आत्मप्रशंसा अहंकार का बोधक माना जाता है. लेकिन, आत्मप्रशंसा जब झूठा प्रदर्शन बनता है, तभी उसे अहंकार माना जाता है. अगर मनुष्य प्रतिदिन अपनी आत्मप्रशंसा में यह कहे कि मैं एक अच्छा आदमी हूं, नैतिक जीवन जीता हूं, क्रोध नहीं करता, दूसरे की निंदा नहीं करता हूं, मैं एक सुंदर व्यक्ति हूं, मेरा शरीर काफी स्वस्थ है, मेरी आंखें सुंदर हैं.
ऐसा अगर बार-बार संकल्पपूर्वक कहा जाये, तो मन के विचारों से आप वैसा ही बनने लगेंगे. दूसरी ओर, अगर अपने बारे में बुरे विचार किये जायें, हमेशा हीन भावना के विचार किये जायें, तो जीवन में अंधकार बढ़ जाता है. आप प्रयोग करके देखें कि किसी व्यक्ति को दो-चार लोग प्रतिदिन कहना शुरू करें कि आप बूढ़े हो रहे हैं, बीमार लगते हैं, आपको क्या हो गया है, आप तो गलते जा रहे हैं, लगता है आप नहीं बचेंगे. ऐसा अगर किसी को बार-बार कहा जाये, तो पांच दस दिन में वह बीमार हो जायेगा. क्योंकि, वह व्यक्ति लोगों के विचार से आहत हो रहा है. इसलिए कभी किसी से यह नहीं कहना चाहिए कि आप रिटायर्ड कर गये, बूढ़े हो गये हैं, आप तो बेकार हो गये हैं, ऐसे विचारों से मनुष्य को गहरा आघात लगता है.
इसीलिए आत्म कल्याण केंद्र में लोगों को हंसने, प्रसन्न रहने और अच्छे विचारों से हमेशा प्रभावित रहने का प्रशिक्षण दिया जाता है. मनुष्य अगर स्वस्थ और प्रसन्न रहे, तो फिर कभी मोक्ष की बात कर लेगा. लेकिन, महत्वपूर्ण है जीवन को महोत्सव कैसे बनाया जाये. जीवन के फूलों की बगिया को सजायें. हमारा जीवन दुख का घर न बन सके, इससे बचना चाहिए. दुख और सुख तो हवा का झोंका है, दोनों जीवन में आते हैं. लेकिन, जो लोग दुख और चिंता को पकड़ कर बैठ जाते हैं, वे हमेशा दुखी रहते हैं.
इस दुख को धक्का मार कर बाहर निकालना चाहिए. यह तभी संभव हो सकता है, जब हम अपने मन में अच्छे विचारों को रखें और बुरे विचारों को बाहर निकालें. आत्मप्रशंसा जिजीविषा है, जीवन से प्रेम करने की विधि है. जीवन में रस पैदा करना बहुत आवश्यक है. कुछ लोग जीवन से उदास होकर जीने लगते हैं. वैसे लोग अच्छे कपड़े नहीं पहनते, अच्छा भोजन नहीं करते, हमेशा दुखी रहते हैं, उनकी जीवनी शक्ति धीरे-धीरे नष्ट होने लगती है.
– आचार्य सुदर्शन