डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
अंगरेजी न जानने के कारण या ऐसे ही किसी अन्य उदात्त कारण से अंगरेजी का घोर विरोध करने और उसे एक उचित-सा लगनेवाला आधार प्रदान करने के लिए खुद को हिंदी का घनघोर समर्थक दिखानेवाले महानुभाव जानते भी नहीं होंगे कि ये दोनों भाषाएं एक ही परिवार से ताल्लुक रखती हैं और इसलिए तमाम परिवार-सम्मत वैर-विरोध के बावजूद इनमें काफी भाईचारा भी देखने को मिलता है.
हालांकि, भाषाओं के बीच के उस भाईचारे को भाईचारा कहा भी जा सकता है या नहीं, और कहीं उसे भाईचारे के बजाय बहनचारा तो नहीं कहा जाना चाहिए, इसमें मतभेद हो सकता है. बहरहाल, भाषाओं के इस भाईचारे या बहनचारे, जो भी उचित हो, की गवाही ऐसे कई शब्द देते हैं, जो दोनों में समान रूप से, समान या मिलते-जुलते अर्थ में पाये जाते हैं.
‘वार’ मुझे ऐसा ही शब्द लगता है. अंगरेजी में उसका अर्थ युद्ध है, तो हिंदी में हमला, जो एक ही कार्य की दो स्थितियां हैं. हमला होने पर युद्ध हो सकता है और युद्ध होने पर हमला. हिंदी का ‘वार’ अंगरेजी के ‘वार’ के लिए संभावनाओं के द्वार खोल देता है, तो अंगरेजी का ‘वार’ हिंदी के ‘वार’ को अपरिहार्य बना देता है. इतना भाईचारा तो भारत-पाकिस्तान की सरकारों में भी नहीं है, जो एक-दूसरे को उनके असली और ज्वलंत मुद्दों को पीछे धकियाने में मदद करने के लिए एक-दूसरे के यहां आतंकवादी हमले या सर्जिकल स्ट्राइक वगैरह करते-करवाते रहते हैं.
लेकिन, ‘दो फूल साथ फूले, किस्मत जुदा-जुदा है; नौशे के एक सर पे, इक कब्र पर चढ़ा है’ की भावना को चरितार्थ करते हुए हिंदी के ‘वार’ ने अंगरेजों के भारत छोड़ने के बाद उन्नति के सोपान तय करते हुए अंगरेजी के ‘वार’ को बहुत पीछे छोड़ दिया है. इस दौरान न केवल विभिन्न समुदायों के लोगों ने एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए इस ‘वार’ का सहारा लिया, बल्कि उसे नये-नये रूप और आयाम भी प्रदान किये. अंगरेजों ने तो सिर्फ ‘वार’ ही किया, वह भी दूसरों से, लेकिन हम हिंदुस्तानियों ने तो आपस में ही पलट-पलट कर वार किया और इस तरह ‘वार’ की एक नयी किस्म ‘पलटवार’ ईजाद कर डाली.
जैसा कि नाम से ही जाहिर है, ‘पलटवार’ में वारियर यानी योद्धा विरोधी के वार का मुकाबला अपने पलट कर किये गये वार से इस तरह करता है कि दुश्मन धराशायी हो जाता है.
सांप के बारे में कहा जाता है कि वह अपने शिकार को काटने के बाद उलट जाता है, ताकि जहर उसके शरीर में उड़ेल सके. पलटवार में आदमी भी कुछ-कुछ ऐसा ही काम करते हैं, इस अंतर के साथ कि वे पहले पलटते हैं, फिर काटते और जहर उगलते हैं. अज्ञेय ने जो कभी सांप से पूछा था, वही आज आदमी को अपनी जुबान से जहर उगलते देख सांप उससे पूछता है कि मनुष्य, तुम सभ्य तो हुए नहीं न होगे, जंगल में बसना भी तुम्हें आया, फिर कहां सीखा डसना, विष कहां पाया?
नेताओं ने अपनी जहरबुझी जुबान से पलटवार की इस कला को सर्वाधिक ऊंचाई प्रदान की है. वे विरोधी को विरोधी कम, दुश्मन ज्यादा मान कर चलते हैं और वार-पलटवार दोनों में मर्यादा का कोई ध्यान नहीं रखते. भगवान राम अगर मर्यादा-पुरुषोत्तम थे, तो नेता अमर्यादा-पुरुषोत्तम हैं, हालांकि पुरुषोत्तम कहना केवल प्रतीकात्मक है और उसमें नारियां भी शामिल हैं.
चुनाव में तो वे सब अपनी पर आ जाते हैं और ‘तुम्हारे कब्रिस्तान हमारे श्मशानों से ज्यादा क्यों’ जैसे सवाल उठा कर पूरे देश को ही श्मशान में बदलने को आतुर हो, मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में यह कहते प्रतीत होते हैं- संदेश नहीं मैं यहां नरक का लाया, इस धरती को ही नरक बनाने आया.