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सरकार व न्यायपालिका में रहे तालमेल

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका में तनातनी 2016 की बड़ी घटनाओं में एक है. सभा-गोष्ठियों से लेकर अदालती कार्यवाहियों तक में यह तनातनी सामने आती रही तथा इस संबंध में प्रधान न्यायाधीश और मंत्रियों के बयान सुर्खियां बनते रहे. बहस में एक-दूसरे के अधिकार-क्षेत्र में अतिक्रमण […]

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका में तनातनी 2016 की बड़ी घटनाओं में एक है. सभा-गोष्ठियों से लेकर अदालती कार्यवाहियों तक में यह तनातनी सामने आती रही तथा इस संबंध में प्रधान न्यायाधीश और मंत्रियों के बयान सुर्खियां बनते रहे. बहस में एक-दूसरे के अधिकार-क्षेत्र में अतिक्रमण के आरोप-प्रत्यारोप भी लगाये जाते रहे. इस अनसुलझे विवाद पर आधारित वर्षांत की प्रस्तुति…

सुभाष कश्यप

संविधानविद्

सरकार और न्यायपालिका के आपसी खींचतान से न्यायतंत्र के प्रति लोगों का भरोसा उठ रहा है, जो लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है. जनता के पास सबसे अंतिम हथियार न्यायतंत्र ही है, लेकिन अब लगता है कि जनता का न्यायतंत्र पर से विश्वास, आस्था और भरोसा कहीं-न-कहीं डगमगा रहा है. ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है.

संविधान के छात्र होने के नाते मैं यह कहूंगा कि वर्ष 2016 के दौरान सांविधानिक संस्कृति के हिसाब से और संवैधानिक प्रावधानों के परिप्रेक्ष्य में हमारे देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधानपालिका के संबंधों में जो खिंचाव आया, वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण था, या अब भी यह खिंचाव बरकरार है, तो वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. यह खिंचाव हमारे वृहद् लोकतंत्र को एक अर्थ में कमजोर करनेवाला है और न्याय-व्यवस्था पर यकीन करनेवाले लोगों के लिए दुख पैदा करनेवाला भी है. मैं समझता हूं कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधानपालिका, इन तीनों के अपने-अपने कार्यक्षत्र हैं और इन्हें अपने-अपने क्षेत्र में ही अपने मूल दायित्वों के साथ अपना काम करना चाहिए. इन तीनों को एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में दखल देने की कोई जरूरत ही नहीं है.

लेकिन दुखद है कि ये तीनों अपना-अपना काम उतनी ईमानदारी से नहीं कर रही हैं, जितनी कि संविधान के दायरे में इनसे अपेक्षा होती है. तीनों अपने-अपने दायित्वों का यथोचित पालन नहीं कर पाये और बेवजह के हस्तक्षेप को ही अपने अधिकार स्वरूप देखा, जिससे खींचतान की हालत पैदा हो गयी. कार्यपालिका एक तरफ न्यायपालिका पर दबाव बनाने का काम कर रही है, तो वहीं न्यायपालिका अदालतों में लंबित मामलों को निपटाने के बजाय कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है.

विधानपालिका के पास कानून बनाने और संविधान संशोधन की जो शक्ति है, न्यायपालिका उसको इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही है और कॉलेजियम की व्यवस्था लाकर खुद ही जजों की नियुक्ति करने की राह पर चल रही है, जो दुनिया में कहीं भी नहीं होता. कुल मिला कर अगर ये तीनों अपना-अपना काम अच्छी तरह करें, तो कोई समस्या ही नहीं आयेगी और न इनके बीच खींचतान के पैदा होने से लोकतंत्र और न्यायतंत्र प्रभावित होंगे.

सरकार और न्यायपालिका की खींचतान

संविधान निर्माता ने यह कभी नहीं सोचा था कि न्यायपालिका कानून बनायेगी या संविधान संशोधन करेगी. लेकिन, जजों की नियुक्ति को लेकर कॉलेजियम प्रणाली बना कर न्यापालिका ने यह काम किया. यह संविधान का उल्लंघन हुआ है. न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर संविधान संशोधन को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किया जाना पूरी तरह से असंवैधानिक है.

सरकार और न्यायपालिका की खींचतान को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि गलती किसी से भी हो सकती है. लेकिन, यहां सवाल सिर्फ गलती का नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि अगर न्यायपालिका ही असंवैधानिक काम करने लगे, संवैधानिक शक्तियां अपने पास लेने का प्रयास करने लगे, तो फिर उसके लिए क्या संवैधानिक विकल्प रह जाते हैं.

क्योंकि न्यायपालिका के निर्णयों को संशोधन हर हाल में सरकार को ही करना पड़ता है. न्यायपालिका के किसी निर्णय को लेकर अगर कल को कोई स्थिति ऐसी आये कि कार्यपालिका या राष्ट्रपति यह कह कर कि मैं तो संविधान की शीर्ष संस्था हूं, और यह फैसला संविधान के विरुद्ध है, इसलिए इस फैसले को नहीं माना जायेगा, तो क्या स्थिति होगी? मैं समझता हूं कि यह भयावह स्थिति होगी और इस स्थिति में शीर्ष संस्थाओं के मूल्यों का अवमूल्यन होगा. इस स्थिति से देश में अराजकता को पांव फैलाने का न्योता मिलेगा. इसलिए सुप्रीम कोर्ट को भी यह सोचना चाहिए कि वह अपनी संवैधानिक सीमाओं में रह कर ही काम करे और ऐसा कोई फैसला न ले, जिसे कोई भी असंवैधानिक कह सके. इस ऐतबार से मैं समझता हूं कि वर्ष 2016 बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐसे फैसला लिये, जो संविधान का छात्र होने के नाते वे फैसले मुझे असंवैधानिक लगते हैं.

न्यायतंत्र से कम होता भरोसा

सरकार और न्यायपालिका के आपसी खींचतान से न्यायतंत्र के प्रति लोगों का भरोसा उठ रहा है, जो लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है. जनता के पास सबसे अंतिम हथियार न्यायतंत्र ही है, लेकिन अब लगता है कि जनता का न्यायतंत्र पर से विश्वास, आस्था और भरोसा कहीं-न-कहीं डगमगा रहा है. ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है. आम व खास लोगों को वकीलों से, जजों से और पूरी न्याय प्रणाली से उम्मीद रहती है कि उनके साथ इंसाफ होगा और इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं दिखता है. ऐसे में जब न्यायतंत्र ही गलत करने लगेगा, तो फिर जनता का आखिरी भरोसा भी छिन जायेगा.

इसलिए हमारी सरकार और न्यायपालिका से यही उम्मीद है कि वे आनेवाले साल में कम-से-कम जनता के भरोसे को बनाये रखेंगे. न्यायपालिका और सरकार के बीच जारी खींचतान के बीच वर्ष 2016 ने हमारे लोकतंत्र को कुछ सशक्त भी किया और कमजोर भी. संसद कानून बनाती है, लेकिन जिस तरह से संसद के बीते सत्रों में हंगामा हुआ, वह कहीं से भी लोकतंत्र को मजबूत नहीं कर सकता. यह लोकतंत्र के लिए एक लज्जाजनक बात है. हालांकि, इस वर्ष आर्थिक और सुरक्षा समेत कालेधन से लड़ने के लिए उठाये गये कदमों के लिए सरकार बधाई की पात्र है़

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

क्या है कॉलेजियम प्रणाली

कॉलेजियम सिस्टम न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए जिम्मेवार निकाय है. इसका गठन उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्देशों के अनुसार हुआ है. उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम का प्रमुख प्रधान न्यायाधीश होते हैं और इसी न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीश इसके सदस्य होते हैं. वहीं, उच्च न्यायालय कॉलेजियम का प्रमुख इस न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश होता है और न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीश इसके सदस्य होते हैं. इस कॉलेजियम के सदस्यों की नियुक्ति प्रधान न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम की स्वीकृति के बाद ही होती है.

न्यायालयों में लंबित मामले

– उच्चतम न्यायालय में लंबित मामले- 61,847 (30 नवंबर, 2016 तक), इनमें से 17,296 मामले लगभग सालभर पुराने हैं, जबकि 44,551 मामले एक वर्ष से ज्यादा पुराने हो चुके हैं.

38 लाख मामले लंबित हैं देशभर के विभिन्न उच्च न्यायालयों में (31 दिसंबर, 2015 तक), इनमें से 7,45,029 मामलों को एक दशक हो चुका है.

2,30,02468 मामले लंबित हैं जिला न्यायालयों में (27 नवंबर, 2015 तक), इनमें से 2,32,3781 मामले एक दशक से भी अधिक पुराने हैं.

(स्रोत : नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड)

न्यायपालिका पर न हो सरकार का नियंत्रण

प्रोफेसर फैजान मुस्तफा – वाइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद

करीब 83 फीसदी मामले उच्च अदालतों में या तो सरकार ने फाइल किये हैं या सरकार के विरुद्ध फाइल किये गये हैं, और सरकार एक ‘पार्टी’ (पक्ष) है. देश में 80 प्रतिशत मुकदमेबाजी (लिटिगेशन) सरकार की तरफ से हो रही है.

ऐसे में क्या कोई ‘पार्टी’ जजों की नियुक्ति कर सकती है या उसे यह अधिकार मिलना चाहिए? इसलिए जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका नहीं होनी चाहिए. कॉलेजियम में थोड़ा-बहुत बदलाव के साथ उसमें लॉ प्रोफेसरों को लाया जाये और जजों की नियुक्ति जजों के ही हाथ में रहे. नागरिकों को न्यायपालिका पर अब भी भरोसा बना हुआ है. नागरिक की अपनी स्वतंत्रता और अपने अधिकार तभी सुरक्षित होंगे, जब न्यायपालिका स्वतंत्र हो.

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