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वह एक भयावह दुनिया होगी!

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया खबरों को लोगों तक पहुंचानेवाला मीडिया पिछले कुछ दिनों से खुद ही खबर बना हुआ है. पहली खबर लोकप्रिय अंगरेजी पत्रकार अर्नब गोस्वामी से जुड़ी है. अर्नब लीक से हट कर चलनेवाले एक शो के एंकर थे, लेकिन उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया. अर्नब गोस्वामी का […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
खबरों को लोगों तक पहुंचानेवाला मीडिया पिछले कुछ दिनों से खुद ही खबर बना हुआ है. पहली खबर लोकप्रिय अंगरेजी पत्रकार अर्नब गोस्वामी से जुड़ी है. अर्नब लीक से हट कर चलनेवाले एक शो के एंकर थे, लेकिन उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया. अर्नब गोस्वामी का त्यागपत्र एक तरह से पिछले एक दशक के उस सिलसिले का अंत करनेवाला निर्णय है, जिसमें उन्होंने भारतीय पत्रकारिता की दिशा बदल दी. अर्नब ने यह सब कुछ रिपोर्टिंग की बजाय अपनी एंकरिंग के दम पर किया.
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक ने अभी कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री के सामने दिये एक शानदार भाषण में ‘सेल्फी जर्नलिज्म’ का जिक्र किया. उन्होंने कहा कि ‘इस तरह की पत्रकारिता में कैमरा दुनिया की चीजों को दिखाने की बजाय पत्रकारों के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है’. और भारत में इस शैली की पत्रकारिता के जन्मदाता अर्नब गोस्वामी हैं, जो इसके सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि भी हैं. उनके चैनल के दर्शकों की संख्या बेहद कम थी.
वह चैनल व्यावसायिक तौर पर खास बड़ा भी नहीं था. हमारे यहां कई अखबार भी न्यूज चैनल से ज्यादा पैसे अर्जित कर लेते हैं. लेकिन, उस चैनल का लोगों पर प्रभाव था, क्योंकि उच्च वर्ग अर्नब के शो को देखता था. उनके शो को लोग इसलिए देखते थे, क्योंकि वे किसी बड़ी खबर को बताते हुए एकदम से आवेश में आ जाते थे, जैसा कि जेएनयू में हुई नारेबाजी और एक समाजसेवी की बेटी की हत्या के मामले में हुआ, जो ज्यादातर भारतीयों के लिए पूरी तरह से अप्रासंगिक खबर थी. ज्यादातर लोगों की जिंदगी से जुड़े गरीबी, अशिक्षा और भूख जैसे विषय उनके शो का हिस्सा नहीं होते थे. उनकी चिंता के विषय पाकिस्तानी आतंकवाद और सर्जिकल स्ट्राइक थे.
यह सच है कि उनके असंतुलित उग्र भाषण ने इस देश को नुकसान पहुंचाया, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अपने फन में माहिर थे. उन्होंने जो भी किया, उसे बहुत अच्छे से अंजाम दिया. प्रश्न उठता है कि फिर उन्होंने त्यागपत्र क्यों दिया? शायद उन्होंने जो किया था, उससे उन्हें चिढ़ हो गयी थी और वे इस तरह के कार्य को और नहीं करना चाहते थे. एक रिपोर्ट के मुताबिक, वे अब खुद का एक चैनल लाना चाहते हैं. अगर यह सच है तो मुझे आशा है कि वे यह जानते होंगे कि यह मंच पत्रकारों के लिए कितना महत्वपूर्ण है. हालांकि, बहुत से ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने एक जगह लोकप्रिय होने के बाद जब दूसरी जगह काम शुरू किया, तो वे असफल हो गये. ग्लेन बेक अपना खुद का काम शुरू करने से पहले तक ‘फॉक्स’ न्यूज चैनल के एक बड़े स्टार हुआ करते थे, लेकिन जब उन्होंने अपना काम शुरू किया, तो उसमें सफल नहीं हो पाये. अर्नब को उनके नये काम के लिए शुभकामना और मुझे आशा है कि वे उन मुद्दों की रिपोर्टिंग करेंगे, जो ज्यादातर भारतीयों पर असर डालती है.
दूसरी खबर एनडीटीवी न्यूज चैनल की है, जिस पर सरकार ने एक दिन (9 नवंबर) का प्रतिबंध लगा दिया है. सरकार का कहना है कि एनडीटीवी ने अपनी रिपोर्टिंग में ऐसी सूचनाएं भी साझा की, जो संवेदनशील थीं और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती थीं. यह रिपोर्टिंग आतंकियों से मुठभेड़ की थी, जिसमें कई अन्य चैनलों ने भी लाइव रिपोर्टिंग की थी. कुछ रिपोर्टों का मानना है कि एनडीटीवी का कवरेज उतना भी नुकसान पहुंचानेवाला नहीं था, जितना सरकार मान रही है. एडिटर्स गिल्ड ने सरकार द्वारा चैनल पर एक दिन का प्रतिबंध लगाने की तुलना इंदिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल से की है, जिसमें मीडिया पर पाबंदियां लगा दी गयी थीं.
मैं अब तक नहीं जान पाया हूं कि यह कवरेज वास्तव में कितना नुकसान पहुंचानेवाला था. दर्शक जानते हैं कि एनडीटीवी एक सावधान और सतर्क चैनल है. आज टीवी न्यूज कवरेज खतरनाक रूप ले चुका है. वह लापरवाही बरतता है, क्योंकि एयरटाइम में जो कुछ भी निवेश होता है वह रिपोर्टिंग की बजाय कमेंटरी पर निर्भर करता है. इसीलिए अब जैसे ही कोई स्टोरी ब्रेक होती है, उस पर कमेंट आना शुरू हो जाता है. किसी भी खबर की पूरी पड़ताल किये बिना उसके मायने निकाल लिये जाते हैं. दरअसल, टीवी मीडियम का यही स्वभाव है और दुर्भाग्यवश उसमें कोई बदलाव नहीं होनेवाला है.
भारतीय रीडरशिप सर्वे में लाखों लोग अपना मत बताते हैं कि वे कौन से अखबार या पत्रिका पढ़ते हैं. यह सर्वे पिछले दो सालों से नहीं आया है, क्योंकि तब संख्या को लेकर विवाद हो गया था. सच्चाई है कि कई अखबारों की रीडरशिप में गिरावट आयी है या फिर उनके पाठक जस के तस बने हुए हैं. यह पश्चिम का चलन है, जहां अखबारों के पाठकों की संख्या और राजस्व निरंतर गिर रहे हैं. जब यह सर्वे आयेगा, तो हो सकता है कि पश्चिमी चलन भारतीय प्रकाशकों पर भी असर डाल चुका हो. अपने यहां पहले से ही पत्रिकाओं पर भारी दबाव है और अखबार भी जल्द ही इससे गुजरनेवाले हैं. मेरे ख्याल से यह देश के लिए बड़ी त्रासदी होगी. इस वक्त हमारे यहां ऐसा माहौल है, जिसमें टीवी की रुचि गंभीर पत्रकारिता में नहीं है और उसके पास वैसी रिपोर्टिंग नहीं है, जैसी अखबारों के पास होती है.
मेरा मानना है कि सोशल मीडिया समाचारपत्रों का विकल्प नहीं हो सकता है. फुल टाइम रिपोर्टर्स अपने संपर्कों और फील्ड के अपने अनुभव के आधार पर बीट के बारे में सूचनाएं देते हैं. इस तरह की रिपाेर्टिंग का स्थान करोड़ों लोगों द्वारा मात्र 140 कैरेक्टर में भेजी गयी सूचनाएं नहीं ले सकती हैं. इसलिए भविष्य में जब कभी अखबार नहीं होगा, तब लोगों के पास सही सूचनाओं वाली सामग्री की भारी कमी हो जायेगी.
अगर समाचारपत्र विहीन दुनिया का संक्रमणकाल शीघ्र ही आनेवाला है, तो मुझे डर है कि समाचारपत्रों की आज जो जगह है, उनके न रहने पर, उस स्थान को भरनेवाला एक भी उचित माध्यम नहीं होगा. यदि ऐसा हुआ, तब हम पत्रकारिता की एक ऐसी दुनिया में जीने लगेंगे, जो पूरी तरह से अर्नब गोस्वामी और उसके जैसे एंकरों से भरी होगी, जो अपने जुनून और गुस्से के दम पर एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रही होगी और जहां लोग बिना प्रथम सूचना के अपने फोन उठा कर कमेंट और ट्वीट करते नजर आयेंगे. सचमुच वह एक भयावह दुनिया होगी.

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