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ट्रंप की जीत के बाद

अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद अमेरिका ही नहीं, दुनियाभर में तरह-तरह से इसके विश्लेषण हो रहे हैं. कहीं अलग-अलग कोणों से मतदाताओं के आंकड़ों की परतें खोली जा रही हैं, तो कहीं प्रचार के दौरान कही गयी बातों और घोषणापत्र में दर्ज बातों को नये राष्ट्रपति द्वारा अमलीजामा पहनाने […]

अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद अमेरिका ही नहीं, दुनियाभर में तरह-तरह से इसके विश्लेषण हो रहे हैं. कहीं अलग-अलग कोणों से मतदाताओं के आंकड़ों की परतें खोली जा रही हैं, तो कहीं प्रचार के दौरान कही गयी बातों और घोषणापत्र में दर्ज बातों को नये राष्ट्रपति द्वारा अमलीजामा पहनाने के संबंध में चिंताएं हैं.

अमेरिका के कई शहरों में ट्रंप के विरुद्ध युवाओं के प्रदर्शन हो रहे हैं. इन सबके बीच, ट्रंप की जीत की तुलना कुछ महीने पहले ब्रिटेन में हुए जनमत संग्रह से भी की जा रही है, जिसमें 52 फीसदी लोगों ने यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला लिया था. ब्रेक्जिट और ट्रंप के अभियानों के बरक्स यूरोप की कुछ अन्य हालिया राजनीतिक गतिविधियों को भी रखा जा सकता है, जो आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के समाधान के रूप में ठोस नीतिगत पहल की जगह नस्लभेदी, आप्रवासी विरोधी और राष्ट्रीयता के मुद्दे पर जनता को लामबंद करते हैं. इन प्रवृत्तियों का नेतृत्व ज्यादातर ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जा रहा है, जो विवादास्पद और अपमानजनक बयान देने तथा अपने बड़बोलेपन के लिए जाने जाते हैं.

अमेरिका और यूरोप जैसे समृद्ध, शिक्षित और लोकतांत्रिक समाजों में ऐसे लोगों की स्वीकार्यता बढ़ने से उभरे कुछ संकेत स्पष्ट हैं. यह एक इशारा है कि उन समाजों का संकट इस हद तक सघन हो गया है कि आम लोगों के बड़े हिस्से के पास प्रस्तावित समाधानों की समुचित पड़ताल करने का धैर्य नहीं बचा है और वे किसी ऐसे नेता के पीछे भी चलने के लिए तुरंत तैयार हो जा रहे हैं, जो बड़ी-बड़ी बातें कर रहा हो. इसका दूसरा संकेत यह भी है कि समावेशी विकास के वादे पर आधारित उदारवादी लोकतांत्रिक राजनीति जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने में विफल रही है.

स्थापित राजनीतिक वातावरण के प्रति अमेरिकी जनता की उदासीनता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में 46.9 फीसदी मतदाताओं ने वोट ही नहीं दिया.

ब्रेक्जिट जैसे अहम मसले पर जनमत संग्रह में भी करीब 30 फीसदी लोग मतदान के लिए नहीं गये थे. ऐसे में जरूरत इस बात की भी है कि राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समस्याओं और संघर्षों को संतुलित रूप से समझने-समझाने का प्रयास हो, अन्यथा मौजूदा नकारात्मक राजनीतिक परिघटनाएं वैश्विक स्तर पर राजनीतिक एवं आर्थिक संकट के नये दौर का सूत्रपात कर सकती हैं. अनेक विद्वान इन ताजा रुझानों की तुलना 1920 और 1930 के दशकों से कर रहे हैं, जब यूरोप में अंध-राष्ट्रवाद, नस्लभेद और औपनिवेशिक होड़ ने युद्धोन्माद का भयानक माहौल बनाया था, जिसकी परिणति महामंदी और द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में दुनिया को भुगतनी पड़ी थी. उस दौर के अंधेरे साये शीत युद्ध के रूप में करीब आधी सदी तक दुनिया पर मंडराते रहे थे.

ध्यान रखा जाना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति की नीतियां अमेरिकी जनजीवन और अर्थव्यवस्था को तो सीधे तौर पर प्रभावित करती ही हैं, बाकी दुनिया को भी उनका नफा-नुकसान उठाना पड़ता है. ट्रंप प्रशासन को निवर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा की तरह कांग्रेस और सीनेट में अल्पमत में होने की चुनौती नहीं होगी, क्योंकि इन दोनों सदनों में रिपब्लिकन पार्टी का वर्चस्व है. इस स्थिति में ट्रंप को अपनी नीतियों को लागू करा पाने में सहूलियत होगी. हालांकि उनके सामने विभाजित जनमत और स्थापित राजनीतिक तंत्र से निपटने की चुनौती होगी. ऐसे कारकों की वजह से ट्रंप की जीत को लेकर कई अन्य देशों की तरह ही भारत में भी असमंजस की स्थिति बनी हुई है.

अब भारत और अमेरिका के द्विपक्षीय संबंधों का भविष्य ट्रंप के रवैये पर निर्भर करेगा. अमेरिकी कंपनियों के लिए करों में छूट से भारत में कार्यरत कंपनियां वापस जा सकती हैं.

आप्रवासन नियमों को कठोर करने से वहां काम या पढ़ाई कर रहे भारतीय प्रभावित हो सकते हैं और उनके लिए अवसरों की कमी हो सकती है. सूचना तकनीक और दवाइयों से जुड़े भारतीय कारोबार पर भी ट्रंप की नीतियां प्रतिकूल असर डाल सकती हैं. हालांकि, यदि ट्रंप ने मैन्युफैक्चरिंग पर अपने वादे के मुताबिक जोर दिया, तो भारतीय निवेशकों को अच्छा मौका मिल सकता है, लेकिन तब ऐसे भारतीय उद्योगपति देश के भीतर धन निवेश करने से परहेज कर सकते हैं. आतंकवाद और पाकिस्तान में मसले पर भारत और अमेरिका की नजदीकी बढ़ सकती है, लेकिन इस संबंध में बहुत कुछ क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर भी निर्भर करेगा.

जीत के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने सभी अमेरिकियों के लिए काम करने और दुनिया के अन्य देशों के साथ सहयोग का रुख अख्तियार करने की घोषणा की है. लेकिन, यह समय के गर्भ में है कि डेढ़ साल से विभिन्न मुद्दों पर कड़ा रवैया अपनाने की बात कहते रहनेवाले ट्रंप राष्ट्रपति पद के लिए चुने जाने के बाद कितना बदलेंगे.

उनकी पार्टी के भीतर की और डेमोक्रेटिक खेमे की प्रतिक्रियाएं भी इसमें खासा महत्वपूर्ण होंगी. फिलहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि बतौर राष्ट्रपति उनके हाव-भाव और विचारों का सकारात्मक पक्ष ही उनकी नीतियों की दशा और दिशा तय करेगा.

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