डिजिटल मीडिया और टेक्नोलॉजी हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुके हैं. साइबर तकनीकों का जोखिम इस तरह बढ़ चुका है कि जहां एक ओर, इनसान अपनी स्वाभाविकता खो रहा है, वहीं दूसरी ओर, सोशल मीडिया के संजाल में उलझे किशोरों द्वारा आंकड़े व तसवीरें ऑनलाइन साझा करने से उनकी निजता के खोने का जोखिम बढ़ रहा है़ बच्चे ही नहीं, उनके अभिभावक भी इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे हैं. डिजिटल मीडिया और तकनीकों से जुड़ी खासकर बच्चों के संदर्भ में क्या हैं चिंताएं और आशंकाएं, साथ ही सोशल मीडिया के अन्य पहलुओं पर केंद्रित है आज का साइंस टेक्नोलॉजी पेज …
– कन्हैया झा
मौ जूदा दौर में हम डिजिटल मीडिया और टेक्नोलॉजी के नवजागरण युग में रह रहे हैं, जो हमारी जिंदगी को अनेक तरीके से बदल रहा है. दुनिया की आबादी का एक बड़ा और उभरता हुआ हिस्सा ‘हाइपरकनेक्टेड’ डिजिटल दुनिया में तल्लीन हो चुका है, जिसने हमारे संवाद और मिलने-जुलने के तरीकों को बदल दिया है. जिस तरह से ऑनलाइन व्यक्तिगत आंकड़े सृजित, एकत्रित और विश्लेषित किये जा रहे हैं व उनकी निगरानी की जा रही है, यूजर अक्सर उनके प्रति जागरूक नहीं रह पाता या चीजें उसके नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं. बड़ी चिंता यह है कि आम इनसान भविष्य में इससे जुड़े किसी संभावित नुकसान का आकलन नहीं कर पा रहा है और न तो वह संबंधित चुनौतियों को समझ पा रहा है.
दुनियाभर में 6,000 से ज्यादा डिजिटल मीडिया यूजर्स से किये गये हालिया सर्वेक्षण में ‘वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम’ ने पाया कि प्रतिक्रिया देनेवालों में से 52 से 71 फीसदी तक का मानना है कि ऑनलाइन माध्यम से साझा किये जानेवाले व्यक्तिगत आंकड़ों को आइसीटी (इंफोर्मेशन कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी) कंपनियां और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म्स आखिरी-इस्तेमालकर्ता तक पर्याप्त सुरक्षा के साधन या नियंत्रण नहीं मुहैया कराती हैं. निजता के हनन और आंकड़ों के लीक होने के अनगिनत मामले सामने आये हैं और इस तरह से इस उद्योग के प्रति लाेगों की अवधारणा बदल रही है. यूजर्स के व्यक्तिगत आंकड़ों को समुचित तरीके से रेगुलेट करने और आंकड़ों की सुरक्षा के लिए मजबूत मानकों को विकसित करने के लिए सरकारों काे भी संघर्ष करना पड़ रहा है. नतीजन, ढुलमुल रवैया देखते हुए डिजिटल-मीडिया संबंधी उद्योगों और सरकार के प्रति जनता का भरोसा कम होता जा रहा है. इस समस्या का समाधान उच्च प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, ताकि यह उद्योग आगे बढ़ता रहे और दीर्घकाल के लिए डिजिटल इकॉनोमी विकास की आेर अग्रसर रहे. इस बारे में हम सभी को सोचना होगा कि भरोसे के इस गैप को कैसे खत्म किया जा सकता है?
पब्लिक कॉन्फिडेंस को प्रोत्साहित करता है डिजिटल इंटेलिजेंस
जानकारी और समझ पैदा होने से भरोसा कायम होता है. डिजिटल इंटेलिजेंस या डीक्यू काे डिजिटल सिटिजेनशिप और लिटरेसी स्किल समेत डिजिटल जिंदगी में आनेवाली चुनौतियों व उसकी जरूरतों की कलेक्टिव क्षमताओं के तौर पर समझा जाता है. किसी व्यक्ति के लिए इसका आरंभिक बिंदु इस बारे में उसे जागरूक करने से जुड़ा है कि उसका व्यक्तिगत डाटा किस तरह एकत्रित किया जाता है और उसका इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही इसकी समझ हाेना कि उसकी जिंदगी को यह किस तरह से प्रभावित कर सकता है. दुर्भाग्यवश, मौजूदा समय में लोगों में यह डीक्यू बहुत कम है. इस सर्वेक्षण के मुताबिक, प्रतिक्रिया देनेवालों में 32 से 47 फीसदी तक ऑनलाइन प्रेजेंस और डिराइव्ड डाटा यानी निकाले गये आंकड़ों की समझ नहीं रखते, जबकि सर्वे के दौरान उन लोगों ने इसकी परिभाषा पढ़ी थी. इस गैप को पाटने में यह स्पष्ट तौर पर महत्वपूर्ण है कि लोगों को डिजिटल मीडिया और उसके लिए जवाबदेह तकनीक के प्रति इस्तेमालकर्ताअों को सजग और कुशल बनाना होगा.
युवावस्था में शुरू हो डिजिटल शिक्षा
दुर्भाग्यवश, डिजिटल मसलों की चपेट में समाज का सबसे बड़ा और गंभीर समूह बच्चों का है. मौजूदा दौर में ज्यादातर बच्चे बहुत कम उम्र में अपनी डिजिटल जिंदगी की शुरुआत कर देते हैं और उस समय उन्हें उसके खतरों की जानकारी नहीं होती. उनके जन्म के साथ ही उनकी निजता का हनन शुरू हो जाता है और उनसे निपटने के लिए उनके पास कोई मुकम्मल तरीका भी नहीं होता है. उनके माता-पिता स्वयं ही उनके फोटो या मेडिकल व शैक्षणिक सूचनाओं जैसे व्यक्तिगत आंकड़े ऑनलाइन शेयर करते हैं, जो उनके संभावित जोखिम से पूरी तरह अनजान होते हैं या फिर उन्हें इसकी बिलकुल समझ नहीं होती है.
ओइसीडी (द ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकॉनोमिक कॉ-आपरेशन एंड डेवलपमेंट) के आंकड़ों के मुताबिक, समूचे यूरोप में छह से 17 वर्ष की उम्र के 90 फीसदी से ज्यादा बच्चे इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. करीब 10 वर्ष की उम्र के 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे सोशल मीडिया से जुड़े हैं. स्मार्टफोन के बढ़ते चलन से भारत में भी बच्चे इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं और दिन-ब-दिन इनकी संख्या बढ़ रही है. डिजिटल मीडिया का हिस्सा बननेवाले और ऑनलाइन सूचनाएं साझा करनेवाले इन बच्चों को यह भी नहीं पता कि उनकी निजता के क्या मायने हैं. समाजशास्त्रियों का कहना है कि संयुक्त परिवारों में बिखराव व एकल परिवारों की बढ़ती तादाद के अलावा स्मार्टफोन और इंटरनेट तक आसान पहुंच इसकी सबसे बड़ी वजह है.
लापरवाही का फायदा उठाते हैं अपराधी
कम उम्र में डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल करने से स्क्रीन एडिक्शन समेत साइबर-बुलिंग, ऑनलाइन सेक्सुअल व्यवहार और साइबर-अपराध जैसी चुनौतियों का खतरा बढ़ जाता है. ज्यादातर अभिभावकों के पास यह देखने का भी समय नहीं होता कि उनका बच्चा स्मार्टफोन और इंटरनेट के जरिये क्या कर रहा है. साइबर अपराधी इसका फायदा उठाने से नहीं चूकते. जिस तरह सड़क पर कार चलाने से पहले युवाओं को संबंधित नियमों की जानकारी जरूरी होती है, उसी तरह ऑनलाइन दुनिया में प्रवेश करने से पहले बच्चों के लिए डिजिटल शिक्षा जरूरी होनी चाहिए. साइबर अपराध विशेषज्ञों का कहना है कि वायरलेस तकनीक से फाइल ट्रांसफर की तकनीक आसानी से उपलब्ध होने की वजह से मामूली लापरवाही से भी फोन में दर्ज सूचनाएं सार्वजनिक हो सकती हैं. अपराधी इसी का फायदा उठा कर संबंधित छात्रों को ब्लैकमेल करते हैं और कई मामलों में उनका यौन शोषण भी होता है.
भारत में इंटरनेट यूजर्स
46 करोड़ से ज्यादा हो चुकी थी भारत में इंटरनेट यूजर्स की संख्या वर्ष 2016 में.
34.8 फीसदी देश की आबादी के पास पहुंच कायम हो चुकी थी इंटरनेट की बीते वर्ष के आखिर तक.
13.5 फीसदी इंटरनेट यूजर्स हैं भारत में पूरी दुनिया की आबादी के मुकाबले.
1.01 अरब से ज्यादा हो चुकी है देश में मोबाइल कनेक्शन की संख्या.
15.3 करोड़ सक्रिय सोशल मीडिया यूजर्स हैं भारत में और करीब 23 फीसदी सालाना की दर से इनकी संख्या बढ़ रही है. (स्रोत : इंटरनेट लाइव स्टेटस डॉट कॉम व विविध वेबसाइट)
भारत में 50 फीसदी बच्चे साइबर बुलिंग की चपेट में
साइबर बुलिंग का अर्थ है- गंदी भाषा, तसवीरों या धमकियों आदि के जरिये इंटरनेट पर तंग करना. भारत में करीब 50 फीसदी बच्चे इंटरनेट पर कभी-न-कभी साइबर बुलिंग का शिकार होते हैं. ‘टेलीनॉर इंडिया’ ने देश के 13 शहरों में 2,727 स्कूली बच्चों के बीच इंटरनेट के इस्तेमाल का सर्वेक्षण किया. विभिन्न साइबर थानों और साइबर क्राइम सेल में दर्ज होनेवाले मामलों की तादाद इसकी पुष्टि करती है. सर्वेक्षण के विश्लेषण में दर्शाये गये प्रमुख तथ्य इस प्रकार हैं :
35 फीसदी बच्चों को यह आभास हुआ कि उनका एकाउंट हैक किया जा चुका है, जबकि 15.74 फीसदी को गलत मैसेज प्राप्त हुए.
10.41 फीसदी बच्चों को इंटरनेट से तसवीर या वीडियो अपनोड किये जाने के कारण शर्मिंदगी झेलनी पड़ी.
34 फीसदी छात्रों ने ही अपनी ऑनलाइन गतिविधियों के बारे में अपने अभिभावकों को बताया था.
76 फीसदी बच्चे प्रति साइबर हानि होने की दशा में चाइल्ड हेल्पलाइन 1098 के प्रति जागरूक नहीं हैं.
98.8 फीसदी स्कूली बच्चे शहरी क्षेत्रों में स्कूल प्रोजेक्ट्स के लिए मैटेरियल तलाशने, ऑनलाइन किताबें पढ़ने, संगती सुनने, फिल्में देखने व सोशल नेटवर्किंग साइट और इमेल आदि के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं.
13.4 करोड़ तक पहुंच जायेगी इंटरनेट पर सक्रिय रहनेवाले स्कूली बच्चों की संख्या भारत में इस वर्ष, बॉस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की एक रिपोर्ट के मुताबिक.