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विषाक्त हवा में घुटता दम

वर्षों से बरकरार वायु प्रदूषण की चुनौती अब मौत बन कर मंडरा रही है. भारत जैसे विकासशील देश यदि समय रहते नहीं चेते, तो जहरीली हवा से होनेवाली मौतों का मौजूदा 10 लाख सालाना का आंकड़ा कहां जाकर रुकेगा, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है. जीवन के लिए अभिशाप बने अतिसूक्ष्म कणों जैसे पीएम-2.5 (पार्टिकुलेट […]

वर्षों से बरकरार वायु प्रदूषण की चुनौती अब मौत बन कर मंडरा रही है. भारत जैसे विकासशील देश यदि समय रहते नहीं चेते, तो जहरीली हवा से होनेवाली मौतों का मौजूदा 10 लाख सालाना का आंकड़ा कहां जाकर रुकेगा, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है.

जीवन के लिए अभिशाप बने अतिसूक्ष्म कणों जैसे पीएम-2.5 (पार्टिकुलेट मैटर) से होनेवाली मौतों की संख्या को चीन ने काफी हद तक स्थिर कर लिया है, लेकिन भारत में यह संख्या लगातार बढ़ रही है. अमेरिकी संस्था हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट द्वारा जारी ‘स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर-2017’ की रिपोर्ट बताती है कि पीएम-2.5 की वजह से 2015 में दुनिया में 42 लाख असामयिक मौतें हुईं, जिसमें आधे से अधिक भारत और चीन में दर्ज की गयीं.

वैसे तो समूचा एशियाई क्षेत्र ही चिंताजनक वायु प्रदूषण के घेरे में है, पर चीन और उससे भी कहीं ज्यादा भारत की स्थिति बदतर है. वर्ष 1990 से पीएम-2.5 से होनेवाली असामयिक मौतें चीन में 17.22 प्रतिशत बढ़ी हैं, वहीं भारत में यह दर 48 प्रतिशत है. बड़ी तेजी से बढ़ रही यह समस्या नीतिगत पहलों पर बड़े सवाल खड़े करती है. वाहनों, डीजल इंजन, उद्योगों, ईंधनों को जलाने से उठनेवाले धुंओं में घुले ये अतिसूक्ष्म कण रक्त में घुल कर फेफड़ों तक पहुंचते हैं और हृदयाघात, अस्थमा, निमोनिया आदि बीमारियों का कारण बनते हैं.

दुनिया की 92 प्रतिशत आबादी दूषित वायु क्षेत्र में निवास करती है, लेकिन भारत में स्थिति स्वास्थ्य आपात की है. ओजोन और पार्टिकुलेट प्रदूषण से लाखों लोग असामयिक मौतों का शिकार और बीमार हो रहे हैं. रासायनिक रूप से अतिसक्रिय गैस ओजोन की वजह से जहां सालाना 1,07,800 मौतें होती हैं, वहीं पीएम-2.5 से मरनेवालों की संख्या 10,90,400 हो चुकी है. भारत में ओजोन से होनेवाली मौतें पाकिस्तान से 21 गुना और बांग्लादेश से 13 गुना अधिक हैं. वायु प्रदूषण को रोकने और सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए एकमात्र उपाय पर्यावरण नियमन की दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है.

शहरीकरण की प्रक्रिया तथा उद्योगों और वाहनों की बढ़ती संख्या विकास के लिए जरूरी हैं, पर पर्यावरण और स्वास्थ्य रक्षा के समुचित आवरण के बिना ऐसा विकास अंततः विनाश की ओर ही ले जायेगा. जटिल होती इस चुनौती से निबटने के लिए जिम्मेवारियों के सतत निर्वाह की प्रतिबद्धता होनी चाहिए, जिससे स्वस्थ्य भारत के लिए एक प्रायोगिक हल निकल सके.

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