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UP Election: भैंस बेच कर 1800 रुपये में जीते चुनाव

!!बहराइच से कृष्ण प्रताप सिंह!! यूपी के बहराइच जिले में एक दलित नेता थे–भगौती प्रसाद. जब भी विधानसभा के चुनाव होनेवाले होते हैं, जिले के आम लोग उन्हें शिद्दत से याद करते हैं. कहते हैं कि राजनीति की काजल की कोठरी में रह कर भी वे न कभी बद हुए और न ही बदनाम. खुद […]

!!बहराइच से कृष्ण प्रताप सिंह!!

यूपी के बहराइच जिले में एक दलित नेता थे–भगौती प्रसाद. जब भी विधानसभा के चुनाव होनेवाले होते हैं, जिले के आम लोग उन्हें शिद्दत से याद करते हैं. कहते हैं कि राजनीति की काजल की कोठरी में रह कर भी वे न कभी बद हुए और न ही बदनाम. खुद को दलित का बेटा कह कर अपने भाई बंधुओं के साथ इमोशनल अत्याचार करके उस ‘कोठरी’ में जमे रहने की कोशिश भी नहीं की. राजनीति में ईमानदारी, नैतिकता, उसूलों व सिद्धांतों के लिए अपना समूचा जीवन देने के बाद वे सामाजिक कृतघ्नता की कीमत चुकाने को भी अभिषप्त हुए.

अत्यंत दारुण परिस्थितियों के बीच दुनिया से गये तो भी आधी–अधूरी खबर ही बना सके! जिले के बुजर्ग बताते हैं कि इकौना विधानसभा क्षेत्र की जनता ने वर्ष 1967 में भगौतीप्रसाद को जनसंघ का विधायक चुना, तो वे उसके दीपक की बाती हुआ करते थे. 1964 में इस पार्टी के बहुचर्चित पूर्व सांसद केके नैयर के साथ उन्होंने अपना राजनीतिक सफर शुरू किया तो उनके पास खोने के लिए गरीबी को छोड़कर कुछ नहीं था. महात्मा गांधी के सादगी भरे जीवन से बहुत गहरे प्रभावित होने के बावजूद वे खुद को उनकी वारिस कहने वाली कांग्रेस से नहीं जुड़े क्योंकि उनको लगता था कि उसने उनका रास्ता छोड़ दिया है. 1967 में जनसंघ ने उन्हें चुनाव लड़ाना चाहा. धनाभाव रास्ता रोकने चला तो उन्होंने 1800 रुपयों में अपनी एकमात्र भैंस बेंच दी. उतने से कुछ कम में ही अपनी उम्मीदवारी का प्रचार करके जीत गये.

उन्होंने 1969 के विधानसभा चुनाव में भी जनता का विश्वास नहीं खोया क्योंकि अपने या अपने परिवार के लिए भूमि, भवन, संपदा या वाहन के जुगाड़ में नहीं लगे. जीप या कार खरीदने की हैसियत नहीं थी, इसलिए इकौना से लखनऊ की यात्रा वे बस या रेल से करते थे. लेकिन बाद में राजनीति में कुछ दूसरी ही तरह के सिक्के चलने लगे. उन्होंने पाया कि वे उनको प्रचलन से बाहर नहीं कर पा रहे, तो उनके दूषित प्रवाह में बहने के बजाय किनारा कर लेना बेहतर समझा. उन्होंने राजनीति को धनोपार्जन का साधन नहीं बनाया था इसलिए जल्दी ही उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी. जीवन के अंतिम दिन गुमनामी और बदहाली में बिताने पड़े.

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