कविता विकास
स्वतंत्र टिप्पणीकार
समाज में लिंग-भेद समाप्त करने के लिए अनेक उपाय किये गये हैं. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने जेंडर सूचक शब्द जैसे अंगरेजी के ‘ही’ और ‘शी’ को हटा कर एक सामान्य ‘जी’ शब्द को लाने का प्रस्ताव रखा है.
संविधान में अनेक परिवर्तन किये गये और नियम-कानून में भी अनेक बदलाव लाये गये, जिनसे स्त्रियां पुरुषों के समकक्ष खड़ी हो सकें. शिक्षा और कैरियर में विशेष आरक्षण देने के बाद भी आशानुरूप उनकी स्थिति में बदलाव क्यों नहीं हो पाया है? कारण, इन सभी प्रयासों में स्त्री ने सरकारों और समाज से अपेक्षा की, पर स्वयं को बदलने के लिए कभी प्रयत्न नहीं किया. महिलाओं को अपनी शक्तियों और क्षमताओं का एहसास स्वयं कराना होगा. शक्ति का अनुभव करना एक मानसिक अवस्था है.
स्त्री का पुरुष से भिन्नता ही उसकी शक्ति है, उसकी खूबसूरती है. एक स्त्री अपनी कमजोरी और अपनी शक्ति स्वयं पहचानती है. दूसरों द्वारा बताये गये रास्ते उसको जंच नहीं सकते. एक स्त्री अच्छी तरह जानती है कि वह स्त्रियों की कंपनी में रहना चाहती है या पुरुषों के बीच रह कर अपने काम निष्पादित कर सकती है. वह अपने निर्णय को प्राथमिकता देती है या समूह में लिये गये निर्णय को. उम्र की कोई पाबंदी नहीं है. चालीस साल की उम्र के बाद स्त्रियों को खुद को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है. इस समय तक उनकी ज्यादातर जिम्मेवारियां पूरी हो चुकी होती हैं, इसलिए यही वह उपयुक्त समय है, जब वे अपने शौक को पूरा करने की कोशिश करें. जिसमें जो हुनर हो, वही टास्क लें.
स्त्री सशक्तिकरण का मतलब केवल बाहरी आक्रमण से स्वयं को बचाना नहीं है, बल्कि आंतरिक शक्ति से भी लैस होना है, जो आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और अन्वेषण के माध्यम से प्रकट होता है. छोटे-छोटे कई भागों में बांट कर काम को करना चाहिए और अपनी उपलब्धियों पर स्वयं को शाबाशी भी देनी चाहिए. सफलता छोटी या बड़ी नहीं होती है.
सफलता मात्र सफलता होती है. सफल होने से अपने अंदर खुशियां आती हैं, जो हमारे सौंदर्य को बढ़ाती हैं. किसी रचनात्मक कार्य में लगे रहने से अपने ऊपर विश्वास बढ़ता है और यह सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है. अकेले आना-जाना, ट्रेन-बस में अकेले सफर करना आदि ऐसे आयाम हैं, जिनसे स्त्रियां जरूरी काम करना खुद-ब-खुद सीख जाती हैं. मसलन, टिकट कटवाना, नये शहर में अपना बंदोबस्त करना आदि.
स्त्री-सशक्तिकरण यानी अधिक उत्तरदायित्यों का वहन करना और घर- बाहर दोनों जगहों पर सामंजस्य बनाये रखने में सफल होना है. सुखद पारिवारिक माहौल और खुशनुमा कार्य-स्थल मानसिक शांति देता है.
एक सही निर्णय लेकर एक बड़ी संख्या के हित में काम करने का हुनर स्त्रियों के पास होता है. इस हुनर को उजागर करने की जरूरत है. स्त्रियों को बौद्धिक स्तर पर सम्मान मिलना चाहिए, केवल स्त्री होने के नाते नहीं. समाज से इतनी अपेक्षा होनी चाहिए कि उनके साथ कोई तुलनात्मक व्यवहार न हो, समाज उन्हें उनके स्वरूप में स्वीकार करे. परिवार और समाज के पूरक के रूप में उन्हें लिया जाना चाहिए, हिस्से के रूप में नहीं.
शहरी महिलाओं ने अपने अधिकारों का उपयोग करना सीखा है. अभिव्यक्ति के अधिकार को गांव-देहात तक ले जाना होगा. आंतरिक भूभागों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने का काम अभी बाकी है. आलोचक चाहे जो कहें, पर एक ऐसी स्त्री जिसके लिए देह उसकी पूंजी, पहचान है, वह पूर्णतः स्वतंत्र है. वह सक्षम है, आत्माभिमानी है और किसी प्रकार के अपराध या बोझ से विमुक्त भी है.