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अस्ताना बैठक की मृगमरीचिका

पुष्परंजन ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक कजाकस्तान की राजधानी अस्ताना में सीरिया शांति बैठक बीते 24 जनवरी को समाप्त हो गयी. मई और अक्तूबर 2015 में दो बैठकों के बाद, अस्ताना में तीसरी बार ऐसी बैठक आहूत की गयी थी. कजाकस्तान के बारे में धारणा है कि यह तटस्थ राष्ट्र है. अस्ताना बैठक की […]

पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक
कजाकस्तान की राजधानी अस्ताना में सीरिया शांति बैठक बीते 24 जनवरी को समाप्त हो गयी. मई और अक्तूबर 2015 में दो बैठकों के बाद, अस्ताना में तीसरी बार ऐसी बैठक आहूत की गयी थी. कजाकस्तान के बारे में धारणा है कि यह तटस्थ राष्ट्र है. अस्ताना बैठक की भूमिका 28 दिसंबर, 2016 को बननी शुरू हो गयी थी, जिसके लिए रूस, तुर्की और ईरान जमीन तैयार कर रहे थे. 30 दिसंबर, 2016 की मध्य रात्रि को एक ‘मिनी बैठक’ में इसकी घोषणा हुई कि सीरिया के छह विद्रोही गुटों ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं. इनमें शाम लीजन, अहरार अल शाम, जैश अल इस्लाम, फ्री इदलिव आर्मी, लेवेंट फ्रंट, और जबहत अहल अल शाम जैसे गुटों के नाम थे. मगर, बाद में अहरार अल इस्लाम के प्रवक्ता ने खंडन किया कि उनका संगठन दस्तखत करनेवालों में शामिल नहीं है.
अस्ताना में 30 दिसंबर को हुई बातचीत में दहशत के लिए सबसे अधिक जिम्मेवार ‘आइसिस’ को आमंत्रित नहीं किया गया था. सीरियन डेमोक्रेटिक कौंसिल, अल नुसरा फ्रंट, आइपीजी के प्रतिनिधि भी बातचीत के लिए नहीं बुलाये गये. समझ से बाहर है कि आधे विद्रोही गुटों को दरकिनार करके शांति बहाली का कौन सा फाॅर्मूला रूस और तुर्की ढूंढ रहे हैं. 18 दिसंबर, 2015 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने प्रस्ताव रखा था कि सीरिया में तत्काल युद्ध विराम हो और इसके राजनीतिक रास्ते निकाले जायें. ‘यूएन सिक्योरिटी कौंसिल रेजोल्यूशन- 2254’ में यह भी तय हुआ कि रूस, तुर्की तथा ईरान सभी विद्रोही गुटों के साथ कजाकस्तान में 24-25 जनवरी, 2017 को बात करेंगे. मगर, अफसोस कि अस्ताना बैठक में सभी गुटों के प्रतिनिधि नहीं दिखे.
अस्ताना बैठक में बातें कम, विवाद ज्यादा हुआ. अलग-अलग गुटों के विरोधाभासी बयानों से पूरे दो दिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया ‘कंफ्यूज्ड’ था कि शांति बहाली के किस फाॅर्मूले पर आम सहमति हुई है. अस्ताना में अंततः यही तय हुआ कि ‘संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव संख्या-2254’ के अनुपालन की मॉनिटरिंग की जायेगी.
18 माह के भीतर संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में सीरिया में आम चुनाव होगा. दिक्कत यह है कि सीरिया में बने शांति के रोडमैप के रास्ते अत्यंत पथरीले और उबड़-खाबड़ हैं. मसलन, सीरियाई सिविल वार के लिए जिम्मेवार ‘अल नुसरा फ्रंट’ अब भी संयुक्त राष्ट्र अतिवादी सूची में है. अल नुसरा फ्रंट कभी अल-कायदा से जुड़ा था और बाल अतिवादियों की बहाली के लिए बदनाम था. इन्हें राजनीति की मुख्य धारा से दूर रखा जा रहा है. इसके नेता अबू मोहम्मद अल जुलानी को अल-कायदा से तोड़ने की कोशिश कतर व दूसरे गल्फ देशों ने की थी, पर बात बनी नहीं.
अल नुसरा फ्रंट के नेता अबू मोहम्मद अल जुलानी ने घोषणा की है कि ‘जबात फतेह अल शाम’ उसके फ्रंट का नया नाम होगा. शायद, इसकी वजह यह हो सकती है कि इस नये नाम से अल नुसरा फ्रंट आम चुनाव में हिस्सा ले. आइसिस का एक गुट जो अमन चाहता है, उसे तोड़ने के गंभीर प्रयास नहीं किये जा रहे हैं. उसकी एक और वजह 10 सितंबर, 2016 की सीज फायर डील थी, जिसमें रूस और अमेरिका समर्थक सीरियाई मुख्यधारा के विद्रोही गुटों ने तय किया था कि ‘जबात फतेह अल शाम’ और आइसिस पर हमले लगातार किये जायेंगे.
सीरिया में शांति अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती है. कोफी अन्नान और बान की मून जैसे दो काबिल संयुक्त राष्ट्र महासचिव भी सीरिया समस्या के आगे असहाय से हो गये थे. साल 2011-12 में सीरिया में शांति के लिए सबसे पहला प्रयास अरब लीग ने किया था. साल 2012 में रूस इसमें आगे बढ़ा. उसी साल फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति निकोलस सार्कोजी ने ‘फ्रेंड्स ऑफ सीरिया ग्रुप’ बनाया. जेनेवा में सीरियाई शांति के लिए तीन बैठकें हो चुकी हैं.
2015 में रियाद सम्मेलन में सीरिया के 34 विपक्षी गुटों को बुलाया गया था. 2015 में ही अस्ताना शांति वार्ता, फोर कमेटी इनीशिएटिव, जुबादानी युद्ध विराम समझौता, और विएना प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया, मगर कोई हल नहीं निकला. सबसे अधिक शांति प्रयास 2016 में हुए हैं. पिछले साल दुनिया के छह ठिकानों पर सीरिया से संबंधित पक्षों को मुसलसल बातचीत की मेज पर आमंत्रित किया गया.
रूस, इस पूरे मामले में लीड लेना चाहता है. उसकी मुख्य वजह सीरियाई बंदरगाह शहर तारतुस में रूसी नौसैनिक अड्डा है. भूमध्यसागर में रूस का यह अकेला नौसैनिक अड्डा है, जिससे नाराज अमेरिका और उसके मित्र देश राष्ट्रपति बशर अल-असद को सत्ता से उतारने की शपथ ले चुके थे.
इस समय तुर्की और ईरान से पुतिन की गहरी छन रही है. पक्का है कि ट्रंप की वजह से पुतिन को और भी ‘फ्री कार्ड’ खेलने का अवसर मिलेगा. ट्रंप ने शपथ के दिन ही स्पष्ट कर दिया था कि अमेरिका युद्ध में अब और पैसे बरबाद नहीं करेगा. तो क्या चुनाव के जरिये बशर अल असद को बलि का बकरा बनाने के वास्ते पुतिन भी तैयार हैं?

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