, मगर पांच राज्यों की चुनावी रणनीति ने उन्हें रोक दिया. सितंबर 2014 में नेतन्याहू और नरेंद्र मोदी की मुलाकात न्यूयार्क में हो चुकी है. अक्तूबर 2015 में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तेल अबीब गये थे. इसके प्रकारांतर नवंबर 2016 में इजराइल के राष्ट्रपति रेवेन रीवलिन भारत आ चुके हैं.
अक्सर, इजराइल की शिखर यात्रा में भारत के प्रधानमंत्री फिलिस्तीन भी साथ-साथ हो आते थे. इस बार संकेत है कि मोदी उधर का रुख नहीं करेंगे. क्या भारत की फिलिस्तीन नीति में व्यापक परिवर्तन होने जा रहा है? इस सवाल का एक और सबब 18 अक्तूबर को हिमाचल के मंडी में दिया मोदी का बयान है, जिसमें उन्होंने कहा था कि इजराइल ने जितने ‘टारगेट किलिंग’ (उसे वहां सर्जिकल स्ट्राइक नहीं कहते हैं) किये, वह सही थे. इस तरह का बयान अब तक किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने नहीं दिया था. यह फिलिस्तीन समेत समूचे अरब वर्ल्ड के लिए हैरान कर देनेवाला बयान था.
तेल अबीब विवि में अकादमिशियन यिफ्ताह शापिर ने 2014 में दोहा में एक सेमिनार में पते की बात कही थी, ‘या तो आप सौ प्रतिशत ‘प्रो इजराइल’ हो जायें, या सौ फीसदी फिलिस्तीन समर्थक, तभी संबंधों की सीमा-रेखा निर्धारित होती है.’ इसलिए इस बार प्रधानमंत्री मोदी ने अपने समकक्ष बिन्यामिन नेतन्याहू को संदेश दिया है कि हम ‘फिलिस्तीनी आतंकियों’ के विरुद्ध अब तक हुई कार्रवाई को समर्थन देते हैं, और भारत उसी मार्ग पर अग्रसर है. 2014 में प्रधानमंत्री मोदी के शपथ के बाद यहूदी मीडिया में ज्यादातर हेडलाइंस थी, ‘इजराइल्स बेस्ट फ्रेंड इन साउथ एशिया!’
पच्चीस साल में भारत-इजराइल संबंधों के चार हिस्से किये जा सकते हैं. 1998 से पहले जो कुछ हुआ, एक हिस्सा वह. दूसरा 1998 से 2004 तक एनडीए सरकार के समय भारत-इजराइल संबंध. उसके बाद के यूपीए दौर में तेल अबीब और नयी दिल्ली के रिश्ते. और चौथा, 2014 से मोदी शासन के दौर में भारत-इजराइल संबंध. इसकी पड़ताल की जानी चाहिए कि इस समय जरूरत से ज्यादा शोर इजराइल के पराक्रम को लेकर क्यों हो रहा है.
क्या इजराइल से सहयोग हमारी कूटनीतिक विवशता रही है? सही है कि आरएसएस आरंभ से यहूदी राष्ट्रवाद को अपना आदर्श मानता रहा है. वर्ष 1948 में इजराइल के अस्तित्व में आने के बाद उसका ‘इस्लामोफोबिक’ चरित्र दुनिया के दूसरे ठिकानों पर बैठी हिंदू आबादी को प्रभावित कर रहा था.
अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर समेत पूर्वी एशिया के देश ऐसे नव-हिंदूवादी गढ़ हैं, जहां पर ग्लोबल फ्रंट ऑफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, द हिंदू स्वयंसेवक संघ, ओवरसिज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी जैसे संगठन विचार के स्तर पर ‘जाइअोनिज्म’(यहूदीवाद) से जबरदस्त रूप से प्रभावित हैं. ऐसे कई मौके आये, जब जाइओनिस्ट आॅर्गेनाइजेशन ऑफ अमेरिका (जेडओए) ने इंडो-अमेरिकन कम्युनिटी को समर्थन दिया है. खुसूसन, इन इलाकों में नरेंद्र मोदी की यात्रा के दौरान ऐसा दृश्य आप देख सकते हैं.
यहूदी मीडिया ने ऐसे विषय को सर्वोच्च स्थान देना शुरू किया है, तो इसलिए क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि में व्यापार और इसलाम को ध्वंस करनेवाले धार्मिक सरोकार हैं. लगभग 1 करोड़ 75 लाख अनिवासी भारतीयों का एक बड़ा हिस्सा इस ‘नव राष्ट्रवाद’ के ग्रह पथ (ऑर्बिट) पर अग्रसर हो चुका है, यही यहूदी मीडिया की सबसे बड़ी उपलब्धि है.
2015 में सरदार बल्लभ भाई पटेल नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद से दो जत्थों में डेढ़ सौ आइपीएस प्रशिक्षु इजराइल गये. इसके बारे में पूरी दुनिया में डुगडुगी पिटवा दी गयी. आज मोसाद की पहुंच हमारे राष्ट्र की टॉप पीएसयू, आइटी, कॉरपोरेट हाउस, मीडिया, थिंक टैंक, प्रतिरक्षा, हेल्थकेयर, इंश्योरेंस, वित्तीय महकमों में इतनी गहरी क्यों है? इस सवाल पर गंभीरता से विचार की जरूरत है!