मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में उसकी सोच का बहुत बड़ा स्थान है. मनुष्य जैसा सोचता है, ठीक वैसा ही बन जाता है. सोच का अर्थ है- विचार. विचार उत्पन्न होता है मस्तिष्क में. वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारे मस्तिष्क में अनंत ग्रंथियां हैं. इनमें कुछ सुशुप्त ग्रंथियां हैं और कुछ सक्रिय ग्रंथियां हैं. जब कभी हम इन ग्रंथियां पर दबाव डालते हैं या उनमें स्पंदन पैदा करते हैं, तो वे सक्रिय हो जाती हैं और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगती हैं. मनुष्य अपने मस्तिष्क की ग्रंथियों को सक्रिय कर उसके फल को प्राप्त करता है. लेकिन पशु ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि उसके पास अपने विवेक को जागृत करने की शक्ति नहीं होती. मनुष्य इस अर्थ में भाग्यशाली है कि वह चिंतन कर सकता है, विचार कर सकता है, अच्छे-बुरे का निर्णय कर सकता है. यह गुण केवल मनुष्य को प्राप्त है.
पशु जो भी करता है, अभ्यास के कारण करता है. यह बात भी सही है कि जब अबोध बालक रहता है, तो वह भी पशु समान ही रहता है. कई लोग प्रश्न उठाते हैं कि जन्म के बाद पशु अपनी मां के स्तन को खोज लेता है और दूध पीने लगता है. पशु अपने विवेक के कारण ऐसा नहीं करता, वह अपने पूर्वजन्म के अभ्यास के कारण ऐसा करता है. मनुष्य के पास भी कई ऐसी आदतें होती हैं, जिन्हें वह अपने विवेक अथवा किसी प्रशिक्षण से नहीं सीखता, वह स्वत: ऐसा करने लगता है. शरीर की मांग ही ऐसा होती है कि वह ऐसा करने लगता है, जैसे भोजन करना, बाथरूम जाना, काम-क्रीड़ा आदि, क्योंकि आहार, भय, निद्रा और मैथुन ये मनुष्य की चार मूल प्रवृत्तियां हैं. उसे सिखाने की आवश्यकता नहीं होती.
यह प्रवृत्ति जैसी मनुष्य की है, वैसी अन्य जीवों की भी है. लेकिन, मनुष्य के मस्तिष्क में सुप्त ग्रंथियां हैं, उसे जगाने की शक्ति केवल मनुष्य को होती है. मनुष्य एक विचारशील प्राणी है, क्योंकि वह विचार कर सकता है, सोच सकता है, चिंतन कर सकता है. मनुष्य को चिंतन करने की शक्ति है. मस्तिष्क की ग्रंथियां का काम केवल ऊर्जा पैदा करना है, अब मनुष्य अपने विवेक से उस ऊर्जा का प्रयोग करता है. उस ऊर्जा का गलत दिशा में भी प्रयोग हो सकता है. यह उसकी सोच और चिंतन पर निर्भर करता है.- आचार्य सुदर्शन