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नये साल से हमारी ख्वाहिशें

साल 2016 बीत गया और 2017 की शुरुआत हुई. हम पीछे का सिंहावलोकन करें या आगे पर नजर डालें? हर कोई यह आस रखता है कि जो कुछ अतीत दे न सका, शायद वह भविष्य दे जाये. गालिब के अंदाजे-बयां में ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले!’ ख्वाहिशों की फेहरिस्त का कोई […]

साल 2016 बीत गया और 2017 की शुरुआत हुई. हम पीछे का सिंहावलोकन करें या आगे पर नजर डालें? हर कोई यह आस रखता है कि जो कुछ अतीत दे न सका, शायद वह भविष्य दे जाये. गालिब के अंदाजे-बयां में ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले!’ ख्वाहिशों की फेहरिस्त का कोई अंत तो भला क्या होगा, मगर मैंने मनमरजी से अपनी ख्वाहिशें दस पर समेट डालीं, जो यों हैं:

चुनावी सुधार : भारत भले विश्व का ‘विशालतम लोकतंत्र’ हुआ करे, पर कम-से-कम 2017 तो वह वर्ष हो, जब यह एक अधिक ‘विश्वसनीय लोकतंत्र’ भी बन सके. इस सबब से वैसे चुनावी सुधार सबसे ज्यादा तरजीह के हकदार हैं, जो लेखा-विहीन पैसे व सियासत का नापाक नालबंध काट सकें, क्योंकि यही इस देश के सभी भ्रष्टाचारों का बीज है. पैसे-पैसे का हिसाब हो, पार्टियों की निधियों तथा उनके वित्तीय लेन-देन की लेखा-परीक्षा हो और वे सूचना अधिकार के दायरे में आ जायें. निर्वाचन आयोग यह अनुशंसा कर चुका है, बाकी अब सरकार तथा संसद के करने की बारी है.

कार्यशील संसद : उम्मीद है, इस साल संसद संजीदगी से चलेगी, जहां न कोई प्रक्षेपास्त्र चले, न आसन के समक्ष जमावड़े लगें, न ही घटिया दरजे का शोर-शराबा हो.

कृषि मिशन : कृषि हमारी श्रमशक्ति के 65 प्रतिशत को रोजगार देती है, पर सकल घरेलू उत्पाद में जहां केवल 14 प्रतिशत का ही योगदान कर पाती है, वहीं उसकी वार्षिक वृद्धि दर भी महज एक प्रतिशत पर मंडराती है. जरूरत है कि कृषि उत्पादकता में वृद्धि को एक विशिष्ट मिशन बनाया जाये.

विनिर्माण मिशन : श्रमिक आधारित विनिर्माण क्षेत्र ही वह सबसे बेहतरीन साधन है, जो कृषि के बेरोजगार तथा अर्द्ध-बेरोजगार श्रमशक्ति को रोजगार मुहैया करा सकता है. सरकार ने 2022 तक इस क्षेत्र में 10 करोड़ रोजगार सृजित करने का लक्ष्य रखा है, पर यह जमीन पर उतरता सा नहीं दिखता. क्या 2017 में हम कुछ ठोस हासिल कर सकेंगे?

गरीबी उपशमन : घोर निर्धनों की वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ी तादाद का कलंक अपने माथे लिये हम कभी एक सफल लोकतंत्र नहीं कहला सकते. यह हालत हर हाल में बदलनी चाहिए और यह तभी मुमकिन होगा, जब आर्थिक नीतियां निर्धनों तक पहुंचने को जरूरी रूपाकार लें. बिहार में नीतीश कुमार ने अपने सात निश्चयों को एक नियत अरसे में अमल में लाने का संकल्प कर एक अच्छी मिसाल पेश की है.

स्वास्थ्य एवं शिक्षा मिशन : कुछ योग्यतम चिकित्सक पैदा करने तथा चुनिंदा महानगरों में मुट्ठीभर अति विशिष्ट अस्पतालों के संचालन के परे हमारा चिकित्सकीय बुनियादी ढांचा जहां बेहद घटिया है, वहीं सरकारी स्कूल-कॉलेजों की शैक्षिक स्थिति पूरी तरह अस्वीकार्य भी है. इन दोनों ही क्षेत्रों को कहीं ज्यादा पैसे तथा तवज्जो की तलब है. क्या ऐसा हो सकेगा?

संतुलित क्षेत्रीय विकास : सभी सार्वजनिक एवं निजी निवेश के बड़े हिस्से का प्रवाह देश के अपेक्षाकृत विकसित पांच राज्यों तक ही सीमित रह जाता है. आर्थिक खुशहाली के इस असंतुलित बिखराव को विशिष्ट दरजा देने जैसी नीतियों के हस्तक्षेप से सही किया ही जाना चाहिए.

पर्यटन मिशन : जिस भारत के पास एक सैलानी के पेशे-नजर तकरीबन सभी चीजें मौजूद हैं, वहां उनकी सालाना आमद सिर्फ पचास-साठ लाख पर सिमटी रह जाती है, जबकि दक्षिण अफ्रीका, मेक्सिको और चीन जैसे देशों में इस तादाद के कई गुने अधिक सैलानी खिंचे चले आते हैं. वक्त आ गया है कि इस क्षेत्र की संस्थागत अनदेखी खत्म कर उन समन्वित कोशिशों का आगाज हो, जो अगले तीन सालों में सैलानियों की यह संख्या दोगुनी कर सकें.

विदेश नीति : हमारी विदेश नीति को सावधानी से रणनीतिक ढांचे का हिस्सा बना कर तदर्थता की बहुप्रचारित लीक से मुक्त करने का वक्त भी आ पहुंचा है. हम यह उम्मीद तो बांध ही सकते हैं कि पड़ोसियों के साथ हमारे रिश्तों में गुणात्मक बेहतरी आयेगी और पाकिस्तान से हम अधिक सटीक पूर्वानुमान तथा नीतिगत सुसंगति के साथ निबट सकेंगे. हम शायद चीन को भी एक अधिक समझदार पड़ोसी बना सकें.

संस्कृति : भारत की संस्कृति विविधता से परिपूर्ण रही है. दुर्भाग्य से हमारी सभी सरकारों ने इस महान धरोहर की रक्षा हेतु आवश्यक संस्थागत निवेश से परहेज ही किया है. इसे नौकरशाही के चंगुल से छुड़ा कर समृद्धि हासिल करने के लिए आवश्यक अवसंरचना से युक्त किये जाने की जरूरत है.

लोकतंत्र इसलिए जीवित रहता है, क्योंकि उसमें उम्मीद को जिलाये रखने के संस्थागत तंत्र होते हैं. इसलिए आइये, हम यह आशा करें कि नव वर्ष में इन उम्मीदों में संभवतः कुछ के घटित होने की शुरुआत हो सके. हम यह भी उम्मीद करें कि 2017 में भारत संवाद तथा विमर्श के लिए अधिक अवकाश देगा, नफरत तथा बहिष्कार छोड़ेगा और हमारे बहुलवादी, बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक सामाजिक ताने-बाने को फलने-फूलने के अवसर दे सकेगा. (अनुवाद: विजय नंदन)

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

pavankvarma1953@gmail.com

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