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आतंक पर अंकुश : हाफिज सईद पर कार्रवाई के मायने
आतंकी सरगना हाफिज सईद की नजरबंदी और उसके संगठन जमात-उद-दावा पर पाबंदी के जरिये पाकिस्तान यह संदेश देने की फिर कोशिश कर रहा है कि वह चरमपंथ और आतंकवाद से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है. पाकिस्तानी सेना का दावा है कि यह फैसला राष्ट्रीय हित और सुरक्षा के नजरिये से उठाया गया है, वहीं यह […]
आतंकी सरगना हाफिज सईद की नजरबंदी और उसके संगठन जमात-उद-दावा पर पाबंदी के जरिये पाकिस्तान यह संदेश देने की फिर कोशिश कर रहा है कि वह चरमपंथ और आतंकवाद से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है. पाकिस्तानी सेना का दावा है कि यह फैसला राष्ट्रीय हित और सुरक्षा के नजरिये से उठाया गया है, वहीं यह भी कयास लगाया जा रहा है कि इसके पीछे अमेरिका और चीन का दबाव है.
पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी दिखावे की कार्रवाइयां पहले भी होती रही हैं, पर पाकिस्तान की धरती से भारत और अफगानिस्तान को अस्थिर करने की कोशिशें लगातार जारी रही हैं. हाफिज सईद और मसूद अजहर जैसे आतंकवादी सेना और सरकार की शह पर ही अभी तक सक्रिय हैं. इस मसले के विविध पहलुओं पर एक नजर आज के इन-डेप्थ में…
!!अजय साहनी, रक्षा विशेषज्ञ!!
आइएसआइ का हथियारहै हाफिज सईद
आतंक विरोधी मुहिम के तहत पिछले दिनों पाकिस्तान प्रशासन ने जिस तरह से हाफिज सईद को लाहौर में नजरबंद किया, वह सिर्फ पाकिस्तान का दिखावा मात्र है. आतंक के खिलाफ यह पाकिस्तान का कोई ठोस कदम नहीं है, बल्कि अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से पाकिस्तान में एक डर बन गया है कि पता नहीं ट्रंप कब कौन सा फैसला ले लें, जो पाकिस्तान के लिए ठीक नहीं होगा.
इस नजरिये से देखें, तो पाकिस्तान के इस कदम के दो मायने हैं- एक तो यह कि पाकिस्तान कड़े कदम उठा रहा है और दूसरा यह कि छिपे तौर पर पाकिस्तान का प्रशासन सईद को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचाना चाहता है.
पाकिस्तान में अधिकारों को लागू करनेवाले लोग ही जब हाफिज सईद जैसे लोगों की तरफदारी कर रहे हैं, तो फिर सवाल ही कहां बचता है कि पाकिस्तान आतंक के खिलाफ कुछ ठोस करना चाहता है.
दरअसल, इनके लिए सईद जैसे लोग हथियार की तरह हैं, जिन्हें ये समय-समय पर इस्तेमाल करते रहते हैं. ऐसे में यह उम्मीद करना बेमानी है कि पाकिस्तान आतंक को लेकर कोई ठोस कदम उठायेगा. दूसरी बात यह है कि जिस तरह से पाकिस्तानी सेना का समर्थन इन दहशतगर्दों को मिलता है, उससे यह साफ जाहिर है कि ये दहशतगर्द पाक सेना के लिए हथियार हैं. यह सारा खेल आइएसआइ के इशारे पर होता है, जो पाक सेना का एक यूनिट है. दहशतगर्द अपने मन से कोई काम नहीं करते, बल्कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख और उसके कोर कमांडर मिल कर रणनीति बनाते हैं, जिस पर आइएसआइ प्रमुख अमल करता है.
जहां तक हाफिज सईद के अपने संगठन जमात-उद-दावा का नाम बदल कर तहरीक आजादी जम्मू-कश्मीर रखने का सवाल है, तो ऐसे संगठनों के नाम बदलने भर से इनका काम नहीं बदल जाता.
इनका मूल स्वभाव जस का तस बना रहता है, क्योंकि इन संगठनों के संचालक नहीं बदलते. फिलहाल जमात-उद-दावा का एक खास नाम रखने के पीछे एक खास वजह है. हाफिज सईद यह दिखाना चाहता है कि वह कोई व्यापक स्तर पर बड़ा संगठन नहीं है, न ही कोई बड़ा इस्लामी संगठन है, बल्कि इस संगठन से वह यह दिखलाना चाहता है कि वह सिर्फ कश्मीर से संबंध रखता है और उसकी सारी मुहिम कश्मीर के लिए है.
पाकिस्तान में जो कुछ भी इन दिनों हो रहा है, वह अमेरिका में सत्ता परिवर्तन से घबरा कर ही किया जा रहा है, क्योंकि उसे दुनिया को यह दिखाना है कि वह ग्लोब इस्लाम या ग्लोबल जेहाद के लिए नहीं, बल्कि कश्मीर के लिए लड़ रहे हैं.
इसलिए संगठन का नाम किसी जेहादी या इस्लामी लड़ाई लड़नेवाले संगठन के नाम से नहीं, बल्कि कश्मीर के एक छोटे से खित्ते के लिए लड़नेवाले संगठन के तौर पर इसका नाम तहरीक आजादी जम्मू-कश्मीर रखा गया है. सईद की यह रणनीति है कि वह दुनिया को यह बताये कि उसका दुनिया के किसी और से लड़ाई नहीं है, बल्कि कश्मीर के लोगों की आजादी के लिए लड़ना ही उसका मकसद है.
पाक अधिकृत कश्मीर में इनकी गतिविधियों को लेकर भारत को सतर्क रहने की जरूरत है. पूरे दक्षिण एशिया में एक ही आतंकी संगठन है और वह है पाकिस्तान का आइएसआइ. बाकी सारे संगठन इसी आइएसआइ के छोटे-बड़े हथियार हैं. इसलिए भारत को आइएसआइ पर ऐसा दबाव बनाने की जरूरत है, ताकि वह कुछ कर ही नहीं पाये. तभी मुमकिन है कि दक्षिण एशिया में आतंकी गतिविधियां कम होंगी.
पाकिस्तानी अखबारों की प्रतिक्रिया
अभी यह कार्रवाई क्यों?
!!माइकल कुगेलमैन, डॉन!!
हाफिज सईद को नजरबंद क्यों किया गया, इससे बड़ा सवाल यह है कि अभी ऐसा क्यों किया गया. उसे 2008 के दिसंबर और 2009 के सितंबर में भी हिरासत में लिया गया था, पर बहुत जल्दी रिहाई भी हो गयी थी.
हाल के वर्षों में वह लाहौर में पूरी आजादी के साथ रह रहा है तथा पत्रकारों को बुलाता रहता है. पाकिस्तानी अखबार ‘द इंटरनेशनल न्यूज’ अमेरिकी दबाव की ओर संकेत किया है. सईद और उसके प्रवक्ता ने अजीब दावा करते हुए इस कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति ट्रंप और प्रधानमंत्री मोदी के अच्छे संबंधों को दोषी ठहराया है.
अमेरिका कई सालों से सईद पर कार्रवाई का दबाव डालता रहा है, पर उसे कामयाबी नहीं मिल सकी थी. ऐसे में यह मानना मुश्किल है कि अमेरिकी दबाव में नजरबंदी का फैसला लिया गया है, और खासकर तब दोनों देशों के संबंध खराब दौर में जाते हुए दिखते हैं. चीन के दबाव को भी बड़ा कारण माना जा रहा है, क्योंकि उसे अपने निवेश के सुरक्षा की चिंता है. बहरहाल, यह सवाल अब भी मौजूद है कि आखिर अभी यह कदम क्यों उठाया गया है.
अगर चीन के कहने पर सईद को हिरासत में लिया गया है, तो फिर ऐसा कुछ पहले क्यों नहीं किया गया? इसी बीच अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने आप्रवासियों के लिए आदेश दिया है. हालांकि, इसमें संदेह है कि ट्रंप ने पाकिस्तान पर कोई दबाव डाला है, पर यह संभव है कि ट्रंप आगमन को देखते हुए सईद पर कार्रवाई की गयी है. नजरबंदी पाकिस्तान द्वारा यह दिखाने की कोशिश है कि वह आतंक के खिलाफ अमेरिका के साथ है. ऐसा कर वह आप्रवासी प्रतिबंध की सूची में आने से बचने का प्रयास भी कर रहा है. खैर, ये सभी कयास बेमतलब साबित हो सकते हैं और सईद को कभी भी रिहा किया जा सकता है.
जमात में विचारों का टोटा
!!संपादकीय, द नेशन !!
ऐसा लगता है कि जमात-उद-दावा के पास विचारों का अकाल पड़ गया है. हाफिज सईद की गिरफ्तारी के बाद पहले की ही तरह विरोध-प्रदर्शन हुए, पर उसमें भीड़ अपेक्षा से बहुत कम रही. इस असफलता के बाद संगठन ने फिर अपनी पुरानी चाल चली तथा जमात और फलाहे-इंसानियत का नाम बदलकर तहरीके-आजादी-ए-जम्मू-कश्मीर कर दिया. नाम बदलने से सरकार उसे भूल जायेगी, यह मानना सही नहीं होगा. अगर ऐसा होता है, तो फिर पाकिस्तान को सुरक्षा देने के सरकारी दावे की आलोचना सही साबित होंगी. यह भी सच है कि कश्मीर का नाम जोड़ कर जमात यह जताना चाहता है कि लोग समझें कि कश्मीर के लिए काम करनेवाली संस्था के खिलाफ सरकार कार्रवाई कर रही है. यह जमात समर्थकों की असंवेदनशीलता है. इससे कश्मीर के संघर्ष का अपमान होता है, और इससे सिर्फ सईद और जमात की केंद्र में स्थापित दिखते हैं, न कि यह कि पाकिस्तान या कश्मीर के क्या सचमुच में सही है.
नॉन-स्टेट एक्टरों पर लगाम जरूरी
!!बाबर सत्तार, द न्यूज इंटरनेशनल!!
पाकिस्तान हमेशा से यह कहता रहा है कि हाफिज सईद, मसूद अजहर जैसे लोगों के बारे में दुनिया गलत समझती है. ये लोग भारतीय साजिश के शिकार हैं और हम उन्हें सिर्फ अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही के लिए हिरासत में लेते हैं. लेकिन, चीन को छोड़ कर कोई भी महत्वपूर्ण देश हम पर भरोसा नहीं करता है.
संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकी घोषित अपने देश के जेहादियों की सरकारी पक्षधरता के चलते दुनिया यही मानती है कि पाकिस्तान भी आतंक में शामिल है. ओसामा बिन लादेन की भूल के बाद हमने अपनी अज्ञानता जतायी, और हम दुनिया को यह समझाने में कामयाब हो गये कि हम उसमें शामिल नहीं थे, बल्कि हम अक्षम थे. क्या सईद और अजहर जैसों के मामले में भी हम ऐसी ही अक्षमता का दावा कर सकते हैं? क्या ये लोग इतने समय से सक्रिय रह सकते थे, अगर उन्हें सरकार का समर्थन नहीं मिला होता?
कब तक हम जेहादियों को पकड़ने और छोड़ने का खेल खेलते रहेंगे? अगर दो दशकों की जांच के बाद सरकार को लगता है कि इन लोगों पर लगे आरोप निराधार हैं, तो फिर दुनिया को भरोसा दिलाने में सफलता क्यों नहीं मिल रही है? अगर वे निर्दोष नहीं हैं, तो फिर पाकिस्तान के भीतर ये लोग क्यों मौजूद हैं? क्या ये लोग अभी भी राजकीय सुरक्षा नीति के हिस्सा हैं? क्या राज्य को यह लगता है कि वैचारिकता से प्रेरित नॉन-स्टेट एक्टरों के खतरे के खिलाफ बनी ठोस वैश्विक आम सहमति समय के साथ विलीन हो जायेगी और उनका उपयोग एक बार फिर से वैध हो जायेगा?
आतंकवाद का सरगना हाफिज सईद
अमेरिका और भारत द्वारा 2008 के मुंबई हमले का मुख्य साजिशकर्ता माना जानेवाला हाफिज सईद पाकिस्तान के सबसे कुख्यात चरमपंथियों में से एक है. उसने 1990 के दशक में लश्करे-तय्यबा नामक उग्रवादी गिरोह बनाया था. इस पर पाबंदी के बाद उसने 2002 में अपने पुराने संगठन जमात-उद-दावा को फिर से सक्रिय कर दिया था.
जमात की स्थापना अफगानिस्तान में चल रहे तथाकथित जेहाद के समर्थन में सईद ने 1985 में की थी. अब्दुल्लाह उज्जम नामक फिलीस्तीनी विद्वान और अफगानिस्तान में कथित जेहाद का शुरुआती अरबी विचारक इस संगठन का सह-संस्थापक था. पर्यवेक्षकों का मानना है कि कश्मीर में पाकिस्तान-परस्त समूहों में लश्कर का वर्चस्व इसलिए बढ़ा, क्योंकि पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ से सईद के करीबी संबंध रहे हैं. भारत का आरोप है कि सईद और उसका संगठन अनेक आतंकी हमलों के लिए जिम्मेवार हैं. द्विपक्षीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत ने कई बार पाकिस्तान में सईद को मिली पूरी छूट पर सवाल खड़ा किया है.
पाकिस्तान का कहना है कि सईद को गिरफ्तार करने और उस पर मुकदमा चलाने के लिए कोई सबूत मौजूद नहीं हैं. भारतीय संसद पर 2001 में हमले के बाद उसे तीन महीनों के लिए हिरासत में रखा गया था. अगस्त, 2006 में उसकी गतिविधियों के दूसरी सरकारों के साथ संबंधों पर प्रतिकूल असर पड़ने के आरोप में फिर गिरफ्तार किया गया था, पर उसी साल दिसंबर में उसे रिहाई मिल गयी थी.
नवंबर, 2008 के मुंबई हमलों के बाद उसे घर में नजरबंद किया गया था. बाद में पाकिस्तान सरकार ने माना था कि उसकी धरती पर मुंबई हमलों की साजिश का एक हिस्सा रचा गया था और इसमें लश्कर की भूमिका थी. पर सईद के खिलाफ कोई आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया गया और उसे छह माह के बाद खुला छोड़ दिया गया. जब 2002 में अमेरिका ने लश्कर को आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल किया, तब पाकिस्तान ने भी पाबंदी लगायी थी.
न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद पाकिस्तान में कई संगठन प्रतिबंधित किये गये, पर वे सभी दूसरे नामों से आज भी चरमपंथी भावनाएं भड़काने और हिंसा फैलाने के काम में लगे हुए हैं. वर्ष 2015 में पाकिस्तान ने जमात को निगरानी सूची में डाल तो दिया था, पर पाबंदी नहीं लगायी थी. हाफिज के संबंध फलाहे-इंसानियत नामक संगठन से भी हैं, जिसे अमेरिका ने प्रतिबंधित किया हुआ है.
पाकिस्तान और आतंक का समर्थन
वाशिंगटन में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत को अस्थिर करने और कश्मीर विवाद पर अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता कराने के लिए पाकिस्तानी सेना ने भारत में हमला करनेवाले आतंकी समूहों का साथ देना जारी रखा है. ‘ए न्यू यूएस एप्रोच टु पाकिस्तान : एनफाेर्सिंग एंड कंडिशंस विदाउट कटिंग टाइज’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट को दक्षिण एशिया के जाने-माने विशेषज्ञों के समूह ने तैयार किया है.
इनमें हेरिटेज फाउंडेशन की लिजा कर्टिस और हडसन इंस्टीट्यूट के हुसैन हक्कानी (हक्कानी अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत रह चुके हैं) के साथ नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर कर्नल जॉन गिल, न्यू अमेरिका के अनिश गोयल, ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के ब्रुस रीडल, सेंटर फॉर स्ट्रेटजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज के डेविड एस सेडनी और मिडिल इस्ट इंस्टीट्यूट के मार्विन वेइनबौम भी शामिल हैं. ये विशेषज्ञ 10 प्रमुख अमेरिकी थिंक टैंक संगठनों के सदस्य हैं. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारतीय और पाकिस्तानी सरकार द्वारा शांति प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए शुरू किये गये प्रयासों को पाकिस्तानी सेना ने अक्सर ही नाकाम किया है, खासकर 1999 में हुए कारगिल युद्ध के दौरान.
रिपोर्ट यह भी कहती है कि पाकिस्तान, भारत को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है और इसी कारण वह अपनी सुरक्षा और विदेश नीति के हिस्से के तहत भारत के खिलाफ आतंकवादी समूहों का इस्तेमाल करता है.
अफगान और गंठबंधन सेना से लड़नेवाले कुछ लड़ाके समूहों को समर्थन देने की अपनी नीति में पाकिस्तान ने कभी भी बदलाव नहीं किया. यही वजह है कि अफगानिस्तान, जो कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के लिए एक सुरक्षित पनाहगार है, की वर्तमान स्थिति में बदलना लाना अमेरिका के लिए मुश्किल साबित हो रहा है. अमेरिका ने स्पष्ट तौर पर यह समझ लिया है कि पाकिस्तान द्वारा अफगान तालिबान, हक्कानी नेटवर्क और दूसरे आतंकवादी समूहों को मदद देना ही अफगानिस्तान की सुरक्षा को चुनाती देनेवाला एकमात्र कारण नहीं है.
बल्कि, पाकिस्तान को सुरक्षित पनाहगार मान कर यहां रहनेवाले प्रमुख उग्रवादी समूह भी इसके कारण हैं. इस रिपोर्ट के जरिये लिजा कर्टिस व हुसैन हक्कानी कहते हैं कि पाकिस्तान असंयत रूप से परमाणु अस्त्रों, खासकर सामरिक परमाणु हथियारों और लंबी दूरी तक मार करनेवाली मिसाइलों का विस्तार कर रहा है, उसका यह कदम भी चिंता का एक कारण है, विशेष तौर से भारत के लिए.
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