विश्व मधुमेह दिवस : दिनाें दिन भारत में गहराता जा रहा डायबिटीज का रहस्य
डाॅ एन के सिंह
जमाना ‘प्रिसीजन मेडिसिन’ का है और सही इलाज का निर्णय अपने डाॅक्टर काे ही करने दीजिए. सही खानपान, पर्याप्त व्यायाम के बाद अंगरेजी दवाइयां जरूरी हैं, इंसुलिन की जरूरत है या देशी दवाइयां चल सकती हैं, इसका निर्णय स्वयं मत कीजिए. डायबिटीज की दुनिया में यदि काेई चमत्कार कुछ है, ताे वह है-सही डायग्नाेसिस और सही दवाइयाें का चयन. पढ़िए एक टिप्पणी.
ब्रिटेन की प्रधान मंत्री थेरेसा मे के 56 साल में टाइप ‘वन’ डायबिटीज से ग्रसित हाेने का मामला पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है. इनकी कहानी दुनिया के तमाम डायबिटिज के मेडिकल सम्मेलनाें में बतायी जा रही है. इनका जन्म एक अक्तूबर, 1956 काे हुआ था और 56 साल की उम्र तक वह अपने करियर की ऊंचाइयाें काे छूती रहीं.
वर्ष 2012 में वह ब्रिटेन की हाेम सेक्रेटरी थीं. उस समय लंदन ओलंपिक गेम्स कराने में व्यस्त थीं. नवंबर का महीना और सर्दियाें की शुरुआत. सर्दी-खांसी की शिकायत से डाॅक्टर के पास पहुंची ताे रूटीन जांच में उनका ब्लड शुगर अप्रत्याशित रूप से बढ़ा पाया गया. पूछने पर उन्हाेंने बताया कि वह कुछ दिनाें से कमजाेरी महसूस कर रही है. पेशाब बार-बार हाे रहा है. प्यास ज्यादा लग रही है. डाॅक्टर ने जांच के बाद बताया कि वह टाइप ‘टू’ से ग्रसित हाे गयी है. 56 साल की हाे गयी है. 56 साल की उम्र में पहला डायग्नाेसिस यही हाे सकता था.
मेडिकल की पढ़ाई में डायबिटीज हाेने की उम्र का बड़ा महत्व है. टाइप ‘वन’ मुख्यत: बच्चाें और किशाेराें की उम्र में हाेती है. इस बीमारी में पैंक्रियाज से इंसुलिन साबित करनेवाले बीटा काेशिकाओं का वाइरल संक्रमण द्वारा उत्पन्न ओटीइम्यूटी के कारण खात्मा हाे जाता है.
30 साल के बाद यदि डायबिटीज हाेता है ताे इसका मुख्य कारण इंसुलिन की नाकामी हाेती है. बीटा काेशिकाएं कुछ-कुछ इंसुलिन स्रावित करती रहती हैं. और खाने की दवाइयाें द्वारा इसका इलाज संभव है. श्रीमती थेरेसा मे काे भी पहले टाइप टू का मरीज समझ कर खाने की दवाइयां दी गयीं. श्रीमती थेरेसा मे ने तब एक्सटर में प्रख्यात डायबिटीज विशेषज्ञ डाॅ एंड्रू हैटरसले से संपर्क किया. और तब एक अनहाेनी का खुलासा हुआ. उनका ‘सी पेप्टाइड’ टेस्ट कराया गया और यह लगभग शून्य था. ‘सी पेप्टाइड’ एक सामान्य टेस्ट है और यदि यह नॉर्मल आता है, ताे यह बताता है कि आपके शरीर में बीटा सेल्स में इंसुलिन बन रहा है.
थेरेसा मे का ‘सी पेप्टाइड टेस्ट’ एब्नॉर्मल आने के बाद इंसुलिन एंटी बाॅडी टेस्ट गैड 65 कराया गया, जाे कि पाॅजिटिव आया. और यह तय हाे गया कि वह टाइप ‘वन’ डायबिटीज से ग्रसित हैं.
इसमें केवल इंसुलिन के इंजेक्शन द्वारा ही शुगर का नियंत्रण संभव है. इस डायग्नाेसिस ने मेडिकल साइंस में इस मिथक काे ताेड़ने की पहल कर दी कि टाइप ‘वन’ डायबिटीज 30 साल के कम उम्र में ही हाेता है. वैसे यह पहली घटना नहीं थी, मगर एक वीआइपी के ग्रसित हाेने के कारण यह बात चर्चा में आ गयी. वैसे हमारे आस-पास भी एेसे मरीज मिलते हैं, जाे 30 से 60 की उम्र में अचानक ही डायबिटीज के लक्षण से ग्रस्त हाे जाते हैं. उनका ब्लड शुगर अप्रत्याशित रूप से बढ़ा पाया जाता है.
मगर डाॅक्टरी की पढ़ाई में यही बताया जाता रहा है कि इस उम्र की बीमारी टाइप ‘टू’ ही हाेती है, इसलिए दवा शुरू की जाती है. और एेसे मरीजाें काे कितनी भी खानेवाली दवाइयां दी जायें उन्हें काेई लाभ नहीं हाेता. यह अब समझने की जरूरत है कि टाइप ‘वन’ भी किसी भी उम्र में हाे सकता है और दिनाेंदिन इसका प्रभाव बढ़ता जा रहा है. ऐसे मरीजाें की एक सर्वत्र उपलब्ध जांच ‘सी पेप्टाइड’ कराके सही खुलासा किया जा सकता है. सी पेप्टाइड एब्नॉर्मल आने पर इंसुलिन एंटीबाॅडी टेस्ट (जैसे गैड 65, आइएए, आइएटूए, आइसीए) कराके टाइप वन काे कन्फर्म किया जा सकता है. भारत में कई मशहूर लाेगाें काे टाइप वन डायबिटीज है, मगर इनकी उड़ान पर इस बीमारी से काेई असर नहीं पड़ा है.
कमल हासन, साेनम कपूर और वसीम अकरम (जिन्हें 27 साल की उम्र में टाइप वन डायबिटीज हुआ) आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं.
ब्रिटेन के एक्सटर सेंटर के डाॅ एंड्रू हैटरसले इस विषय के महानतम जानकार हैं. उनसे मिलने का माैका मुझे हाल में ही मिला. उन्हाेंने बताया कि डायबिटीज काे दुनिया तेजी से बदल रही है, जिसके द्वारा केवल डायबिटीज का डायग्नोसिस करके सामान्य दवा नहीं लिखी जातीं, बल्कि यह भी पता करना हाेता है कि उस पेशेंट का जेनेटिक मेकअप कैसा है. उसे काैन-सी दवा ज्यादा काम करेगी या उसे इंसुलिन की जरूरत है. टाइप वन डायबिटीज भारत में दो से पांच प्रतिशत केसों में ही पाया जाता है. यानी साै डायबिटीज के मरीज हाें ताे करीबी 95 प्रतिशत से 98 प्रतिशत टाइप ‘टू’ के ही हाेते हैं. मगर ब्रिटेन में हाल के एक सर्वे में 40 प्रतिशत तक डायबिटीज के मरीजाें में टाइप ‘वन’ की समस्या पायी गयी है.
यह एक अप्रत्याशित खबर है. मेदांता गुड़गांव के प्रख्यात डायबिटीज विशेषज्ञ डॉ अमरीश मित्तल और कलकत्ता के डाॅ अवधेश कुमार सिंह ने एपीआई झारखंड के वाट्सएपग्रुप पर कुछ ऐसे टाइप ‘वन’ मरीजाें की कहानी साझा की है, जाे 50 से 60 की उम्र में डायग्नाेस किये गये. इसका मतलब है कि हमारे चिकित्सकाें काे जागरुक रहने की जरूरत है कि टाइप ‘वन’ किसी भी उम्र में हाे सकता है. विश्व में एक ऐसा भी मरीज है, जाे 94 साल की उम्र में टाइप ‘वन’ से ग्रसित पाया गया.
डायबिटीज का रहस्य दिनाें दिन भारत में गहराता जा रहा है. एक ओर 10 से 20 साल की उम्र में जब टाइप ‘वन’ हाेना चाहिए , टाइप ‘टू’ के मरीज मिल रहे हैं. यह हमारी निरंतर खराब हाेती जीवन शैली का द्याेतक है. दूसरी ओर टाइप ‘वन’, जिसमें जीवनपर्यंत केवल इंसुलिन से ही जीवन रक्षा हाेती है, 30 से 60 की उम्र में पाया जा रहा है. नवीनतम रिसर्च यह भी बता रहे हैं कि गर्भावस्था में मां द्वारा पेस्टिसाइड्स से ओत-प्राेत खाद्य-पदार्थाें का सेवन भी इसका एक कारण हाे सकता है.
उम्मीद की जा रही है कि भारत में भी आनेवाले दिनाें में टाइप ‘वन’ के मरीजाें की संख्या में भारी इजाफा हाेगा. यह भारी चिंता का विषय है. टाइप ‘टू’ के लिए हमारे पास आज अत्यंत सुरक्षित ग्लीपटीन और एसजीएलटी (टू) इन्हीबीटर ग्रुप की दवाइयां हैं, मगर टाइप ‘वन’ के लिए केवल इंसुलिन ही है. यहां यह बता देना भी जरूरी प्रतीत हाेता है कि समाचार-पत्राें में पूरे पेज के विज्ञापनाें के साथ कुछ दवाइयाें का प्रचार किया जा रहा है. पांच रुपये की इस गाेली काे चमत्कारी बताया जा रहा है. मगर सावधान रहिए. यह एक भारी धाेखा है.
जमाना ‘प्रिसीजन मेडिसिन’ का है और सही ईलाज का निर्णय अपने डाॅक्टर काे ही करने दीजिए. सही खानपान, पर्याप्त व्यायाम के बाद अंगरेजी दवाइयां जरूरी हैं, इंसुलिन की जरूरत है या देशी दवाइयां चल सकती हैं, इसका निर्णय स्वयं मत कीजिए. कई टाइप ‘वन’ के मरीज इन विज्ञापनाें के प्रभाव में उन दवाइयाें काे खाकर अपना सर्वनाश कर चुके हैं. डायबिटीज की दुनिया में यदि काेई चमत्कार कुछ है, ताे वह है-सही डायग्नाेसिस और सही दवाइयाें का चयन.
(लेखक डायबिटीज हार्ट सेंटर धनबाद के निदेशक हैं.)