उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
सन् 2012 के जनवरी महीने में दिल्ली से छपनेवाले कुछेक अखबारों में एक बहुत बड़ी कहानी पर बहुत छोटी सी खबर छपी- ‘चौदह साल बाद मोहम्मद आमिर जेल से रिहा.’ बाद में पता चला, यह वही आमिर थे, जिन्हें साल 1998 में ‘जनता और समाज की सेवा में हमेशा तत्पर’ रहनेवाली दिल्ली पुलिस ने खूंखार आतंकवादी बता कर पुरानी दिल्ली से गिरफ्तार किया था.
पूरे चौदह साल जेल में रखने के बाद जनवरी, 2012 में आमिर को रिहा किया गया. न्यायालय ने पाया कि उस पर लगाये सारे इल्जाम पूरी तरह बेबुनियाद और झूठे थे. राष्ट्रीय राजधानी का मामला न होता और आमिर के मुकद्दमे में कुछ प्रमुख वकीलों ने दिलचस्पी न दिखायी होती, तो बहुत संभव है आमिर आज इस दुनिया में नहीं होते, किसी मुठभेड़ में मारे गये होते या जेल में जिंदा लाश होते! देश में ऐसे असंख्य उदाहरण मिलेंगे, जब बेगुनाहों को आतंकी बता कर जेल में रखा गया. इनमें ज्यादातर सबाल्टर्न समाज से थे.
नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़े बताते हैं कि जेल में बंद विचाराधीन कैदियों में 55 फीसदी दलित-मुसलिम और आदिवासी हैं. पिछड़े वर्ग की न तो जनगणना होती है और न ही एनसीआरबी के आंकड़ों में ऐसा कोई श्रेणीकरण है. संबद्ध मंत्रालय के सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर मेरा अपना अनुमान है कि इसमें पिछड़े वर्ग के विचाराधीन कैदियों की संख्या भी जोड़ ली जाये, तो आंकड़ा 90 फीसदी से ऊपर पहुंच जायेगा.
सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश मे मुसलिम आबादी 14.2, दलित 16.6 और आदिवासी 8.6 फीसदी हैं. लेकिन, जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में इनकी हिस्सेदारी क्रमशः 20.9 फीसदी, 21.6 फीसदी और 12.4 फीसदी है. मुठभेड़ में मारे जानेवाले अपराधियों और कथित अपराधियों के आंकड़े भी कुछ इसी तर्ज पर हैं. आजाद भारत में अब तक फांसी की सजा पानेवालों की सामाजिक पृष्ठभूमि भी कुछ इसी तरह की है.
इन सवालों पर विचार करने के बजाय हमारे यहां निरंकुश किस्म के ‘तुरंता न्याय’ का मॉडल और उसके पक्ष में खतरनाक किस्म का भीड़तंत्र उभरता नजर आ रहा है. ‘भोपाल मुठभेड़ कांड’ के मामले में सोशल मीडिया में ऐसी कई भीषण टिप्पणियां वायरल हुईं: ‘अगर मुठभेड़ सही थी, तो शासन को सौ सलाम, अगर मुठभेड़ फर्जी थी, तो शासन को दो सौ सलाम.’
सबसे चिंताजनक पहलू है, भीड़ की मानसिकता का सड़क से उठ कर हमारी राजव्यवस्था के सचिवालयों और व्यवस्था-संचालकों के दिमाग में दाखिल होने की प्रवृत्ति. प्रदेश के एक बड़े नेता ने सभा में आये लोगों से पूछा, ‘मुठभेड़ सही थी न.’ इतिहास गवाह है, ज्यादातर देशों में आतंक की चुनौती मुठभेड़ों से कभी हल नहीं हुई.
भाषा, जुमलों और सोच के स्तर पर भी ‘तुरंता न्याय’ की पैरोकारी और उससे जुड़ी चीजों का ‘ट्रिवियलाइजेशन’ होता नजर आ रहा है.
पिछड़े इलाकों की बात छोड़िये, मुंबई जैसे महानगर में भी यह भीड़तंत्र हमारी राजव्यवस्था के विभिन्न घटकों पर असर डाल रहा है. ‘मुंबई में कौन सी फिल्म किस शर्त पर रिलीज होगी’ का फैसला हाल ही में मुख्यमंत्री की मौजूदगी में एक स्थानीय उपद्रवी गिरोह ने ड्राइंगरूम में कराया. भीड़तंत्र की भाषा राजव्यवस्था के अंगों को कैसे प्रभावित करती है, इसका एक दिलचस्प उदाहरण भी वहां मिला.
मशहूर सरकारी वकील उज्जवल निक्कम ने एक मामले पर टिप्पणी के दौरान जुमला उछाला, ‘जेल में आतंकियों को बिरयानी मत खिलाओ.’ उन्होंने यह जुमला भीड़ से लिया था.
कई बरस तक पूरे देश में तत्कालीन सरकार की कमजोरी को रेखांकित करने के लिए ‘जेल में बिरयानी खिलाने’ का जुमला उछलता रहा. पिछले बरस उज्जवल निक्कम ने खुलासा किया, ‘कभी किसी आतंकी या कैदी को जेल में बिरयानी नहीं खिलाई जाती, ना ही खिलाई गयी. मैंने तो उस वक्त मीडिया के सामने बिरयानी वाली बात यूं ही कह दी थी.’ पर ‘तुरंता न्याय’ के पैरोकारों के बीच बिरयानी का जुमला आज भी उछलता रहता है!
पुलिस को दुरुस्त करने और न्यायालयों की कार्यक्षमता बढ़ाने के बजाय ‘भीड़’ के मनमाफिक न्याय देने की पैरोकारी में दरअसल फासीवाद की आहटें छुपी हुई हैं. भोपाल कांड के बारे में अब तो एटीएस प्रमुख का भी बयान आ चुका है कि जेल से कथित तौर पर भागे विचाराधीन कैदियों के पास किसी तरह के हथियार नहीं थे. वह मुठभेड़ थी या फर्जी मुठभेड़, वे भागे थे या भगाये गये थे, इसके लिए पुलिस जांच के बजाय एक न्यायिक जांच की जरूरत है.
जांच से ही सच उजागर होगा. लेकिन, इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में ‘मुठभेड़ हत्या’ का समाजशास्त्र बेहद खौफनाक है. ऐसे मामलों में कई दफा भीड़ से तालियां भी मिलीं. पर, अंततः लोकतंत्र और सभ्य समाज के लिए यह एक खतरनाक विकृति है, जो हमारे कानूनी-विधायी ढांचे को ध्वस्त कर सकती है.