बल्देव भाई शर्मा
भारतवर्ष बड़ा विचित्र देश है. यहां धन-धान्य और सुख-समृद्धि की कामना से देवी महालक्ष्मी की अाराधना की जाती है, तो वहीं ‘तेन व्यक्तेन मुनीथ’ का त्यागपूर्ण आदर्श भी सामने रखा गया. इसका अर्थ है कि भारतीय संस्कृति में जीवन का एकांगी विचार नहीं किया गया बल्कि समग्रता के साथ जीवन के हर पक्ष पर एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित किया गया.
आज पांच सौ व एक हजार के नोट बंद हो जाने के बाद एक बेहद कड़वा व समाज और देशघातक सच सामने आ रहा है कि अनेक लोगों द्वारा कालेधन के रूप में छिपा कर रखे गये करोड़ों-अरबों के उक्त बड़े नोट कूड़ा हो गये. वे उसे लालच व भय के कारण सामने आकर बैंकों में जमा भी नहीं कर पा रहे और यह अकूत धन उनके हाथ से जा रहा है व्यर्थ होकर, यह पीड़ा भी वे झेल रहे हैं. लोभ और बदनीयती ने इन्हें इन हालात का शिकार बना दिया. काश वह धन नियम-कायदों का पालन करते हुए अर्जित किया गया हो तो न उन्हें डरने की जरूरत होगी और न इस संकट में पड़ने की. हमारे शास्त्रकारों ने ठीक ही कहा है ‘लोभो नाशस्य कारणम्.’ लोभ नाश का कारण है, पर कई बार हम सब कुछ अपनी मुट्ठी में समेट लेने की चाह में यह भूल जाते हैं.
ऐसे में संत कुंभनदास की कथा याद आती है. वह अष्टछाप के कवियों में से एक बड़े विख्यात भक्त कवि हुए हैं. महाप्रभु बल्लभाचार्य से दीक्षा लेकर वह श्रीनाथ जी की भक्ति में रम गये. किसान थे, सो जो कुछ घर में आता उसी से अपने परिवार को पालते. कभी दान नहीं लेते थे. कुंभनदास के भक्ति पदों की चर्चा दूर-दूर तक थी. उनकी ख्याति अकबर तक भी पहुंची, तब अकबर की राजधानी आगरा के पास फतेहपुरी सीकरी थी.
अकबर ने उनसे मिलना चाहा और सोचा कि कुछ माल-देकर उनका सम्मान करे और उन्हें अपने दरबार की शोभा बनाये. सो उन्हें लाने के लिए हाथी और अपने कुछ कर्मचारी भेजे. जब कुंभनदास को संदेश मिला तो उन्होंने कहा कि हाथी को वापस ले जाओ मैं स्वयं आ जाऊंगा. वह कोसों की पैदल यात्रा कर सीकरी पहुंचे. अकबर ने दरबार में उनका स्वागत-सत्कार करना चाहा और कोई भक्ति वह सुनाने की इच्छा जतायी. कुंभनदास ने सुनाया-‘संतन को कहा सीकरी सौं काम/आवत-जात पनहियां टूटीं बिसर गयौ हरि नाम.’ यानी साधु-संतों को सीकरी यानी राजधानी के सुख-वैभव से क्या लेना-देना, हम तो अपनी भक्ति में मस्त हैं. यहां आने-जाने में मेरी पनहियां (जूते) टूट गये और भगवान का नाम भी छूट गया. तो बादशाह तुम अपने में खुश हुए और मैं अपने में खुश हूं.
यह कह कर कुंभनदास चलने लगे-तब अकबर ने कहा, कुछ मांगिये, मैं क्या दूं आपको. खाली हाथ जा रहे हैं बादशाह के दरबार से. कुंभनदास ने कहा-बस अब मुझे दुबारा यहां न बुलाना. और बड़े निर्लिप्त भाव से वापस आ गये, कोई लोभ-लालच उन्हें बांध नहीं सका. उनके इसी संतभाव और त्यागपूर्ण जीवन के लिए आज भी उन्हें याद किया जा रहा है.
इसके विपरीत आज धन की चाह और व्यक्ति का लोभ-लालच इतना बढ़ गया है कि अपनी आनेवाली सात पीढ़ियों के लिए भी संपदा जोड़ कर जाना चाहता है. चाहे उसकी कुपात्र संतति उस धन को अपने व्यसनों में बरबाद कर दे.
खुद आदमी इस तरह की बेईमानी करेगा, दूसरों का हक मारेगा, कभी-कभी तो वो इसके लिए रिश्तों का खून करने में भी नहीं हिचकिचाता. पचास तिकड़में करके टैक्स देने से भी बचता है. कई बार तो यह धन इतना प्रचुर हो जाता है कि उसे संभाले रखना भी उसके लिए मुश्किल होता है, लेकिन धन संग्रह का नशा उसे पागल बनाये रहता है. और जब विमुद्रीकरण जैसी स्थितियां अचानक उस धन पर पानी फेर देती हैं तो सिर पीटता है.
हमारे संतों-ऋषियों और शास्त्रों में जीवन का मार्ग बड़ा सोच-समझ कर निश्चित किया ताकि वह सुखपूर्ण हो, निष्कंटक हो और आनंददायक हो. उसी ज्ञान के आधार पर ‘सिकंदर जब गया दुनिया से उसके साथ खाली थे’ जैसी कहावतें बनीं जो हमें बीच-बीच में रास्ता दिखाती हैं कि हम जीवन की सही राह से भटकें नहीं.
कबीर ने लोक-लालच की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का मंत्र देते हुए कहा – ‘साईं इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय.’ ये जो अपरिग्रह की प्रवृत्ति है कि जरूरत के अनुसार ही संचय करो और उपभोग करों, इससे अधिक रखना चोरी है. जैन दर्शन में भी इसी अपरिग्रह का उल्लेख है. गीता में भी श्रीकृष्ण जब अर्जुन को धर्म के दस लक्षणों का उपदेश देते हैं तो उसमें अस्तेय का यही अर्थ है. धृति क्षमा दमोअस्तेय शौचं इंद्रियनिग्रह:/धि विद्या सत्यं अक्रोध: दशकं धर्म लक्षणम् इस प्रकार अपरिग्रह के भाव से जीना धर्म का पालन करना है.
लक्ष्मी यानी अर्श (धन) के संचय का भी विधान भारतीय जीवन दर्शन में स्पष्ट है. इनके अनुसार चला जाये तो जीवन में अवसाद तनाव, भय जैसे संकटों से आसानी से बचा जा सकता है जो आज विमुद्रीकरण के कारण कुछ लोगों को झेलना पड़ रहा है. जीवन के चार पुरुषार्थों, जिन्हें पुरुषार्थ चतुष्टय कहा गया है, में क्रमश: धर्म, अर्थ, कल और मोक्ष का उल्लेख आता है.
सबके मूल में धर्म है, धर्म यानी सदगुण-सदाचार से मुक्त जीवन. धर्म भाव से यदि आप अर्थोंपार्जन करेंगे तो उसमें बेईमानी नहीं होगी, भ्रष्टाचार नहीं होगा, दूसरों को हक मारकर या सताकर आप धन नहीं कमायेंगे, जो धन कमाया है उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ आप दूसरों की सेवा व खुशहाली में भी खर्च करेंगे तथा ऐसा धन जीवन में कभी व्यसन व बुराइयों को नहीं आने देगा. इससे आपका यश बढ़ेगा, इसे ही वैभव लक्ष्मी व यशलक्ष्मी कहा गया है. स्वास्थ्य लक्ष्मी भी यही धन है जो आपके मन और शरीर को सदा निरोग रखेगा.
इसीलिए यह कहावत बनी कि धन का अभाव व प्रभाव दोनों ही खराब है यानी नुकसानदेह हैं. भारतीय दर्शन दरिद्रता का उपासक नहीं है, बल्कि त्याग का उपासक है . त्याग तो वही करेगा जिसके पास दूसरों को देने के लिए है. भूखा-नंगा व्यक्ति क्या त्याग करेगा. इसलिए पुरुषार्थ को जीवन के केंद्र में रखा गया लेकिन अपरिग्रह यानी धर्म भाव से उपभोग का रास्ता बताया गया. ताकि धन का प्रभाव मन और बुद्धि को भ्रष्ट न करे, कुमार्गगामी न बनायें.
वास्तव में धर्म का मार्ग ही सहअस्तित्व व परस्परपूरकता का मार्ग है जो मानवीय मूल्यों का विकास कर एक सुखी व सद्भावपूर्ण समाज निर्माण करता है. धर्मनिरपेक्षता तो जीवन को पतित और दुखी करती है. जैसा कि आज विमुद्रीकरण से सामने आ रहा है.