गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
सुबह के अर्घ्य के साथ ही छठ पूजा भी संपन्न हो गया. अब फिर से गांव खाली हो जायेंगे. दिल्ली, लुधियाना, मुंबई में रोजगार के सिलसिले में जानेवाले प्रवासी लोग भले ही दीवाली या दुर्गा पूजा में अपने गांव न आते हों, लेकिन छठ में उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है. आंगन-दुआर इन चार दिनों में चहक उठता है. किसी के पापा आते हैं, तो किसी के भाई-चाचा.
प्रवासियों का मन इस एक पूजा में लंबी दूरी को एक झटके में खत्म कर देता है, लेकिन फिर वे वहीं लौट जाते हैं, जहां से वे आये थे. छठ घाट पर एक बुजुर्ग ने बताया कि हर साल की तरह इस साल भी गाम खाली हो जायेगा. उसकी पीड़ा को व्यक्तिगत तौर पर मैंने महसूस किया है. गांव में हमने पलायन का दर्द झेला है. गांव के हर टोले में या तो बच्चा मिलता है या फिर बूढ़ा. ऐसे में छठ पूजा बिहार के गांव-घरों के लिए वरदान की तरह है. पर्व की बाध्यता ही सही, लोग घर आ तो रहे हैं.
कुछ दिन के लिए ही सही, भारत का हर हिस्सा बिहार पहुंच जाता है. कामकाजी दुनिया में संघर्षरत लोगों को बिहार चार दिनों के लिए अपने पास बुला लेता है. गांव का सुरेश कहता है कि छठ में घर जाने की खुशी को बयां नहीं किया जा सकता. यह वैसा ही है, जैसे रोजी-रोटी के लिए घर-आंगन को छोड़ कर महानगरों में जाने के दर्द को कोई दूसरा नहीं समझ सकता. नौकरी और जिंदगी के लिए हम अपने आंगन-दुआर को छोड़ कर निकल पड़ते हैं. समाजशास्त्रियों को चाहिए कि छठ में आने-जानेवाले लोगों पर शोध करें, खासकर गांव पहुंचनेवालों पर.
छठ में जो गांव आते हैं, उनसे लंबी बातें करता हूं. हर आनेवाला कहता है कि वह घर के लिए नहीं, बल्कि गाम-घर के लिए आता है. इन दिनों जब हम-आप तेजी से जड़ों से कटते जा रहे हैं, वैसे में एक पर्व के बहाने सब जुट जाते हैं. सलेमपुर वाली दादी बताती है कि साल में एक ही बार वह अपने पोते का मुंह देख पाती है. टुकड़ों में बंटा परिवार छठ के घाट पर एक साथ, एक ही फ्रेम में दिख जाता है. संयुक्त परिवार का पुराना आंगन इन चार दिनों में अपने पुराने अंदाज में नजर आने लगता है. घर इन दिनों में बड़ा हो जाता है.
छठ में छोटे शहरों की नदियां चहक उठती हैं. दिल्ली में पढ़नेवाला रितेश सौरा नदी के घाट पर एकटक पानी के बहाव को देख रहा है. नाला बनते नदियों की बातें सुननेवाला रितेश सौरा नदी को निहार रहा है. आभासी होते लोगों के लिए गागर नीबू और सुथनी जैसे फलों को समझने-बुझने का त्योहार है छठ. सब कुछ प्लास्टिक और फाइबर होते इस समय में छठ का मतलब सूप और बांस की टोकरी भी है.
छठ के बाद जब फिर घर-आंगन खाली होने जा रहा है, तब लगता है सचमुच हम अकेले हैं. अवधेश काका की अपनी पीड़ा है, अब फिर वे अकेले हो जायेंगे, क्योंकि उनका बेटा सुशील फिर दिल्ली जा रहा है. कटिहार से महानंदा एक्सप्रेस पर सवार होकर वह चला जायेगा. काका फिर से अकेले अपने दुआर पर बैठे मिलेंगे, बिना किसी उत्साह के.छठ के बाद की तसवीर पर भी गौर करें. पलायन-विस्थापन की पीड़ा को हमें समझना चाहिए.
आने-जानेवाले लोगों का हिसाब-किताब भी छठ के बाद जरूरी है. रोजी-रोटी की जिद में प्रवासी बनते हम सब छठ के बहाने ही सही, कुछ ही दिनों के लिए अपने शहर-गांव आते हैं, लेकिन फिर एक दिन किसी सुबह-किसी शाम अपने लोगों को, अपनी माटी को छोड़ कर निकल जाते हैं रोजगार और बेहतर जिंदगी के लिए. कहीं भीड़ बढ़ रही है, तो कहीं से लोग निकल रहे हैं, लेकिन एक दिन सबको लौटना वहीं होता है, जहां से हम सब आते हैं.