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सहकारी संघवाद चलाना मुश्किल

संदीप मानुधने विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद् आज के राजनीतिक विवादों (विशेषकर नोटबंदी के बाद के संघर्ष) को देखें, तो सवाल उठता है कि भारत संघात्मक है या एकात्मक? इसका विश्लेषण इतिहास, संविधान और आर्थिक वास्तविकताओं को समझने से हो सकेगा. सहयोगी संघवाद (कोआॅपरेटिव फेडेरलिज्म) वह दृष्टिकोण है, जिसमें राष्ट्रीय और राज्य सरकारें साझा समस्याओं को […]

संदीप मानुधने
विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद्
आज के राजनीतिक विवादों (विशेषकर नोटबंदी के बाद के संघर्ष) को देखें, तो सवाल उठता है कि भारत संघात्मक है या एकात्मक? इसका विश्लेषण इतिहास, संविधान और आर्थिक वास्तविकताओं को समझने से हो सकेगा.
सहयोगी संघवाद (कोआॅपरेटिव फेडेरलिज्म) वह दृष्टिकोण है, जिसमें राष्ट्रीय और राज्य सरकारें साझा समस्याओं को सुलझाने के लिए परस्पर सहयोग करती हैं. इसके सफल परिचालन के लिए शक्तियों का एक संघीय संतुलन निर्मित करना आवश्यक है.
एकता से शक्ति, मतभेद से बिखराव सदा स्मरण रहना चाहिए. गांधीजी ने 1942 में कहा था- ‘विश्व के भविष्य हेतु शांति, सुरक्षा और व्यवस्थित प्रगति हेतु स्वतंत्र देशों का एक विश्व संघ बने, जो अपने सदस्यों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए किसी एक द्वारा दूसरे के प्रति आक्रामकता और शोषण रोके, राष्ट्रीय हितों की रक्षा करे, पिछड़े इलाकों और लोगों को आगे बढ़ाये और विश्व के संसाधनों को सबके हित हेतु इस्तेमाल करे’. इस दर्शन को फलीभूत होने में अभी समय है, किंतु भारत में तो हम इसका परीक्षण कर ही सकते हैं.
विश्व भर में जबसे लोकतंत्र के आधुनिक स्वरूप ने आकार लिया है, तभी से केंद्रीय प्रश्न यही रहा है कि केंद्रीकरण करें या नहीं? कनाडा के सरलता से जुड़े हुए परिसंघ से लेकर अमेरिका की संघीय संरचना तक फैले हुए वर्णपट में, हम भारतीय प्रारूप भी देखते हैं, जो अर्ध-संघीय स्वरूप लिये हुए लगभग एकात्मक होने की सीमा पर है.
डॉ आंबेडकर का कहना था कि ‘संघ का अर्थ है एक द्वैत हुकूमत (दोहरे राज) की स्थापना. मसौदा संविधान में द्वैत हुकूमत के तहत केंद्र में केंद्र सरकार होगी और परिधि में राज्य सरकारें होंगी, जिनके पास वे संप्रभु शक्तियां होंगी, जिनका उपयोग वे संविधान द्वारा निर्दिष्ट क्षेत्रों में कर सकेंगी.’ भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का कहना था कि ‘संघ की इकाइयों को काफी स्वायत्तता दी जायेगी.’
अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा है- ‘संघवाद अब केंद्र-राज्य संबंधों की फॉल्ट-लाइन (तड़कन रेखा) न रहते हुए टीम इंडिया नामक एक नयी भागीदारी की परिभाषा बन चुका है.’
भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में लचीलापन और दृढ़ता दोनों ही एक साथ आवश्यक हैं. आधुनिक गणतंत्र के जन्म से ही एक मजबूत केंद्र की आवश्यकता थी, लेकिन भारत की विशालता के चलते कोई एकल बल कभी भी इसे बांध कर रख पाने में, और सभी नागरिकों को खुश रख पाने में अक्षम रहेगा. विकेंद्रीकरण अनिवार्य है, जैसा नीति आयोग के निर्माण से दिखा. लेकिन, अब लगातार घर्षण बढ़ रहा है. सबका कहना है कि यदि एक स्पष्ट-रूप से परिभाषित रूपरेखा नहीं होगी, तो परस्पर टकराव होगा. संविधान ही वह रूपरेखा है. एक शक्ति-संपन्न मध्यस्थ के रूप में सर्वोच्च न्यायालय नामक प्रहरी है, जो जटिल संघीय विवादों के निराकरण में सहायता करता है.
यह बदलाव अचानक आज नहीं हो रहा है. 1991 से हुए आर्थिक उदारीकरण ने केंद्र सरकार का महत्व बढ़ाया. जैसे-जैसे अंतर-राज्य व्यापार और वाणिज्य बढ़ना शुरू हुआ, वैसे-वैसे एक ऐसी कानूनी रूपरेखा की आवश्यकता महसूस होने लगी, जो इस प्रवाह को रोकने के बजाय, उसको तेज करने के लिए सहायक हो.
जब योजना आयोग अस्तित्व में था, उस समय दक्षिणी राज्यों की अक्सर यह शिकायत रहती थी कि निधि आवंटन में उनके साथ सौतेला व्यवहार होता है. विशाल केंद्रीय योजनाएं विवाद का एक अन्य कारण बनीं और इसमें योजनाओं की ब्रांडिंग एक बड़ा मुद्दा थी. जब केंद्रीय बजट का आकार बढ़ता रहा, तब सामान्य नागरिकों के जीवन को छूनेवाली योजनाओं का आकार बढ़ाया गया. चुनावी मजबूरियों के कारण श्रेष्ठ परिवर्तनवादी योजनाओं का भी बुनियादी मुद्दों पर विरोध हो सकता है- जैसे ‘प्रधानमंत्री जन-धन योजना’ के बजाय ‘प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री जन-धन योजना’ क्यों न कहा जाये!
गंठबंधन सरकारों के समय अनिवार्य रूप से काफी विकेंद्रीकरण हुआ, लेकिन जैसे ही केंद्र में बहुमत की सरकार स्थापित हुई, वैसे ही समस्याएं उभरना शुरू हो गयीं. आंतरिक व्यापार और वाणिज्य व्यापार को प्रभावित करनेवाली अत्यंत जटिल संरचनाओं के परिणामस्वरूप सरलीकरण की मांगें निरंतर रूप से उठने लगीं. लेकिन, जीएसटी शासन को अस्तित्व की शुरुआत करने में लगभग एक दशक का समय लग गया. और अब नोटबंदी से पैदा संघर्ष के चलते जीएसटी को आने में और देरी होने की चिंताएं स्पष्ट हो चली हैं.
सैद्धांतिक दृष्टि से सहकारी संघवाद अच्छा लगता है. वर्तमान सरकार ने नीति आयोग की बैठकों के दौरान ‘टीम इंडिया’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल या सर्व-समावेशी जीएसटी परिषद के निर्माण, इत्यादि जैसे सरल संकेतों के माध्यम से उल्लेखनीय समझदारी का परिचय दिया है. वित्त आयोग ने भी अपनी 14वीं रिपोर्ट में सिफारिश की कि राज्यों का केंद्रीय कर राजस्व संग्रहण में अधिक हिस्सेदारी का अधिकार होना चाहिए.
सहकारी संघवाद भारत में चलाना कठिन क्यों है-
पहला- विविधताओं और असमानताओं के संजाल के कारण भिन्न-भिन्न महत्वाकांक्षाएं-आकांक्षाएं निर्मित होती हैं. उन्हें पहचानना, उन्हें हल करना और सब राज्यों को एक मंच पर लाना चुनौतीपूर्ण है. अभी तक तो भारत में यह नहीं हो पाया है.
दूसरा- स्वस्थ प्रतियोगिता बनाम लोकलुभावनवाद- राज्यों के आकार के साथ ही उनमें संसाधनों की उपलब्धता में भिन्नता है. सहकारी संघवाद के सफल क्रियान्वयन के लिए केंद्र और राज्यों के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता का माहौल बनाने की जरूरत है. वे बिंदु, जहां यह स्वस्थ प्रतियोगिता एक लोकलुभावनवाद (पॉपुलिज्म) में परिवर्तित हो जाती है, वे खतरनाक हैं.
तीसरा- भारत के खंडित राजनीतिक परिदृश्य के कारण भी सहकारी संघवाद का क्रियान्वयन कठिन होगा.आज भारत बड़ी समस्याओं से जूझते हुए एक दोराहे पर खड़ा है. विशाल युवा जनसंख्या जीवन की मूलभूत समस्याओं का हल चाहती है. इससे पहले कि यह जनसांख्यिकी लाभांश किसी जनसांख्यिकी विनाश में परिवर्तित हो जाये, राजनीतिक वर्गों को इन विवादों से ऊपर उठ कर समाधान देना ही होगा.

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