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घोटाले की आशंका के बाद रद्द हुई अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर डील

वर्ष 2010 के फरवरी में केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने यूके की कंपनी अगस्ता वेस्टलैंड से भारतीय वायु सेना के लिए 3,600 करोड़ रुपये में एडब्ल्यू 101 श्रेणी के 12 हेलीकॉप्टर खरीदने का कॉन्ट्रैक्ट किया गया था. इनका इस्तेमाल मुख्य रूप से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समेत देश के विशिष्ट व्यक्तियों के लिए किया जाना […]

वर्ष 2010 के फरवरी में केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने यूके की कंपनी अगस्ता वेस्टलैंड से भारतीय वायु सेना के लिए 3,600 करोड़ रुपये में एडब्ल्यू 101 श्रेणी के 12 हेलीकॉप्टर खरीदने का कॉन्ट्रैक्ट किया गया था. इनका इस्तेमाल मुख्य रूप से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समेत देश के विशिष्ट व्यक्तियों के लिए किया जाना था. हालांकि, अगस्ता वेस्टलैंड के सीइओ ब्रूनो स्पैग्नोलिनी और उसकी पैरेंट कंपनी इटली की फिनमेकानिका के चेयरमैन जिसेपी ओरसी की भ्रष्टाचार में लिप्तता पाये जाने और उनकी गिरफ्तारी के बाद सरकार ने उस डील को रद्द कर दिया. तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने घाेटाले की सीबीआइ जांच का आदेश दिया था. मार्च, 2013 में एंटोनी ने कहा था कि सीबीआइ इस घोटाले की जांच पुरजोर तरीके से कर रही है.

वर्ष 2014 के आरंभ में इटली की अदालत ने जांच के दौरान पाया कि इस घोटाले में भारतीय वायु सेना के पूर्व प्रमुख एसपी त्यागी भी शामिल थे और फिनमेकानिका ने इस डील के लिए उन्हें भी घूस दिया था. हालांकि, वर्ष 2015 में इटली की अदालत ने त्यागी को इस आरोप से बरी कर दिया था.

भारतीय वायु सेना ने रक्षा मंत्रालय से ऐसे हेलीकॉप्टर खरीदने का अनुरोध किया था, जो सियाचीन और टाइगर हिल जैसी ऊंची जगहों पर उड़ान भरने में सक्षम हो, लेकिन एडब्ल्यू-101 का निरीक्षण करने पर पाया गया कि यह समुद्र तल से 6,000 मीटर से ऊपर उड़ान भरने में सक्षम नहीं था. इस डील में शामिल आरोपी बिचौलिया ग्यूडो हैशके ने खुलासा किया कि यह हेलीकॉप्टर भारतीय वायु सेना की तकनीकी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं है, लेकिन भारतीय संपर्क की बदौलत बाद में वह अपने बयान से पलट गया और डील साइन हो गयी. इसके तहत 30 मिलियन यूरो घूस दिया गया, जिसमें से 20 मिलियन यूरो हश्के और कार्लो गेरोसा के जरिये दिया गया था.

विमान बनानेवाली कंपनी एंब्रायर ने भारतीय बिचौलिये को दी अवैध रकम

ब्राजील की एक विमान बनानेवाली कंपनी एंब्रायर ने यूपीए शासनकाल के दौरान भारत से तीन इएमबी-145 जेट विमानों के लिए 200 मिलियन डॉलर का सौदा किया था. अब इस रक्षा सौदे में ब्राजील और अमेरिकी कानून मंत्रालय ने आरोप लगाया है कि इस डील के लिए एंब्रायर ने ब्रिटेन स्थित बिचौलिये को कमीशन दिया था. जानते हैं इस मसले से जुड़े प्रमुख बिंदुओं के बारे में :

< दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कॉमर्शियल जेट निर्माता एंब्रायर से वर्ष 2008 में तीन सर्विलांस एयरक्राफ्ट खरीदने के लिए किया गया था यह सौदा.

< इस कंपनी पर अमेरिकी कानून विभाग और ब्राजील के जांचकर्ताओं से मामले को सेटल करने के लिए 205 मिलियन डॉलर राशि देने का आरोप है, ताकि चार विदेशी बिचौलियों को साधा जा सके, जिनमें से एक भारत से है.

< तीनों एंब्रायर एयरक्राफ्ट को भारतीय वायु सेना को सौंपा जायेगा, जो वायु रक्षा क्षेत्र में पैदा होनेवाली चुनौतियों की निगरानी करने में सक्षम होंगे. इन चुनौतियों की पहचान करते हुए एंब्रायर प्लेटफाॅर्म के जरिये फाइटर जेट्स इंस्टॉल किये जा सकते हैं, ताकि पाकिस्तान या चीन के विमानों से निपटा जा सके.

< अमेरिकी सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन ने एंब्रायर पर यह आरोप लगाते हुए शिकायत की थी कि उसने विदेशी बिचौलियों से 83 मिलियन डॉलर से ज्यादा मुनाफा कमाया था, जिसमें 11.7 मिलियन डॉलर घूस के जरिये हासिल हुई थी और शेष रकम काे गलत एकाउंटिंग से गबन किया गया था.

< विपिन खन्ना नामक आर्म्स डीलर पर कथित तौर से रिश्वत दिये जाने की खबरें आने के बाद भारत में भी सीबीआइ ने मामले की जांच की है.

< अमेरिकी जांचकर्ताओं के मुताबिक, कथित तौर पर रिश्वत देने के एंब्रायर के खातों में गलत तरीके से दर्शाया गया था और उसे कंसल्टिंग एग्रीमेंट के रूप में दिखाया गया था, जो वैध नहीं था.

< भारतीय रक्षा खरीद नियमों के मुताबिक, किसी भी रक्षा कॉन्ट्रेक्ट में बिचौलिये को कोई रकम नहीं दिया जा सकता है और यदि इस तरह के कोई साक्ष्य पाये जाते हैं, तो सरकार उस कॉन्ट्रेक्ट को रद्द कर सकती है.

रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार-वैश्विक परिदृश्य

पिछले साल प्रकाशित ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार, रक्षा क्षेत्र में पारदर्शिता के मामले में भारत चीन, पाकिस्तान और श्रीलंका से आगे है, जबकि बांग्लादेश से पीछे है. इसमें कहा गया है कि भारत को विधायिका की निगरानी में सुधार करने और भ्रष्टाचार की संभावना पर नियंत्रण लगाने की जरूरत है.

इस रिपोर्ट में एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 17 देशों का अध्ययन किया गया है. अध्ययन के बाद भारत को ‘डी’ श्रेणी में रखा गया है, जो इस बात का संकेत है कि रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के मामले में यह देश बेहद संवेदनशील है. इस श्रेणी में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भारत को चीन, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों के मुकाबले आगे रखते हुए आठवां स्थान दिया है.

रिपोर्ट में इस ओर भी ध्यान आकृष्ट किया गया है कि रक्षा संस्थानों को लेकर सार्वजनिक जवाबदेही कम होने के कारण इस क्षेत्र में पारदर्शिता को लेकर कहीं ज्यादा जोखिम है. इसका मतलब यह हुआ कि नियंत्रक-महालेखा परीक्षक अगर शक्तिशाली नहीं हैं, तो रक्षा प्राप्ति में भ्रष्टाचार की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.

हालांकि, भारत के ज्यादातर आसन्न पड़ोसी ट्रांसपेरेंसी की सूची में इससे नीचे हैं, लेकिन अप्रत्याशित तौर पर इस सूची में बांग्लादेश ऊपरी पायदान पर खड़ा है, बावजूद इसके कि उसे भी भारत के साथ रिस्क ब्लॉक की श्रेणी में रखा गया है. इस सूची में मजबूत व्यवस्था के आधार पर सबसे ऊपर न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, ताइवान और जापान को स्थान दिया गया है.

इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि केवल भारत ही ऐसा देश है जहां इसके खुफिया एजेंसियों पर विधायिका की किसी तरह की निगरानी और गुप्त व्यय (उदाहरण के लिए खुफिया एजेंसियों और राष्ट्रीय सुरक्षा पर होनेवाले खर्च) पर किसी तरह की संसदीय समीक्षा का प्रावधान नहीं है. रिपोर्ट में इस बात की सराहना की गयी है कि भारत का नेतृत्व बेरोकटोक चल रही इन गतिविधियों पर निगरानी रखने का इच्छुक है.

भारत और चीन

बीते दशक में जहां भारत ने अपने रक्षा बजट में 147 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की, वहीं इसी अवधि में चीन ने अपनी सेना पर होनेवाले खर्च को बढ़ा कर 447 प्रतिशत कर दिया. लेकिन, रक्षा सौदों की प्राप्ति में भ्रष्टाचार की स्वतंत्र प्राधिकरण द्वारा जांच सुनिश्चत करने में दोनों ही देश नाकाम रहे हैं, इससे इस बात का भय बढ़ रहा है कि राजनीति प्रेरित इन गतिविधियों से कही इस क्षेत्र की स्थिरता बाधित न हो जाये.

रक्षा प्राप्ति में भ्रष्टाचार को लेकर भारत को ब्लॉक ‘डी’ में बहुत उच्च जाखिम के साथ रखा गया है, जबकि चीन, पाकिस्तान और थाईलैंड जैसे उसके पड़ोसी देशों को ब्लॉक ‘इ’ में रखा गया है. इसका मतलब यह हुआ कि इन देशों में भ्रष्टाचार का जोखिम बेहद नाजुक स्थिति में है.

इस रिपोर्ट के अनुसार, गुप्त व्यय के तौर पर चीन लगभग 30 प्रतिशत खर्च करता है और इस खर्च के मामले में वह विश्व में पहले स्थान पर है. लेकिन, वह सैन्य शक्ति पर नियंत्रण रखने में असफल रहा है, जो इस क्षेत्र की स्थिरता के लिए खतरा बन सकता है. यह भी गौर करनेवाली बात है कि जिस देश ने इ-प्रॉक्यूरमेंट यानी ऑनलाइन माध्यम को अपना कर नियंत्रण और संतुलन को बढ़ाने का प्रयास किया हो, उस देश द्वारा इन सौदों को लेकर व्यापक मूल्यांकन करने के प्रमाण नहीं हैं. रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि रक्षा प्राप्ति में जांच-पड़ताल को लेकर पारदर्शिता की कमी से भी इस दृष्टिकोण को बढ़ावा मिला है कि यह कदम राजनीति से प्रेरित होकर उठाया गया है.

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