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नयी तकनीकों के इस्तेमाल से होगी कैंसर की पहचान आसान!

लैब-ऑन-ए-चिप टेक्नोलॉजी समय रहते कैंसर की बीमारी को पहचान पाना दुनियाभर के वैज्ञानिकों के समक्ष अब भी बड़ी चुनौती बनी हुई है़ विशेषज्ञों का मानना है कि आरंभिक दौर में ही यदि इसके लक्षणों को पहचान लिया जाये, तो इस पर आसानी से काबू पाया जा सकता है़ लिहाजा दुनियाभर के शोधकर्ता इस दिशा में […]

लैब-ऑन-ए-चिप टेक्नोलॉजी
समय रहते कैंसर की बीमारी को पहचान पाना दुनियाभर के वैज्ञानिकों के समक्ष अब भी बड़ी चुनौती बनी हुई है़ विशेषज्ञों का मानना है कि आरंभिक दौर में ही यदि इसके लक्षणों को पहचान लिया जाये, तो इस पर आसानी से काबू पाया जा सकता है़ लिहाजा दुनियाभर के शोधकर्ता इस दिशा में प्रयासरत हैं. फिलहाल, आइबीएम की रिसर्च टीम को इस दिशा में एक बड़ी कामयाबी हाथ लगी है.
आज के आलेख में जानते हैं कैंसर के शुरुआती लक्षणों और उपचार को आसान बनानेवाली हालिया विकसित की गयी कुछ नयी तकनीकों के बारे में …
कैंसर की बीमारी या उसके आरंभिक लक्षणों को पहचानने के लिए वैज्ञानिक पिछले कई दशकों से जुटे हैं. वैज्ञानिकों को समय-समय पर इस दिशा में कामयाबी मिलती रही है, लेकिन इसे और ज्यादा सटीक तरीके और कम-से-कम खर्च में जानने के लिए निरंतर प्रयास जारी है.
इसी कड़ी में आइबीएम के शोधकर्ताओं ने एक नये डायग्नोस्टिक सिस्टम का विकास किया है, जो कम खर्च में ज्यादा तेजी से कैंसर की पहचान करने में सक्षम है. ‘सीएनएन टेक’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, विकसित किये गये इस मैथॉड को ‘लैब-ऑन-ए-चिप’ नाम दिया गया है. माउंट सिनाइ हॉस्पीटल के साथ मिल कर आइबीएम रिसर्च टीम के सदस्य पिछले दो वर्षों से इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं.
कैसे काम करती है यह तकनीक
इसकी जांच के लिए मरीज के सैंपल की जरूरत होती है, जो शरीर से निकला हुआ तरल पदार्थ होना चाहिए. इस मैथॉड के तहत शरीर से निकलनेवाले यूरीन या सेलिवा जैसे पदार्थों और एक छोटे सिलिकॉन चिप के इस्तेमाल से अंजाम दिया जाता है. इस प्रक्रिया के तहत एक्सोजोम्स के लिए तरल पदार्थ की जांच की जाती है, जो मेंब्रेन में पायी जानेवाली सेलुलर सामग्रियों की छोटी थैलियां होती हैं. आइबीएम की यह तकनीक लिक्विड सैंपल्स में से एक्सोजोम्स को अलग करती है, जिनमें जरूरी जेनेटिक जानकारियां छिपी होती हैं.
गैर-आक्रामक प्रकृति वाला यह तरीका स्क्रीनिंग को आसान बनाता है और कैंसर जैसी बीमारी को पहली बार उभरने की किसी भी संभावना की पहचान करता है. न्यूयॉर्क में माउंट सिनाइ मेडिकल सेंटर के चेयर ऑफ पैथॉलोजी डॉक्टर कार्लोस कॉर्डन-कार्डो का कहना है, ‘पिछले कुछ वर्षों के दौरान हमने यह महसूस किया है कि एक्सोजोम्स कचरे के डिब्बे नहीं होते, जिन्हें कोशिकाओं द्वारा बाहर फेंक दिया गया हो. डीएनए, वायरसों और बायोमेकर्स समेत मातृ कोशिकाओं के संदर्भ में ये महत्वपूर्ण आंकड़े मुहैया कराते हैं.’
कैसा है चिप का डिजाइन
जोशुआ स्मिथ के नेतृत्व में आइबीएम रिसर्च की टीम ने एक ऐसे चिप काे डिजाइन किया है, जो तरल पदार्थ के सैंपल की एक मिलीमीटर तक एक खास कारतूस में रखा जा सकता है. यह चिप अपनेआप में अनेक खासियतों को समेटे है, जिसमें इसके कॉलम का पैटर्न भी शामिल है. नैनोडीएलडी नामक तकनीक के इस्तेमाल से मरीज के सैंपल को चिप्स के इन कॉलम में प्रवाहित किया जाता है, जो बड़े और छोटे एक्सोजाेम्स को अलग-अलग कर देता है.
स्मिथ कहते हैं, ‘किसी हाइवे पर चलनेवाले ट्रैफिक को अलग-अलग बांटने की प्रक्रिया की तरह ही इसे विजुअलाइज किया जा सकता है. जैसे हाइवे पर छोटी कारों के लिए अनेक जगह टनेल बना दी जाती है, जबकि खतरनाक सामग्रियों को ढोनेवाले बड़े वाहनों को अलग रूट से निकाला जाता है.’ यानी आकार और कंटेंट के हिसाब से ट्रैफिक को प्रभावी तरीके से पृथक किया जाता है. एक्सोजाेम्स स्क्रिनिंग प्रक्रिया ठीक इसी तरह काम करती है.
साइड इफेक्ट को समझने में आसानी
इस डायग्नोस्टिक टूल के जरिये रीयल-टाइम में मरीज की मॉनीटरिंग की जा सकती है. कार्डो कहते हैं, ‘हम इस चीज की जांच ज्यादा तेजी से कर सकते हैं कि यह मेडिकेशन सिस्टम मरीज पर कैसी प्रतिक्रिया देता है या फिर क्या मरीज में उसके खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता तो नहीं विकसित हो रही है. इस तरह से इसके साइड इफेक्ट को ज्यादा तेजी से जाना जा सकता है, ताकि मरीज को दिये जानेवाले गैर-जरूरी ट्रीटमेंट से बचाया जा सके.
हालांकि, जोशुआ यह भी कहते हैं कि बाजार में सामान्य बिक्री के लिए मुहैया कराने से पहले अभी इसके ज्यादा सटीक नतीजे हासिल करने के लिए व्यापक टेस्ट करना जरूरी है.
फ्लू और जिका की पहचान भी आसान
आइबीएम रिसर्च द्वारा विकसित किये गये चिप-आधारित तकनीक के इस्तेमाल से शरीर में अनेक किस्म के खास संकेतों को समझने और उन्हें छांट कर तेजी से अलग करने में प्रभावी तरीके से मदद मिलने की उम्मीद है. ऐसा होने से मरीज में पनप रहे फ्लू और जिका जैसी गंभीर बीमारियों के बारे में समय रहते जाना जा सकेगा. हालांकि, इस तकनीक को प्रभावी तरीके से काम करने में अभी कम-से-कम तीन साल का वक्त लग सकता है.
खून के सामान्य जांच से मिलेगी पेट के कैंसर की जानकारी
खून की सामान्य जांच के जरिये अमेरिका में कैंसर की प्रारंभिक जांच करनेवाली एक प्रणाली विकसित की गयी है. माइक्रो आरएनए नामक इस तकनीक को अमेरिका के चिली के एक इंजीनियर एलेजांद्रो तोसग्लि ने विकसित किया है. माइक्रो आरएनए छोटे अानुवांशिक अणु होते हैं, जो विभिन्न प्रकार के रोगों के एक संकेतक के रूप में कार्य करते हैं.
एलेजांद्रो ने हाल ही में सेंटियागो में यह दावा किया है कि वे पेट के कैंसर के लिए इस उपकरण के विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. हालांकि, फिलहाल यह योजना भविष्य की बात है. लेकिन, विविध हालातों में इस तकनीक का कैंसर के अन्य प्रकार में प्रयोग किया जा सकता है. विशेषज्ञों के मुताबिक, चिली में कैंसर पीड़ितों में पेट के कैंसर से होनेवाली मौतों की दर सबसे ज्यादा है. एलेजांद्रो का कहना है कि कैंसर का जल्द पता चलने और समय पर उपचार मिलने से कैंसर पीड़ित व्यक्ति को पांच वर्ष अधिक जीवित रखने में कामयाबी मिल सकती है.
कैंसर प्रभावित कोशिकाओं से निपटना होगा मुमकिन
ब्रेस्ट कैंसर सेल मेटाबॉलिज्म को ब्लॉक करके इस बीमारी से संघर्ष किया जा सकता है. यह शोध बायोलॉजिकल केमिस्ट्री जर्नल में प्रकाशित हुआ है. थॉमस जेफर्सन यूनिवर्सिटी में किये गये एक नये रिसर्च के अनुसार, वैज्ञानिकों ने शोध के दौरान पाया कि ईंधन को ऊर्जा में बदलने के लिए कैंसर सेल की प्रक्रिया नॉर्मल सेल से अलग होती है. कैंसर सेल्स में मौजूद टीआइजीएआर प्रोटीन ब्रेस्ट कैंसर सेल के मेटाबॉलिज्म को बदल देते हैं. ये प्रोटीन बायोलॉजिकल तरीके से ऊर्जा उत्पन्न करने के सेल की योग्यता को नष्ट कर देते हैं.
इस परीक्षण के जरिये वैज्ञानिकों ने यह दर्शाया है कि ब्रेस्ट कैंसर सेल में सामान्य सेल के मुकाबले टीआइजीएआर प्रोटीन की मात्रा बहुत ज्यादा होती है और वे इन सेल्स के मुकाबले ज्यादा आक्रामक होते हैं. इतना ही नहीं, इस प्रोटीन में ब्रेस्ट कैंसर सेल के मुकाबले कहीं ज्यादा तेजी से विकसित होने की क्षमता होती है. प्रयोग के दौरान देखा गया कि जैसे ही ब्रेस्ट कैंसर सेल में टीआइजीएआर प्रोटीन का एक्सप्रेशन हुआ, वैसे ही उसका मेटाबोलिक पाथवे बदल गया और वह ऊर्जा के लिए माइटोकॉन्ड्रिया पर निर्भर हो गया. साथ ही टीआइजीएआर प्रोटीन के कारण ब्रेस्ट कैंसर सेल्स के चारों ओर पाये जानेवाले सेल्स के मेटाबॉलिज्म में भी बदलाव आ गया.
ब्रेस्ट कैंसर की सटीक पहचान करेगी
3डी मेमोग्राफी तकनीक
अमेरिका की वेलस्पैन एफ्राटा कम्युनिटी हॉस्पिटल ने एक नयी तकनीक का ईजाद किया है, जिसके जरीये डॉक्टर मरीज की हाइ-रिजोलुशन डिजिटल इमेज की पूरी सीरीज तैयार करने में सक्षम होंगे, जो ब्रेस्ट में होनेवाले किसी तरह के अवांछित या अनियमित स्पॉट की तलाश करेगा. ‘एफ्राटा रिव्यू’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, डिजिटल टोमोसिंथेसिस के इस्तेमाल से जीनियस 3डी मेमोग्राफी मशीन ज्यादा सटीक सूचनाएं मुहैया कराती है, जो महिलाओं में होनेवाले ब्रेस्ट कैंसर की समय रहते पहचान करने में सक्षम है. इस हॉस्पिटल के मेमोग्राफी टीम के मुखिया टीना स्टीवर्ट का कहना है, ‘मेमोग्राफी बेहद तनावपूर्ण और व्यथित करनेवाली घटना है.
ऐसे में 3डी टोमोग्राफी से हासिल होनेवाली इमेज बहुत अच्छी पायी गयी है.’ ब्रेस्ट कैंसर कॉएलिशन ने सभी महिलाओं से अनुरोध किया है कि मौजूदा 2डी तकनीक के मुकाबले 3डी स्क्रिनिंग तकनीक को चुनना चाहिए, ताकि कैंसर की पहचान ज्यादा सटीक रूप से हो सके. इस कॉएलिशन के प्रेसिडेंट और फाउंडर पैट हेल्पिन-मर्फी ने उम्मीद जतायी है कि महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर की पहचान के लिहाज से 3डी मेमोग्राफी की परिघटना व्यापक बदलाव लाने में सक्षम हो सकती है. हालांकि, पारंपरिक मेमोग्राफी में ज्यादा रेडिएशन नहीं निकलती है, लेकिन चूंकि डॉक्टरों ने यह स्वीकार किया है कि इस इमेज की सीरिज के जरिये ब्रेस्ट कैंसर के लेयरों को ज्यादा सटीक तौर पर जाना जा सकता है, इसीलिए 3डी मेमोग्राफी को ज्यादा भरोसेमंद समझा जा रहा है.

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