मुंबई महानगरपालिका चुनाव परिणाम : भाजपा दरअसल शिवसेना को थका देना चाहती है
अनुराग चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार
मुंबई महानगर नगरपालिका और महाराष्ट्र की अन्य नगरपालिका के हाल ही में संपन्न हुए चुनावों ने महाराष्ट्र के प्रमुख राजनीतिक दलों को चौराहे के ऐसे मोड़ पर ला दिया है, जहां हरी बत्ती दिख ही नहीं रही है और राजनीतिक समीकरण उलझ गये हैं. कौन किसके साथ रहेगा, कौन किसका साथ छोड़ेगा यह कहना कठिन होता जा रहा है.
शिवसेना-भाजपा गंठबंधन पिछले चालीस वर्षों से चल रहा है. ‘हिंदुत्व’ की विचारधारा इस गंठबंधन की रेत और सीमेंट है. बाल ठाकरे का उग्रवाद, बीजेपी के लिए कई बार परेशानी पैदा करता रहा है, पर पिछले दो वर्षों से शिवसेना ने महाराष्ट्र में विपक्षी दल की भूमिका अपनायी है, क्या वही भूमिका शिवसेना का राजनीतिक भविष्य तय करेगी?
भारतीय जनता पार्टी ने मुंबई नगरपालिका के चुनावों में तीन गुना सीटें बढ़ा कर शिवसेना को मुंबई से दूर करने का अविश्वसनीय सपना पूरा कर दिया है. गुजराती भाषी और हिंदी भाषी ‘भैयाअों’ ने भारतीय जनता पार्टी को शिखर के नजदीक तक चढ़ा दिया, लेकिन मुसलिमों से ‘नफरत’ करनेवाली शिवसेना का 1993 में सांप्रदायिक हिस्सा के गढ़ बेहरामपाड़ा से मुसलिम उम्मीदवार को खड़ा करना और उसका चुनाव जीतना एक आश्चर्य से कम नहीं है.
शिवसेना और भाजपा ने पांच-पांच मुसलिम उम्मीदवार खड़े किये थे और शिवसेना के दो मुसलिम उम्मीदवार विजयी रहे. हैदराबाद के औबेसी बंधुअों की एमआइएम के भी दो ही उम्मीदवार विजयी रहे हैं. कांग्रेस के 13 मुसलिम जीते हैं और कांग्रेस के एक बड़े नेता का कहना है, ‘मुसलिमों का दबाव है कि शिवसेना को समर्थन दे.
मुंबई महानगरपालिका में 227 नगरसेवकों के चुनाव परिणामों ने नया समीकरण बनाया. मुंबई में सब कुछ नया-नया है. 155 नगरसेवक पहली बार चुनाव जीत कर बीएमसी तक पहुंचे हैं. 2012 में 45 प्रतिशत मतदान हुआ था, जबकि 2017 में 56 प्रतिशत मतदान हुआ, जिसमें युवकों की संख्या बहुत ज्यादा थी. 19 युवा नगरसेवकों में 14 औरतें हैं, जिनमें 26 वर्ष की निकिता निकम और 21 और 23 वर्ष की आयशा शेख (सपा) और आयशा बाबू खान (सपा) शामिल हैं.
मुंबई महानगरपालिका के चुनाव में सबसे ज्यादा लोकप्रिय और शक्तिशाली बन कर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस उभरे हैं. प्रधानमंत्री मोदी और फडणवीस के चमत्कारिक व्यक्तित्व के कारण भाजपा 82 सीटें जीत पायी.
मुंबई बहुभाषी महानगर है, लेकिन इन चुनावों में मुंबई के गुजरातियों ने बीजेपी को दिल खोल कर समर्थन किया और यही कारण है कि इन चुनावों में आठ पटेल, चार शाह और एक मेहता चुने गये. इसी तरह उत्तर भारतीय जिन्हें लगभग डूब चुकी महाराष्ट्र नवनिर्माण पार्टी से हिंसा का खतरा रहता है, राष्ट्रीय दल के रूप में भाजपा से जुड़ गये हैं. पहले उत्तर भारतीयों का झुकाव कांग्रेस की तरफ भी होता था और यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी ने अपना मुंबई अध्यक्ष बिहारी और पूर्व शिवसैनिक संजय निरूपम को चुना. इसके पहले कृपाशंकर और मुरली देवरा मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं और कांग्रेस की झोली में उत्तर भारतीय वोटों की बरसात देख चुके हैं.
भारतीय जनता पार्टी की चमत्कारिक विजय इस रूप में भी समझी जा सकती है कि आज अभी तक कभी भी भारतीय जनता पार्टी मुंबई महानगरपालिका के चुनावों में 70 सीटों से ज्यादा चुनाव नहीं लड़ी. शिवसेना इस बार भाजपा को 10 सीटें बढ़ा कर समझौता करना चाहती थी.
शिवसेना जितनी सीटें चुनाव लड़ने के लिए दे रही थी, उससे ज्यादा तो वह जीत गयी. पहली बार भाजपा ने 211 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये. पहली दफा चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों में पार्टी नेताअों के बेटे-बेटियां भी शामिल हैं. सांसद किरिट सौमय्या का बेटा, विधायक राज पुरोहित का बेटा जीतनेवालों में शामिल हैं. जबकि बीजेपी अध्यक्ष अाशीष सेलार का भाई चुनाव जीत नहीं पाया. कई पहली दफा नगरसेविका इसलिए भी जीत गयी, क्योंकि इन चुनावों मेें पचास प्रतिशत सीटें महिलाअों के लिए आरक्षित की गयी थी और लगभग सभी दलों के नगरसेवकों की पत्नियां चुनाव लड़ीं और चुनाव जीत भी गयीं. इनमें भाजपा के मंगेश पवार और सेना के प्रकाश पाटनकर की पत्नियां भी शामिल हैं.
महाराष्ट्र की राजनीति में यह जाना-पहचाना दिन के सूरज की तरह सत्य है कि मुंबई महानगरपालिका भ्रष्ट संस्था है और राजनीतिक दलों और अपराधियों का संपर्क सूत्र नगरसेवक है. भाजपा ने ‘पारदर्शिता’ लाने के नाम पर ही यह चुनाव लड़ा था और मुंबई के नागरिकों को वादा किया था कि बहुत बड़े पैमाने पर फैले भ्रष्टाचार को वे रोक देंगे. शिवसेना और ठेकेदारों का रिश्ता जगजाहिर है और कमीशन का ‘रेट’ भी सार्वजनिक है.
ऐसे में भारत की सबसे अमीर नगरपालिका शिवसेना के लिए कोने की मुर्गी है जिसे वे किसी कीमत पर नहीं खोना चाहते. शिवसेना क्षेत्रीय, पारिवारिक, उग्र और भाषाई पहचान रखनेवाली पार्टी है, जिसमें कड़ा ‘आपराधिक’ अनुशासन पालन करना होता है. बाल ठाकरे के अनुयायी और सत्ता से (मंत्रिमंडल में जो शामिल नहीं हैं) अलग सेना का कैडर चाहता है कि भाजपा से शिवसेना को रिश्ता खत्म कर देना चाहिए और यदि यह रिश्ता ज्यादा दिन चला तो भाजपा शिवसेना को समाप्त कर देगी या पूरी तरह निगल लेगी. ‘सामना’ शिवसेना का मुखपत्र है और वह कई महीनों से भाजपा औैर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ प्रचार में लगा हुअा है. यूं शिवसेना पर उनका उद्धव ठाकरे का पूरा संगठनात्मक कब्जा है, पर फड़नवीस मंत्रिमंडल के सेना सदस्य सरकार छोड़ने के पक्ष में नहीं हैं. उद्धव ठाकरे अभी भी भाजपा से दूर रह नये विरोधाभासों की तलाश में हैं. शिवसेना से कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सार्वजनिक रूप से समझौता नहीं कर सकते हैं. राष्ट्रवादी कांग्रेस का झुकाव भाजपा की तरफ है. शरद पवार और प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत रिश्ते और पद्मविभूषण प्राप्त करने के बाद यह अटकलें लगने लगी थी. परंतु, दो दिन पहले शरद पवार ने नांदेड जाकर शंकर राव चव्हाण को नमन किया और उनके बेटे और महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक चव्हाण से बात की और कांग्रेस – एनसीपी की दोस्ती फिर से करने पर जोर दिया.
आपसी फूट और नेतृत्वविहीन कांग्रेस की दारुण पराजय ने उसे अपने सिद्धांतों के प्रति फिर से विचार करने पर मजबूर कर दिया है. क्या कांग्रेस ‘गैर भाजपावाद’ को रणनीति के रूप में अपना सकती है? क्या कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता का एक महानगरपालिका के लिए त्याग कर सकती है? कांग्रेस जिसे इस चुनाव में न्यूनतम सीटें (31) प्राप्त हुई हैं. कांग्रेस अपरोक्ष सिद्धांत पर चलती रही है. अब पराजित, हताश कांग्रेस इन परिणामों के बाद अपनी जमीन खोज रही है और वह सेना के साथ गयी तो वह जमीन में मिल सकती है, लगभग यही परेशानी पवार पार्टी एनसीपी के सामने है जिसे पुणे और पिंपरी-चिंचवाड़ में भाजपा ने राजनीतिक सच्चाई दिखा दी है.
भाजपा के पास केंद्र सरकार है, महाराष्ट्र सरकार है और वह चुपचाप शिवसेना का खेल पूरा नहीं होने देगी. इसलिए वह चुप है और हर दल के मोहरों की चाल देख रही है. भाजपा बहुत सीमा तक शिवसेना का थका देना चाहती है और बाद में उसे कुछ सत्ता में भागीदारी देना चाहती है.
शिवसेना इन चुनावों के बाद विकल्पहीन है, वह मध्यावधि चुनाव के लिए न तो तैयार है और न जाना चाहती है. ऐसे में शिवसेना के झुकने और टूटने की संभावना ज्यादा दिख रही है. यूं कांग्रेस आलोचना कर शिवसेना का मेयर जितवा सकती है, पर शिवसेना में राजनीतिक हिम्मत अौर आर-पार की लड़ाई का माद्दा कितना बचा है, यह जल्द ही मालूम पड़ेगा. क्या शिवसेना कोई नये राजनीतिक रिश्ते बनायेगी या पुराने अतीत राग को ही गायेगी.