विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
आपने भी देखा होगा समाचार चैनलों पर वह दृश्य, जिसमें त्रिपुरा विधानसभा का एक विधायक स्पीकर का राजदंड लेकर इधर-उधर भाग रहा है और कुछ लोग, शायद सदन के सुरक्षा कर्मचारी, उसके पीछे भाग रहे हैं. सुना है, विधायक इस बात से नाराज था कि स्पीकर ने उसे सदन में कोई मुद्दा उठाने नहीं दिया. जब मैं यह दृश्य देख रहा था, तो मुझे लग रहा था कि विधायक हमारे जनतंत्र की मर्यादाओं और परंपराओं को लिये भाग रहा है.
तब मैं सोच रहा था कि संसद के शीतकालीन सत्र में हमारे सांसदों ने दोनों सदनों की कार्यवाही को ठप करके क्या जनतांत्रिक मर्यादाओं और संसदीय परंपराओं को उसी तरह अपमानित नहीं किया है, जैसे त्रिपुरा का यह विधायक कर रहा है? हो सकता है कि संसद की कार्यवाही में बाधा डालनेवाले सांसदों के पास अपने व्यवहार का कोई ठोस कारण हो. लेकिन, कोई भी ऐसा कारण संसद को अपना काम न करने देने का औचित्य सिद्ध नहीं कर सकता. जनतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोपरि है और संसद का काम हर नागरिक के हितों, अधिकारों की रक्षा करना है. निर्वाचित प्रतिनिधियों का परम दायित्व यही है कि वे देखें कि उनके मतदाताओं (नागरिकों) के मंतव्यों, हितों और आवश्यकताओं का उचित और प्रभावकारी ढंग से संसद में प्रतिनिधित्व हो. क्या शोर-शराबे से देश का हित सधेगा?
पिछले सत्तर साल में यह पहली बार नहीं है, जब संसद की कार्यवाही को बाधित किया गया हो. विपक्ष में चाहे जो भी रहा हो, उसने कार्यवाही में रुकावट पैदा करने की कोशिशें लगातार की हैं. इस रुकावट का औचित्य सिद्ध करने की कोशिशें भी होती रही हैं. जब भाजपा विपक्ष में थी, तब उसने सदन के काम में बाधा डालना अपना अधिकार समझा था और अब कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष अपने इसी ‘अधिकार’ की दुहाई दे रहा है.
सवाल इस बात का नहीं है कि सदन में कितने विधेयक पारित हुए या नहीं हो पाये; और सवाल यह भी नहीं है कि संसद की कार्यवाही न चलने से कितने करोड़ रुपये बरबाद हो गये. ये दोनों बातें महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सर्वोपरि महत्व की बात यह है कि संसद में वह काम नहीं हुआ, जिसके लिए संसद है और सांसदों ने वह काम नहीं किया, जिसके लिए उन्हें चुन कर भेजा गया है.
बाकी जो कुछ हुआ, उसके परिणामस्वरूप जनतांत्रिक मर्यादाएं और परंपराएं ही अपमानित हुई हैं. जिस जनतांत्रिक व्यवस्था को हमने अपने लिए स्वीकार किया है, उसमें संसद इसलिए सर्वोच्च है, क्योंकि उसके जिम्मे देश के हर नागरिक के हितों की रक्षा का दायित्व है. सवाल पूछा जाना चाहिए कि संसद के शीतकालीन सत्र के इस तरह व्यर्थ हो जाने से किसका, कौन-सा हित सधा है? एक तरफ प्रधानमंत्री बार-बार यह जुमला उछाल रहे हैं कि ‘हम नोटबंदी में लगे हैं और विपक्ष संसद बंद करने में’ और दूसरी और विपक्ष यह दावा कर रहा है कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष के आरोपों से डर कर सत्ता-पक्ष ने आखिरी दिन भी संसद नहीं चलने दी. संसद की कार्यवाही ढंग से चले, इसकी बुनियादी जिम्मेवारी सत्ता-पक्ष की होती है. वह यह जिम्मेवारी निभाने में विफल रहा. सरकार ढंग से काम करे, यह सुनिश्चित करने का काम विपक्ष का है. विपक्ष यह काम नहीं कर पाया.
सवाल उठता है यह स्थिति क्यों बनी? उत्तर यह है कि दोनों पक्ष संसद का सम्मान नहीं करना चाहते थे.
नोटबंदी के मसले पर संसद के सदनों को छोड़ कर प्रधानमंत्री हर जगह बोले. वे यह भी कहते रहे कि सदन में उन्हें इस बारे में बोलने नहीं दिया गया, इसलिए वे जनसभा में बोल रहे हैं. विपक्ष लोकसभा में किसी नियम विशेष के तहत बहस चाहता था, राज्यसभा में वह चाहता था कि प्रधानमंत्री उसका जवाब दें. लोकसभा में यदि इस पर बहस के बाद मतदान हो भी जाता, तो क्या हो जाता? भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए का पूर्ण बहुमत है, फिर क्यों डरी सरकार?
और राज्यसभा में भी यदि प्रधानमंत्री विपक्ष के नेताओं की बातें सुन लेते, तो उनकी शान क्यों घट जाती? सच पूछा जाये, तो शान संसद की घटी है. जनतंत्र की घटी है. इस देश के आम नागरिक की घटी है. कहा जा सकता है कि विपक्ष ही न अड़ता तो बेहतर था. अपनी बात तो कह पाता विपक्ष. फिर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पर आरोप लगाने के लिए संसद में ही मुंह खोलने की जिद क्यों की? इस विषय में राहुल का मौन भी जनतंत्र के प्रति अपराध ही होगा.
प्रधानमंत्री के सदन में न बोलने, और कांग्रेस उपाध्यक्ष के सदन में ही बोलने की जिद कुल मिला कर जनतांत्रिक मर्यादाओं के उल्लंघन की श्रेणी में ही आती है.
संसद के सत्र का निरर्थक हो जाना सत्ता और विपक्ष, दोनों के मंतव्यों पर शक उत्पन्न करता है. आखिरी दिन तो स्वयं सत्ता-पक्ष ने सदन की कार्रवाई नहीं चलने दी! यह हमारे संसदीय इतिहास की अभूतपूर्व घटना है और राष्ट्रपति का यह कहना भी अभूतपूर्व है कि- ‘भगवान के लिए संसद चलने दें’! उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे से जनतंत्र के राजदंड का और अपमान हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं करेंगे.