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स्त्री और कविता

किसी संगोष्ठी में ‘स्त्री-साहित्य’ बातचीत का विषय था. अपने यहां आदत रही है कि हम किसी विचार की उत्पत्ति के लिए पुराणों और वेदों की तरफ मुड़-मुड़ कर देखते हैं. एक प्रख्यात विद्वान स्त्री-साहित्य के बजाय पुराणों में ‘स्त्री’ शब्द का इस्तेमाल तलाशने की दिशा में मुड़ गये. वे लेंस लेकर हर उस पृष्ठ पर […]

किसी संगोष्ठी में ‘स्त्री-साहित्य’ बातचीत का विषय था. अपने यहां आदत रही है कि हम किसी विचार की उत्पत्ति के लिए पुराणों और वेदों की तरफ मुड़-मुड़ कर देखते हैं. एक प्रख्यात विद्वान स्त्री-साहित्य के बजाय पुराणों में ‘स्त्री’ शब्द का इस्तेमाल तलाशने की दिशा में मुड़ गये. वे लेंस लेकर हर उस पृष्ठ पर जाने लगे, जहां स्त्री शब्द का उल्लेख था. इससे सिद्ध हुआ था कि स्त्री लिखित साहित्य के आरंभ से ही उसमें विद्यमान थी. यह आरोप भी खारिज होता था कि मुख्यधारा साहित्य ने स्त्री को जगह नहीं दी. फिर बात मीरा, महादेवी और सुभद्रा कुमारी चौहान तक पहुंची. ठीक भी हुआ.
मैं सोच रही थी कि कब रची होगी किसी स्त्री ने पहली कविता? शायद बच्चे को सुलाते हुए, जब कुछ गुनगुनाया होगा या दिन भर थकने के बाद चांद को देखती होगी अकेली या बैठती होंगी जरा फुरसत पाकर कुछ सखियां. चौका लीपते हुए मन बहलाने को कुछ गाया होगा, सतिया काढ़ते हुए दीवार पर या खेत में काम करते हुए, मवेशियों काे चारा-पानी करते हुए कुछ अस्फुट स्वर या कुछ टूटी-बिखरी हुई पंक्तियां निकली होंगी. लेकिन, मुख्यधारा साहित्य ने मौखिक रचना को तो साहित्य के दर्जे में ही जगह न दी. एक पूरा लोक, स्त्री की एक पूरी दुनिया साहित्य और साहित्य के इतिहास से बाहर हो गयी.
वह गाती थी, तो नाम पाने के लिए थोड़े गाती थी. नहीं हुई तो नहीं हुई दर्ज! यह दुख कोई बड़ा दुख नहीं है, यह कहना गलत बात है. इतिहास में अपना नाम न मिलना भविष्य का बड़ा संकट है. खारिज किये जाने का कष्ट बड़ा कष्ट है. खारिज किये जाने की वजहें तय करनेवाले ही वाह-वाह करनेवाले ठहरे. तो वाहवाही के लिए ‘मर्दानी’ भाषा और विषयों का सहारा लिया तो ठीक, वर्ना पाठक दूर ठिठक कर रह जायेगा- कि मेरे तो सर से गुजर जाता है और आलोचक बरसेगा- कितनी इतिवृत्ति है, अनावश्यक विस्तार है, एडिटिंग मांगता है, शिल्प अनगढ़ है!
स्त्री तो व्यक्ति ही गड़बड़ है. वह पाठक नहीं है. वह आलोचक ही नहीं है. स्त्रियां लेख पढ़ती ही नहीं हैं. पढती हैं तो उनका कोई फीडबैक नहीं पहुंच पाता. स्त्री-प्रश्नों पर बहस में सारे सवाल पुरुषों के पेट में कुलांचे भरते हैं और टप-टप मुंह से बरसते हैं. संवेदनाओं में फर्क कैसे हो सकता है? अब साहित्य को भी जेंडर में बांट देंगे? क्या कविता भी कहीं ‘स्त्री-कविता’ या ‘पुरुष-कविता’ होती है? जनाब, भाषा तो होती है न? ‘स्त्री-भाषा’ और ‘पुरुष-भाषा’! संवेदनाओं का अलग संसार तो है न? एक गोल खांचे में चौकोर डिब्बा तो बिठा नहीं सकते न!
मुश्किल बात नहीं है. तीन कवियों की कविता की कुछ पंक्तियां लेती हूं. अनामिका लिखती हैं- ‘मैं दरवाजा थी, जितना पीटी गयी, उतना खुलती गयी…’ यह पंक्ति- जितना पीटी गयी ‘खुलती गयी’, जैसे एक पूरा इतिहास हो स्त्री जीवन का. स्त्री के खिलाफ हिंसा की खबरों से रोज का अखबार रंगा होता है, लेकिन कहां दुबक कर बैठ रही है इनसे भयभीत होकर स्त्री? कहीं तो नहीं! पाकिस्तानी शायरा किश्वर नाहीद लिखती हैं- ‘घास भी मेरी तरह है/जैसे ही यह होती है सिर उठाने योग्य/ आ पहुंचता है कटाई करनेवाला/ उन्मत्त, बना देने को इसे मुलायम मखमल/ और कर देता है इसे चौरस…’ यानी सारी दृढ़ता समाप्त करके बिछने लायक कोमल बना दिया जाना, कुचला जाना घास का. जॉन स्टुअर्ट मिल से लेकर जर्मेन ग्रियर तक तर्कबद्ध करते हैं स्त्री को बधिया किये जाने के इस सामाजिक अनुकूलन को.
एक अमेरिकी कवि मार्च पियर्सी की कविता है- ‘मून इज ऑल्वेज फीमेल!’ इसी नाम से उनका संग्रह है. गर्भावस्था में गर्भ अपने सामान्य आकार का सैकड़ों गुना बड़ा होता है, फिर सिकुड़ जाता है मटर के दाने में, किशोरी होते ही योनिद्वार को सिल दिया जाता है, जब पति खरीदता है, तो काट कर उसे खोला जाता है. ऐसे आकार बदलता है रोज चांद कि वह स्त्री ही हो सकता है.
चांद हमेशा से स्त्री है- यह कहा जाना उस संवेदना और उस भाषा की पहचान है, जिसके मूल्यांकन के लिए घिसे-घिसाये मानक नहीं चल सकते. सीमाओं के पार भी एक संसार है, जिसका अतीत एक है. एक पुराना घाव है, जो हरा होता है हर बलात्कार की खबर के साथ. एक पीड़ा है, जिसे हर स्त्री महसूस करती है, जब फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (यौन सुख को कम करने के लिए मादा जननांगों को पूरा या आंशिक रूप में विकृत कर दिया जाना) से गुजरती स्त्री की कल्पना करती है.

स्त्री की संवेदना उसकी पूरी जाति की संवेदना की अभिव्यक्ति हो जाती है.

वेरा पाव्लोवा स्त्री के लिए उस कछुए का बिंब लाती हैं, जो कभी खुद से असहाय नहीं होता, जब तक कि प्रयत्न से कोई उसे पीठ के बल न पलट दे. यह भाषा और बिंब स्त्री-भाषा और स्त्री-कविता के वे बिंब हैं, जिन्हें समझने के लिए कम-से-कम अभी हिंदी के पास कोई आलोचना पद्धति नहीं है. जितना स्त्री लेखन है, वह किसी आयोजन के एक सत्र में, आलोचना की एक किताब के आखिरी पांच पृष्ठीय अध्याय में सिमट जाता है, एक पूर्वाग्रह में, किसी चुटकुले में या ‘क्या करें स्त्री विमर्श का जमाना है’ जैसे वाक्य की तरह उचके हुए कंधों से गिर जाता है.
स्त्री लिखती ही क्यों है? अपनी जगह बदलने के लिए. अपनी जगह पाने के लिए. खुद को समझने के लिए. वह लिखती है, क्योंकि वह मनुष्य है. जब कोई थेरी (बौद्ध भिक्षुणी) कहती है कि मैं आज मरती हूं और इस तरह मुक्त होती हूं, तो वह पीड़ा और मुक्ति ललद्यद (कश्मीरी कवि) तक ले जाती है. घर के भीतर के शोषण के कई दस्तावेज हैं वहां. पूरे परिवारतंत्र में एक अदना उपेक्षित पुर्जा रह जाने की पीड़ा हब्बा खातून के यहां भी मिलती है. यह शांत, मारक विद्रोह है परिवार संरचना से बाहर निकल गयी एक कवयित्री का. मीरा जो लोक-लाज को धता बताती हैं, तो सांवरे के रंग में रंग कर मुक्त हो जाती हैं. लिखना मुक्त भी करता है. इससे जरूरी सवाल यह कि वह पढ़ती क्यों नहीं? एक ‘कर्ता’ पाठक भी है. वही आलोचक भी है. कविता के अर्थ की प्रक्रिया बिना पाठक के पूरी कैसे हो! स्त्रीवाद को पढ़े बिना वह विश्लेषित कैसे हो? आस्वाद का एक पक्ष जानने का भी है. शास्त्रीय संगीत मेरे कानों को नहीं भाता, तो मेरे न जानने की अहम भूमिका है. अध्ययन किसी कवयित्री की संवेदना को तराशेगा, तो पाठक को भी संवेदी और जागरूक बनायेगा. आलोचक के क्या कहने!
सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
chokherbali78@gmail.com

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