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सपा का दंगल : बेटे के खिलाफ नये आरोप कहां से लायेंगे मुलायम ?

!!कृष्ण प्रताप सिंह!! अब जब करीब-करीब तय हो चुका है कि समाजवादी बाप-बेटे मुलायम व अखिलेश उत्तर प्रदेश के चुनाव मैदान में एक दूजे के खिलाफ तलवारें भांजते नजर आयेंगे, राजनीतिक हलकों में यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि मुलायम अपनी चुनाव सभाओं में अखिलेश के खिलाफ लगाने को नये आरोप कहां से […]

!!कृष्ण प्रताप सिंह!!

अब जब करीब-करीब तय हो चुका है कि समाजवादी बाप-बेटे मुलायम व अखिलेश उत्तर प्रदेश के चुनाव मैदान में एक दूजे के खिलाफ तलवारें भांजते नजर आयेंगे, राजनीतिक हलकों में यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि मुलायम अपनी चुनाव सभाओं में अखिलेश के खिलाफ लगाने को नये आरोप कहां से लायेंगे? दरअसल, मुख्यमंत्री के रूप में अपने अब तक के कार्यकाल में अखिलेश ने जितने भी गंभीर आरोप झेले हैं, उनमें से ज्यादातर मुलायम ही लगाते रहे हैं. तब उनके विरोधी कहते थे कि बेटे को विपक्ष की सीधी आलोचना से बचाने के लिए वे खुद बाप के बजाय विपक्ष के नेता बन गये हैं. लेकिन, अब विपक्षी दल उनके आरोपों को ही हथियार बनाकर अखिलेश पर हमले कर रहे हैं. यह कहते हुए कि जो बाप की निगाह में लायक मुख्यमंत्री या कि बेटा नहीं बन पाया, जनता की निगाह में खरा कैसे उतरेगा. एक ‘बुआ’ मायावती ही हैं जो उन्हें अभी भी ‘मुलायम का बबुआ’ कह कर संबोधित कर रही हैं.

सच्चाई यह है कि 2012 में अखिलेश के मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठने के कुछ ही महीनों बाद मुलायम का वह उत्कट पुत्रमोह, जिसके कारण उन्होंने शिवपाल यादव जैसे आज्ञाकारी भाई व आजम खां जैसे वरिष्ठ साथी की उपेक्षा कर अखिलेश की ताजपोशी करायी थी, भंग हो गया था और वे ‘शुभचिंतक बाप और नालायक बेटे’ की ग्रंथि से पीड़ित रहने लगे थे. इसके बाद के दिनों में प्रदेश में कानून व्यवस्था पर प्रभावी नियंत्रण न कर पाने का मामला हो या अखिलेश की समग्र कार्यप्रणाली, मंत्रियों व अधिकारियों से काम लेने के तरीके अथवा पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं व आम लोगों की शिकायतों के प्रति रवैये का, वे लगातार उनके विपक्षी दलों से कहीं ज्यादा बड़े आलोचक बने रहे.

मुजफ्फरनगर में दंगों के बाद तो उन्होंने अखिलेश सरकार की ऐसी फजीहत की थी कि विपक्षी दलों को भी दांतों तले उंगली दबानी पड़ी थी. सात नवंबर, 2013 को मैनपुरी में एक रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘सत्ता अखिलेश जैसी मुलायमियत से नहीं, मेरे जैसे इकबाल से संभलती है. 1990 में मैं सख्ती नहीं बरतता तो कारसेवक बाबरी मसजिद ढहा देते. अखिलेश को दंगाइयों से वैसी ही सख्ती करनी चाहिए.’

आगे उन्होंने यहां तक कह डाला था कि ‘अखिलेश, तुम्हीं नहीं मुख्यमंत्री बने हो. मैं भी मुख्यमंत्री था कभी और बेहद कठिन परिस्थितियों में बना था. लेकिन, तुम्हारी तरह मेरा या सरकार का मजाक नहीं उड़ा. क्योंकि मैंने तुम्हारी तरह तमाशे नहीं किये और समर्थकों के नाम पर सर्कस के किरदार नहीं इकट्ठा किये.’ इतना ही नहीं, चेताया भी था–‘याद रखो कि तुम जनता को मूर्ख नहीं बना सकते. पद मिला है तो उसकी जिम्मेदारियां निभाओ वरना वह एक पल में उखाड़ कर फेंक देगी.’

खिसियाये अखिलेश ने इस बहाने अपना आत्मसम्मान बचाया था कि कौन-सा बेटा है, जिसका बाप उसे डांटता नहीं है, लेकिन प्रेक्षकों की निगाह में यह बाप की डांट नहीं, सत्ता दल के सुप्रीमो द्वारा अपने मुख्यमंत्री का खुल्लमखुल्ला किया जा रहा अपमान था. गत 18 सितंबर की बहुप्रचारित पार्टी बैठक में इसकी परिणति मुलायम के इस कथन में हुई ‘अखिलेश, प्रदेश के लोगों ने तुम्हें सिर्फ इसलिए मुख्यमंत्री स्वीकार कर लिया, क्योंकि तुम मेरे बेटे हो. वरना तुम्हारी हैसियत क्या है?’ 2014 में लोकसभा चुनाव में सिर्फ पांच प्रत्याशी जीते, वह भी मुलायम परिवार के तो भी उन्होंने अखिलेश को खूब जली-कटी सुनायी थी-‘मैंने शिवपाल की सुनी होती तो पार्टी कम से कम तीस पैंतीस सीटें तो जीत ही जाती. तब मैं प्रधानमंत्री भी बन सकता था.’ गत 25 जनवरी को उन्होंने अखिलेश से सार्वजनिक तौर पर कहा, ‘मुख्यमंत्री महोदय! तुम्हारे आधे से ज्यादा मंत्री रुपये बनाने में लगे हैं और तुम उन्हें रोक नहीं पा रहे. रुपये ही कमाने हैं तो राजनीति में क्यों आये? कोई और धंधा कर लेते. राजनीति में आये हो तो सच्चे मन से जनसेवा करो. फिर तो लोग अपने आप रुपये देंगे तुम्हें.’

यह और बात है कि बाद में अखिलेश ने भ्रष्ट मंत्रियों की बरखास्तगी शुरू की तो मुलायम ही उनके बड़े संरक्षक बनकर सामने आये. अखिलेश को अवैध खनन के लिए बहुचर्चित गायत्री प्रसाद प्रजापति को उन्हीं के दबाव में मंत्रिमंडल में वापस लेना पड़ा.

मार्च, 2014 में उन्होंने अखिलेश को अपने ‘शातिर’ अधिकारियों पर अंधविश्वास के लिए कोसते हुए नसीहत दी थी, ‘तुम्हारे अधिकारी जरूरी फाइलें भी महीनों तक दबाये रखते हैं. तुम पूछते हो तो ‘सर-सर’ कह कर सफाई दे देते हैं और तुम खुश हो जाते हो. इनसे सख्ती करो. हैसियत बताओ इन्हें.’ उन्होंने अखिलेश पर अपने आलोचकों के प्रति असहिष्णु होने की तोहमत भी लगायी और कहा था, ‘जो आलोचना नहीं सुन सकता, वह अच्छा नेता नहीं बन सकता.’

आगे चल कर उनकी नसीहतें इतनी ज्यादा हो गयी थीं कि अखिलेश ने उन्हें गंभीरता से लेना ही बंद कर दिया था. गत स्वतंत्रता दिवस समारोह में इसी सब को लेकर खटास बहुत बढ़ गयी तो उन्होंने अखिलेश व उनके थिंकटैंक रामगोपाल यादव पर भाजपा से मिल कर पार्टी को बरबाद करने का आरोप भी मढ़ डाला. इससे पहले उन्होंने चेतावनी दी कि नाराज शिवपाल ने पार्टी छोड़ी तो आधे नेता व कार्यकर्ता उसके साथ चले जायेंगे, मैं भी उसी का साथ दूंगा और अखिलेश के पास कुछ बचेगा ही नहीं. उनका दुर्भाग्य कि अखिलेश ने ऐसा तख्तापलट किया कि खुद उन्हीं के पास कुछ नहीं रह गया और वे अपमान की आग में झुलसे जाने को अभिशप्त हो गये. हां, विकास की बात करें तो 23 नवंबर, 2014 को आगरा एक्सप्रेस वे का उद्घाटन करते हुए उसको लेकर भी अखिलेश पर सवाल उठाये थे. कहा था कि परियोजनाओं के शिलान्यास के साथ उनके उद्घाटन की तारीखें भी घोषित की जायें, क्योंकि वे मुख्यमंत्री थे तो ऐसा ही किया करते थे. इससे पहले 2-3 मार्च, 2014 को उन्होंने बेहद हिकारत से कहा था–‘मुख्यमंत्री! तुम चापलूसों से घिर गये हो. उनसे खुद को बचाओ.’ सपा ने नवीं बार उन्हें सपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया तो उस हंसी-खुशी के माहौल में भी उन्होंने अखिलेश सरकार पर जनता से पूरी तरह कट जाने का ही आरोप लगाया था.

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