लखनऊ : उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी पर वर्चस्व को लेकर लगभग दो महीने तक चले शह मात के खेल में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम सिंह यादव को पछाड़ दिया है. अखिलेश ने पार्टी और साइकिल पर कब्जा करके यह साबित कर दिया है कि वे ही इसके असली हकदार हैं.
पिता-पुत्र के खेमों में चले दावे प्रतिदावे को समाप्त करते हुए निर्वाचन आयोग ने 15 दिन की दस्तावेजी जंग के बाद सोमवार को अखिलेश खेमे को असली समाजवादी पार्टी करार देते हुए उन्हें साइकिल चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिया और इस तरह से 25 साल पहले बनी समाजवादी पार्टी अखिलेश की हो गयी और उन्हें इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर मान्यता मिल गयी.
राष्ट्रीय अधिवेशन और पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष
सपा ने अभी हाल ही में अपनी स्थापना का रजत जयंती समारोह मनाया था, जिसमें राष्ट्रीय लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल समेत कई राजनीतिक दलों के नेता शामिल हुए थे और केंद्र में सत्तारुढ भाजपा के खिलाफ गठबंधन के संकेत दिये थे. मगर उसके कुछ ही दिन बाद पिता मुलायम की इच्छा के विपरीत अखिलेश और उनके चाचा रामगोपाल खेमे ने एक राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया और उसमें अखिलेश को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया. मूलत: उत्तर प्रदेश में प्रभाव रखने वाली समाजवादी पार्टी हालांकि देश के कई राज्यों में लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लडती रही है. मगर उसे असली कामयाबी उत्तर प्रदेश में ही मिली जहां सपा बनाने के बाद मुलायम सिंह यादव दो बार मुख्यमंत्री रहे और 2012 में पहली बार बहुमत पाने के बाद बेटे अखिलेश को मुख्यमंत्री बना दिया. यह पहला मौका है जब सपा सरकार ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया है.
अखिलेश को 2012 में मुलायम ने बनाया मुख्यमंत्री
वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव सपा ने राष्ट्रीय जनता दल और लोकजनशक्ति पार्टी से बिहार में गठबंधन किया था. मगर उत्तर प्रदेश में अकेल दम पर चुनाव लडा था. इसने केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन भी दिया था. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक रहा था और उसके कुल 5 उम्मीदवार :सभी मुलायम परिवार के सदस्य: ही चुनाव जीतने में कामयाब हुए थे. वर्ष 2012 में जब मुलायम ने स्वयं मुख्यमंत्री बनने की बजाय पुत्र अखिलेश को मुख्यमंत्री बना दिया. पार्टी में तभी से खेमे बंदी के सुर उठने लगे थे. मजेदार बात यह थी कि इस खेमे बंदी में अखिलेश को उनके चचेरे चाचा और पार्टी के शक्तिशाली महासचिव रामगोपाल यादव का समर्थन था, जबकि मुकाबले में पिता मुलायम अपने सगे छोटे भाई और अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ थे.
मुलायम,शिवपाल और अमर सिंह
मुलायम और शिवपाल के साथ बकौल अखिलेश ‘बाहरी’ अमर सिंह भी साथ थे और दोनों खेमों के बीच असली तकरार अमर की पुन: सपा में शामिल किये जाने राज्य सभा भेज दिये जाने और राष्ट्रीय महासचिव बना दिये जाने के बाद ही खुलकर सामने आयी. तब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री अखिलेश को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाकर यह जिम्मेदारी शिवपाल को दे दी तो मुख्यमंत्री अखिलेश ने उन्हें मंत्रिपरिषद से ही बर्खास्त कर दिया. बदले में शिवपाल ने अखिलेश समर्थक कई विधानपरिषद सदस्यों तथा नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया.
शह और मात का खेल रहा जारी
दोनों खेमों के बीच शह मात और कभी सुलह और कभी समझौते का दौर चला और इसी बीच मुख्यमंत्री को भरोसे में लिए बिना मुलायम ने शिवपाल की मौजूदगी में विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी. उसी रात अखिलेश खेमे ने खुलकर बगावत करते हुए 235 उम्मीदवारों की समानांतर सूची जारी कर दी और खेमे बंदी खुलकर सामने आ गयी. अखिलेश ने 30 दिसम्बर को अपने आवास पर पार्टी के विधायकों की बैठक बुलाई जिसमें उनके समर्थन में 229 में से 200 से अधिक विधायक शामिल हुए. मुलायम ने रामगोपाल और अखिलेश को पार्टी से निकाल दिया और फिर शाम को ही निष्कासन वापस ले लिया. मगर उससे पहले रामगोपाल ने अपने पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार एक जनवरी को पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन किया, जिसमें अखिलेश को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया.
चुनाव चिन्ह पर मचा बवाल
दोनों खेमे पार्टी के नाम और चुनाव चिन्ह पर अधिकार पाने के लिए अपने-अपने दावों और दलीलों के साथ चुनाव आयोग पहुंचे, जिसने आज अखिलेश के पक्ष में अपना फैसला सुना दिया और पिता-पुत्र के खेमे औपचारिक रुप से अलग हो गये.