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यूएन में बदलाव

अंगरेजी की एक कहावत है कि ‘द डेविल इज इन द डिटेल’ यानी खुराफात दस्तावेज के चेहरे में नहीं, बल्कि उसके ब्यौरे में कहीं छुपी होती है. अगले महीने अमेरिकी राष्ट्रपति का पदभार संभालनेवाले डोनाल्ड ट्रंप की संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की आलोचना पर यही कहावत लागू होती है. इस विश्व संस्था के बारे में तीखे […]

अंगरेजी की एक कहावत है कि ‘द डेविल इज इन द डिटेल’ यानी खुराफात दस्तावेज के चेहरे में नहीं, बल्कि उसके ब्यौरे में कहीं छुपी होती है. अगले महीने अमेरिकी राष्ट्रपति का पदभार संभालनेवाले डोनाल्ड ट्रंप की संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की आलोचना पर यही कहावत लागू होती है.
इस विश्व संस्था के बारे में तीखे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए ट्रंप ने कहा है कि इसमें संभावनाएं तो बहुत ज्यादा हैं, पर यह संस्था फिलहाल कर्मवीरों की जगह वचनवीरों का आरामगाह बन कर रह गयी है. ट्रंप ने अपनी खास शैली में यह भी कहा है कि उनके राष्ट्रपति बनने के साथ ही यूएन को आरामतलबी की मौजूदा रीत पर चलाना मुश्किल हो जायेगा. बदलते वक्त में प्रासंगिक बने रहने के लिए हर संस्था का बदलना जरूरी होता है. लेकिन, बदलाव की मंशा भी देखी जानी चाहिए. क्या बदलाव की मंशा जता कर ट्रंप वही मकसद हासिल करना चाहते हैं, जो यूएन के बाकी सदस्य देश? यूएन को बदलने का ट्रंप का मकसद उनकी राजनीति के अनुरूप ही निराला है.
यह आलोचना उनके मुंह से तब निकली है, जब यूएन में फिलिस्तीन क्षेत्रों में यहूदी बस्तियां कायम करने की इजरायल की कोशिशों की फजीहत हो गयी. ट्रंप की मांग थी कि अमेरिका सुरक्षा परिषद् में अपनी वीटो शक्ति का इस्तेमाल करे, ताकि इजरायल किसी निंदा प्रस्ताव का सामना करने से बच जाये. लेकिन, वीटो करने की जगह बराक ओबामा की रहनुमाई वाले अमेरिका ने मसले पर तटस्थ रहना उचित समझा.अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक, फिलिस्तीन के विभिन्न इलाकों में यहूदी बस्तियां अवैध हैं, परंतु इजरायल को इस पर घोर आपत्ति है.
जाहिर है, 20 जनवरी की तारीख के बाद ट्रंप की मंशा यूएन को अपनी मंशा के माफिक बनाने की होगी. इजरायल की पूरी पक्षधरता के संकेत उनके चुनाव अभियान से मिल चुके हैं. बेशक यूएन के ढांचे, प्रशासन और कामकाज के तौर-तरीकों में फेर-बदल जरूरी हैं, पर यह सब ट्रंप या कुछेक देशों के इच्छानुसार ही नहीं किये जाने चाहिए. शांति और प्रगति की वैश्विक संस्था के रूप में यूएन एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है.
जरूरत इसके ढांचे, खासकर सुरक्षा-परिषद्, को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की है, ताकि स्थायी पांच सदस्य देशों की किसी मुद्दे पर मनमानी न चले. दुनिया से गरीबी और विषमता हटाने और अमन-चैन कायम करने के लिए यूएन ने हाल के सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों से लेकर शांति-सेना भेजने तक अनगिनत काम किये हैं. कोशिश होनी चाहिए कि यूएन अपने कार्यों के लिए आर्थिक रूप से ज्यादा सक्षम और राजनीतिक रूप से ज्यादा स्वायत्त हो.

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