आप कह सकते हैं कि ‘बेंगलुरु में अब बहुत कम बचा रह गया बेंगलुरु’, क्योंकि यह शहर खुशी के सबसे सघन क्षणों में सबसे ज्यादा आक्रामक हो रहा है. शहर के सबसे व्यस्त इलाके एमजी रोड पर नववर्ष की आगमन की खुशी मनाती भीड़ के एक हिस्से का अचानक हमलावर हो उठना और महिलाओं के साथ अभद्र आचरण करना ऐसी ही आक्रामकता का संकेत है. ‘सिलिकन वैली’ के एक संस्करण इस नगर में वह शहर ‘खत्म’ हो रहा है, जिसे ‘गार्डन सिटी’ कहा जाता था यानी एक ऐसा फुरसती शहर, जिसकी छांव में सामाजिक और पारिवारिक जीवन की मीठी तहजीबें पला करती थीं. अब इस शहर की पहचान है तेज आर्थिक वृद्धि, बुनियादी ढांचे में निवेश, स्टार्टअप्स की भारी संख्या, एफडीआइ परियोजनाओं की भरमार और सबसे ज्यादा पेटेंट आवेदन. धीरे-धीरे यहां मीठी तहजीबें खोती गयी हैं. बढ़ते वैभव के बीच पलती निर्लज्ज आक्रामकता इस महानगर के मानस का स्थायी हिस्सा बन चली है. यह बार-बार जाहिर होता है. पिछले साल फरवरी में बेंगलुरु के आचार्य कॉलेज में बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए आये तंजानिया के छात्रों के साथ स्थानीय भीड़ ने ऐसा ही हिंसक बरताव किया था. तब भी निशाने पर महिलाएं थीं.
क्या महिलाओं के प्रति बढ़ती असहिष्णुता को इस शहर की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाये? क्या मान लें कि बेंगलुरु आर्थिक रूप से वैश्विक होने और सांस्कृतिक रूप से स्थानिक बने रहने का भयानक द्वंद्व झेल रहा है और इसी दुविधा में अपने ‘अन्य’ के साथ आक्रामक हो चला है? अगर ऐसा है, तो बेंगलुरु में बहुधा सिर्फ महिलाएं ही क्यों शिकार हो रही हैं? बाजार और चौराहे सार्वजनिक गतिविधि के संकेतक हैं, ऐसे स्थान जहां दुनिया रोज बनती और बदलती है. इस अर्थ में बाजार और चौराहे संकेत करते हैं कि दुनिया को गढ़ने-बनाने की कुंजी किसके हाथ में है. सार्वजनिक स्थान पर किसी को अपमानित करने का अर्थ है, किसी को सार्वजनिक होने से रोकना. इस घटना से फिर जाहिर हुआ है कि बेंगलुरु वैभव तो चाहता है, लेकिन इस वैभव में महिलाओं की बराबर भागीदारी नहीं.