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राहुल, कान्हू मुंडा के समर्पण से बदले पूर्वी सिंहभूम-बंगाल के हालात दम ताेड़ने लगा है नक्सलवाद

पूर्वी सिंहभूम आैर बंगाल में हाल के दिनाें में कई बड़े नक्सलियाें ने सरेंडर किया है. इनमें कान्हू मुंडा आैर राहुल भी शामिल है. बंगाल में सरेंडर करनेवाला राहुल सांसद सुनील महताे की हत्या का आराेपी है. कान्हू मुंडा बीडीआे के अपहरण समेत कई बड़ी घटनाआें का अभियुक्त रहा है. कान्हू के पूरे दस्ते के […]

पूर्वी सिंहभूम आैर बंगाल में हाल के दिनाें में कई बड़े नक्सलियाें ने सरेंडर किया है. इनमें कान्हू मुंडा आैर राहुल भी शामिल है. बंगाल में सरेंडर करनेवाला राहुल सांसद सुनील महताे की हत्या का आराेपी है. कान्हू मुंडा बीडीआे के अपहरण समेत कई बड़ी घटनाआें का अभियुक्त रहा है. कान्हू के पूरे दस्ते के सरेंडर के बाद पूर्वी सिंहभूम (खासकर घाटशिला अनुमंडल) में नक्सलवाद के खत्म हाेने की संभावना जतायी जा रही है. हाल में बंगाल-झारखंड पुलिस के तालमेल,कई नक्सलियाें के मारे जाने के बाद जाे हालात बने हैं, उसके बाद कई आैर नक्सली सरेंडर की लाइन में खड़े हैं. इसे बड़ी सफलता माना जा रहा है. बंगाल पुलिस प्रयास कर रही है िक िकसी तरह उस क्षेत्र के सबसे बड़े नक्सली असीम मंडल उर्फ आकाश जी सरेंडर कर दें. इसके िलए बंगाल में दो िवधायकों को भी लगाया गया है, तािक वे आकाश जी को सरेंडर के िलए राजी करा सकें. उनपर एक करोड़ का इनाम घोिषत है.

प्रभात खबर टीम

ज्ञानेश्वरी ट्रेन हादसे ने माओवादियों के सफाये के संकल्प में नींव का काम किया. इस हादसे के करीब डेढ़ साल बाद नवंबर 2011 में लालगढ़ में घुसकर जहां सीआरपीएफ ने माओवादियों के पोलित ब्यूरो सदस्य किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव को मार गिराया, वहीं इस इलाके से नक्सलवाद को उखाड़ फेंकने की राह प्रशस्त हो गयी. लेकिन बंगाल में चले इस ऑपरेशन के बाद कई शीर्ष नक्सली छिपने के लिए बंगाल के पश्चिमी मेदिनीपुर जिला से सटे झारखंड के पूर्वी सिंहभूम के घाटशिला अनुमंडल के जंगलों में शरण लेने लगे. इनमें आकाशजी भी थे, जो वर्तमान में बंगाल स्टेट कमेटी के सचिव की बागडोर संभाल रहे हैं. आकाशजी पर एक कराेड़ का इनाम है. वे पूरे इलाके में अभी माओवादियों का नेतृत्व कर रहे हैं. पूर्वी सिंहभूम और ओड़िशा का मयूरभंज भी बंगाल स्टेट कमेटी के अंतर्गत ही आता है. इसलिए बंगाल के माओवादियों का पूर्वी सिंहभूम में जबरदस्त प्रभाव रहा. लालगढ़ से तो माओवादियों का सफाया हो गया, लेकिन पूर्वी सिंहभूम में उन्होंने अपने संगठन को मजबूत करना शुरू कर दिया. एक ओर बंगाल से आये माओवादी और दूसरी ओर गुड़ाबांधा और मुसाबनी के स्थानीय माओवादी थे. इनमें कान्हू मुंडा का दस्ता मुख्य था, जिसके साथ फोगड़ा मुंडा और सुपाई टुडू मुख्य नक्सली थे. दोनों समन्वय बनाकर काम कर रहे थे. स्थानीय कमेटी घटनाओं को अंजाम दे रही थी और स्टेट कमेटी आकाश जी के नेतृत्व में संगठन को मजबूत करने में लगी थी.

आकाश जी के साथ राहुल, सचिन जैसे नक्सली जा जुड़े थे. बंगाल पुलिस हर बैठक में यह मुद्दा उठाती कि लालगढ़ से नक्सली का सफाया तभी पूरी तरह संभव है जब पूर्वी सिंहभूम से इसका सफाया हो जाये. यहां से भी माओवादी एक बार फिर बंगाल में पांव पसारने की योजना बना रहे थे. इसलिए दोनों राज्यों की जरूरतों को देखते हुए बंगाल और झारखंड पुलिस के बीच समन्वय बढ़ाया गया. लालगढ़ में सीआरपीएफ की बड़ी संख्या में तैनाती थी. झारखंड से करीब तीन गुना. यह तय हुआ कि बंगाल की सीआरपीएफ भी झारखंड सीमा में आकर ऑपरेशन चला सकती है, बशर्ते झारखंड पुलिस का कम से कम दारोगा स्तर का एक अधिकारी ऑपरेशन में साथ हो. पूर्वी सिंहभूम-बंगाल सीमा क्षेत्र में पिकेट बने हैं. पूर्वी सिंहभूम पुलिस ने इन पिकेट में रोटेशन से एएसआइ की नियुक्ति की जो बंगाल सीआरपीएफ के सहयोग से ऑपरेशन में मदद करने लगी. इतना कोऑर्डिनेशन जरूर हुआ कि यदि झारखंड का सीआरपीएफ उधर ऑपरेशन के लिए जाता तो बंगाल सीआरपीएफ को सूचना देनी होती ताकि क्रॉस फायरिंग की स्थिति नहीं बने. दूसरी ओर झारखंड पुलिस ने अपना पूरा ध्यान गुड़ाबांधा और मुसाबनी में केंद्रित किया.

बढ़ते दबाव के कारण माओवादियों ने अपनी रणनीति बदल दी. उन्होंने अपने हथियार छुपा दिये और खुद सिविल में आ गये, टुकड़ों में बंट गये. उस समय कान्हू मुंडा के दस्ते के साथ 20 लोग थे, लेकिन कई नक्सलियाें के मारे जाने और कई के सरेंडर करने के बाद उसमें सिर्फ पांच लोग बच गये, जिससे कान्हू का सरेंडर कराना आसान हो सका. दूसरी ओर, राहुल के सरेंडर के बाद स्टेट कमेटी दस्ता भी कमजोर हो गया. अब सचिन के भी बंगाल पुलिस के कब्जे में हाेने की बात कही जा रही है. आकाशजी के साथ पहले करीब 50 लोग थे जो अब घटकर 10 से 12 रह गये हैं. बंगाल और झारखंड पुलिस का अगला निशाना आकाशजी ही हैं. बंगाल पुलिस पोइला बोसाख (14 अप्रैल) से पहले आकाशजी का सरेंडर कराने की कोशिश में है. यह संभव है कि इस दौरान झाड़ग्राम के जिला बनने के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सामने आकाशजी का सरेंडर हो. बंगाल पुलिस राहुल और दो तृणमूल विधायक के जरिये लगातार आकाशजी से संपर्क साध रही है. लेकिन कुछ भी हो यह तय है कि अब जंगलमहल से माओवादियों के पांव पूरी तरह उखड़ चुके हैं.

सरेंडर पॉलिसी झारखंड में बेहतर है, पर नक्सलियों के िलए बंगाल पहली पसंद

प्रभात खबर टीम4कोलकाता

पश्चिम बंगाल सरकार ने वर्ष 2010 के जुलाई महीने में ही माओवादियों के आत्मसमर्पण के पैकेज की घोेषणा कर दी थी. माओवादियों के आत्मसमर्पण के पीछे तृणमूल कांग्रेस की नीतियों को जिम्मेदार माना जाता है. पिछले दो वर्षों में केंद्र सरकार के साथ तल्ख हुए ममता बनर्जी के रिश्ते ने माओवादियों के सामने आत्मसमर्पण का एक अच्छा मौका पेश किया. ऐसे कई उच्च पदों पर आसीन माओवादी हैं जिनके विभिन्न मामलों की जांच केंद्रीय जांच एजेंसियां कर रही हैं. जहां अन्य राज्य सरकारों को आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को केंद्रीय जांच एजेंसियों के सामने पेश करने में कोई दुविधा नहीं होती है, वहीं मौजूदा बंगाल सरकार इसमें आनाकानी करती दिखती है.

केंद्र के साथ खटास भरे उसके रिश्ते इसका प्रमुख कारण है. यही कारण है कि कोलकाता पुलिस ने आत्मसमर्पण करने वाले सीपीआइ (माओवादी) के राज्य कमेटी के सदस्य रंजीत पाल से सीबीआइ को पूछताछ करने की इजाजत नहीं दी. सांसद सुनील महतो हत्याकांड के मामले में सीबीआइ रंजीत पाल से पूछताछ करना चाहती है.

माना यह भी जाता है कि आत्मसमर्पण के बाद माओवादियों के विभिन्न मामलों में राज्य सरकार अदालतों में नरम रुख अख्तियार करती है. इसके अलावा माओवादी उन राज्यों में आत्मसमर्पण करने से हिचकिचाते हैं जहां उनके अपराध भीषण होते हैं.

बंगाल की सरेंडर पॉलिसी

सरेंडर करने वालों को पुलिस सेफ हाउस में रखा जायेगा. सेफ हाउस वर्तमान में मेदनीपुर, दुर्गापुर, पुरुलिया में है. आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को तीन वर्षों के लिए मासिक दो हजार रुपये का स्टाइपेंड दिया जाता है. 1.5 लाख रुपये का फिक्स डिपोजिट तीन वर्षों के लिए. एक बार इस फिक्स्ड डिपोजिट की मियाद खत्म हो जाती है तो समूची राशि उक्त माओवादी को दे दी जाती है, बशर्ते तीन वर्षों तक उसने अच्छा बर्ताव किया हो. व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु ऋण देने की भी सुविधा है. जमा हुई फिक्स्ड डिपोजिट उक्त ऋण के लिए सिक्यूरिटी का काम करती है. माओवादियों को हथियार जमा करने पर अतिरिक्त मुआवजा राशि भी देने का प्रावधान है. माअावोदी समर्थक यदि आत्मसमर्पण करते हैं तो उनके मामलों का विचार छोटे अपराध के तहत किया जायेगा. यदि माओवादी वर्तमान में लघु अपराध के कारण पुलिस हिरासत में है और वह मुख्यधारा में लौटना चाहता है, तो उन्हें जमानत देने पर विचार किया जा सकता है.

झारखंड की सरेंडर पॉलिसी

सरेंडर करने वाले नक्सलियों पर सरकार ने जो इनाम घोषित कर रखा है, वह राशि सरेंडर करने वाले नक्सलियों को ही मिलेगी. सरेंडर करने वाले नक्सलियों का पांच लाख का बीमा होगा. सरेंडर करने वालों के परिवार का भी एक लाख रुपये का समूह बीमा कराया जायेगा. सरेंडर करने वाले नक्सली के खिलाफ दर्ज मामलों में फैसला होने के बाद योग्यता पूरी करने पर उसे सिपाही के पद पर नियुक्त किया जायेगा. सरेंडर करने वाले नक्सलियों के लिए पुनर्वास पैकेज 2.50 लाख रुपया का होगा. 50 हजार रुपया का भुगतान तत्काल किया जायेगा. विशेष शाखा द्वारा सरेंडर करने वाले नक्सलियों की गतिविधि की जांच के बाद शेष दो लाख रुपया दो बराबर किस्तों में एक वर्ष व दो वर्ष के बाद दिया जायेगा. हथियार व गोला-बारुद के साथ सरेंडर करने वाले नक्सलियों को अलग से दो हजार से एक लाख तक दिये जायेेंगे. पुनर्वास समिति द्वारा व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए एक साल तक प्रति माह 3000 रुपये दिये जायेंगे. घर बनाने के लिए चार डिसमिल जमीन दी जायेगी. 50 हजार रुपये भी दिये जायेंगे. मुकदमा लड़ने के लिए सरकार की ओर से नि:शुल्क वकील दिया जायेगा.

कान्हू का सरेंडर बदलेगा इतिहास

कान्हू मुंडा को सरेंडर कराने के पीछे क्या रणनीति रही? कैसे यह कामयाबी मिली?

कान्हू मुंडा पुलिस के लिए बड़ी चुनौती बन गया था. पिछले साल कोकपाड़ा स्टेशन पर लाेकल ट्रेन को रोककर वॉकी-टॉकी को लूटना, नक्सलियों के घर की कुर्की के जवाब में पुलिसकर्मियों के घर की कुर्की करना और मुसाबनी में बन रहे सीआरपीएफ कैंप में बम लगाने की घटनाओं ने हमारा पूरा फोकस कान्हू मुंडा दस्ते की ओर मोड़ दिया.


बंगाल पुलिस के सहयोग से सीमावर्ती इलाके में चलाये गये ऑपरेशन और फिर डुमरिया, मुसाबनी और गुड़ाबांधा में सघन अभियान ने कान्हू दस्ते की कमर तोड़ दी थी. कान्हू दस्ते के महत्वपूर्ण सदस्य सुपाई टुडू के इस साल तीन जनवरी को हुए इनकाउंटर के बाद से हमें पता था कि कान्हू कमजोर पड़ रहा है. 2015 में जहां कान्हू दस्ते में 20 लोग थे, वहीं बाद में सिर्फ पांच आदमी बचे. हमलोंगों ने कान्हू और उसके दस्ते के साथ के भुगलू सिंह व अन्य के घर पर मैसेज भिजवाया. मैंने अपना आधे घंटे का वीडियो बना कान्हू तक पहुंचाया. 6-7 फरवरी के आसपास कान्हू ने गांववालों से राय लेने की इच्छा जतायी. हमने गांव में फोर्स भेजना बंद कर दिया. फिर भी वह डर रहा था, इसलिए उसने गांववालाें के सामने सरेंडर की इच्छा जतायी. हमने उसे भी मान लिया. पर यह चुनौती थी. कान्हू ने पहले गांववालों के जरिये हथियार भिजवाये, जिसके बाद पुलिस कान्हू सहित दस्ते के सात सदस्यों को साथ लेकर गांव आयी और उन्होंने वहां सरेंडर किया. कान्हू का सरेंडर इस क्षेत्र के नक्सलवाद इतिहास को बदलने में मील का पत्थर बनेगा.

बंगाल और झारखंड में नक्सलियों के सबसे बड़े नेता आकाश अभी झारखंड में छिपे हुए हैं. पुलिस की आगे की रणनीति क्या है?

आकाश पश्चिम बंगाल स्टेट कमेटी का सचिव है, उस पर एक करोड़ का इनाम है. यह सही है कि वह अभी बंगाल सीमा से सटे झारखंड में छिपा हुआ है. लेकिन वह बेहद कमजोर हो चुका है. आज उसके पास बमुश्किल 10 से 12 लोग हैं. पहले राहुल और फिर सचिन उसका साथ छोड़ चुका है. संभव है कि वह जल्द यह इलाका छोड़ सारंडा में शरण ले ले.

आकाश के सरेंडर के लिए कोई पहल?

हमारी ओर से तो नहीं, संभव है बंगाल पुलिस उसके संपर्क में हो. वह डायमंड हार्बर का रहनेवाला है. उसका ज्यादातर कार्यक्षेत्र बंगाल रहा है, सरेंडर करेगा भी तो वहीं करेगा.

क्या बंगाल की सरेंडर पॉलिसी झारखंड की सरेंडर पॉलिसी से ज्यादा आकर्षक है, इसलिए यहां के नक्सली भी बंगाल जाकर सरेंडर कर रहे हैं?

हमारा पूरा फोकस नक्सलवाद के सफाये पर है. नक्सली झारखंड में सरेंडर करें या बंगाल में कोई फर्क नहीं पड़ता. वैसे हम सरेंडर करनेवाले नक्सलियों और उसके पुनर्वास का पूरा ध्यान रख रहे हैं. ऐसे मामले जिनमें साक्ष्य नहीं हैं, उनमें सहानुभूति पूर्वक विचार कर रहे हैं और अन्य मामलों की सुनवाई जल्द से जल्द पूरी हो इसके लिए भी प्रयासरत हैं. साथ ही सरेंडर पॉलिसी के तहत मिलने वाले सभी लाभ दिये जा रहे हैं.

अनूप टी मैथ्यू

सीिनयर एसपी, पू सिंहभूम

माओवादियों के पास विजन नहीं

असीम बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में डेबरा-गोपीवल्लभपुर इलाके में सशस्त्र आंदोलन शुरू किया था, लेकिन असफल रहे. वर्ष 1972-78 तक कैद में रहे. उसके बाद श्री चटर्जी ने कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी लीग ऑफ इंडिया का गठन किया था, लेकिन बाद में राजनीति की मुख्य धारा में शामिल हो गये.

वर्तमान में माओवादी आंदोलन को किस रूप में देखते हैं?

माओवादी आंदोलन पूरी तरह दिवालिया हो चुका है. माओवादी विचाराधारा से जुड़े लोग आम लोगों से पूरी तरह कट चुके हैं. माओवादियों ने जंगलों में अपना विस्तार किया, लेकिन अब जंगल के साथ-साथ ग्रामीण लोगों से वे पूरी तरह से कट गये हैं. वास्तव में वे कभी भी लोगों के मन को नहीं जीत पाये हैं. उन लोगों ने आतंकित कर लोगों का समर्थन हासिल किया है. किसी भी विचाराधारा के विस्तार के लिए एक विजन की जरूरत होती है, लेकिन माओवादियों के समक्ष हिंसा के अतिरिक्त कोई विजन नहीं है. न तो सामाजिक सुधार या न ही राजनीतिक उद्देश्य है. उनका संघर्ष केवल एक गुरिल्ला युद्ध में तब्दील हो चुका है. हाल के दिनों में पश्चिम बंगाल में माओवादियों के आत्मसमर्पण की घटनाएं बढ़ी हैं ? इसके पीछे क्या कारण हैं?

बंगाल में 34 वर्षों तक वाम मोरचा की सरकार थी. हालांकि, वह वामपंथी सरकार थी, लेकिन 2000 के बाद वामपंथी नीतियों के प्रति लोगों में असंतोष बढ़ा. किशन जी और छत्रधर महतो जैसे माओवादी नेताओं का प्रभाव बढ़ा. पश्चिम बंगाल के झारखंड से सटे जिलों पश्चिम मेदिनीपुर, पुरुलिया व बांकुड़ा में माओवादियों ने अपना प्रभाव बढ़ाया और कई हिंसक वारदातों को भी अंजाम दिया. तत्कालीन विरोधी दल व वर्तमान में सत्तारूढ़ दल तृणमूल कांग्रेस का प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से माओवादियों को समर्थन भी मिला, लेकिन जब तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी, तो बंगाल से मिलनेवाला राजनीतिक समर्थन पूरी तरह बंद हो गया. केंद्रीय बलों की उपस्थिति से सप्लाई लाइन बंद हो गयी. नयी सरकार में ममता बनर्जी के नेतृत्व में पुलिस और प्रशासन से भी दबाव बनने लगा. कुछ तो मार डाले गये तथा बाकी को यह मैसेज दिया गया है कि सरकार का उनके प्रति रवैया सहानुभूति पूर्ण है. पुनर्वास के तहत पैकेज भी है. वे मुख्य धारा में लौट आयें, अन्यथा किशजी का उदाहरण सामने है. ऐसा भी नहीं है, केवल अभी ही माओवादी अात्मसमर्पण कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश में रामा राव के समय भी माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया था.

आत्मसमर्पण के पीछे क्या सरकारी दबाव काम कर रहा है?

हां, पुलिस और प्रशासन का तो दबाव है ही, लेकिन मूल कारण है कि माओवादी अपनी जड़ से कटते जा रहे हैं. लोगों की जरूरतों और मांगों को उठाने में उनकी भूमिका नगण्य है. वे एक आतंक के रूप में परिणत हो गये हैं. झारखंड में भूअधिग्रहण को लेकर अांदोलन चल रहा है,

लेकिन माओवादी न तो वहां के मूल निवासियों के साथ हैं और न ही कबिलाइयों के ही साथ. ऐसी स्थिति में उनकी भूमिका दिनोंदिन नगण्य होती जा रही है.

असीम बनर्जी

पूर्व सहयोगी, चारू मजूमदार

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