इजराइल जैसे बेहद विवादास्पद और धार्मिक-राष्ट्रीयता आधारित एक कट्टरपंथी मुल्क को दुनिया के सेक्युलर-लोकतांत्रिक देशों के खेमे में भारत के रूप में नया प्रशंसक मिल गया है. अब तक सिर्फ अमेरिका या उसके कुछ खास समर्थक-देश ही उसका बचाव और बड़ाई करते थे. इसके बावजूद वे संयुक्त राष्ट्र में इजराइल की सामूहिक निंदा के प्रस्ताव को कई मौकों पर रोक नहीं पाते थे. इधर, अपने देश में देखते-देखते इजराइल की ‘लोकप्रियता’ बढ़ती जा रही है.
सत्ताधारी दल और उसकी अगुवाई वाली मौजूदा केंद्र सरकार को कई कारणों से इजराइल ‘प्रिय’ है. इजराइल के युद्ध-कौशल या ‘दुश्मन’ के खिलाफ उसके आक्रामक तौर-तरीके का ही अपने यहां महिमागान नहीं हो रहा है, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व के पेचदार मामलों में भी इजराइल की नकल की कोशिश हो रही है. इसमें एक मामला है- भारत के नागरिकता कानून-1955 में खास संशोधन का प्रस्ताव.
पिछले कई महीने से सत्ताधारी पार्टी की सिफारिश पर केंद्र सरकार सन् 1955 के राष्ट्रीय नागरिकता कानून में संशोधन की कोशिश कर रही है. साल 2014 के संसदीय चुनाव के दौरान भाजपा ने मतदाताओं को नागरिकता कानून में विवादास्पद संशोधन का वायदा किया था. बीते असम चुनाव के दौरान भी सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने नागरिकता कानून में संशोधन की बात की. असम में इस मसले का खास महत्व है.
समझा जाता है कि संसद के शीत-सत्र में इसे पारित कराने की पूरी कोशिश होगी. कानूनी संशोधन का अहम पहलू है- पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी मुल्कों के धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिक बन कर रहने की आजादी देने का प्रावधान. अगर संशोधन कानून को संसद की मंजूरी मिल जाती है, तो पड़ोस के कुछ मुल्कों से आकर पिछले छह साल से भारत में रहनेवाले हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध समुदाय के लोग बाकायदा भारतीय नागरिक बन सकेंगे. यही नहीं, भविष्य में भी पड़ोसी मुल्कों से आनेवाले ऐसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए भारतीय नागरिकता पाने का रास्ता आसान रहेगा. इसमें मुसलमानों को छोड़ अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों का बाकायदा नामोल्लेख है. यानी बाहर से आनेवाले सिर्फ मुसलिम धर्मावलंबी को नागरिकता नहीं मिलेगी.
देश के कई बड़े न्यायविद् और कुछ विपक्षी नेता इस सरकारी पहल पर चिंता जाहिर कर चुके हैं. उनकी चिंता का मुख्य कारण है कि इस तरह का संशोधन भारतीय संविधान के बुनियादी स्वरूप और विचार-दर्शन से मेल नहीं खाता. यह भारतीय संविधान की भावना और भारत की मूल संकल्पना के सर्वथा प्रतिकूल है. ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ जैसे सामरिक मामले की तरह नागरिकता कानून के संशोधन प्रस्ताव के संदर्भ में भले ही किसी सत्ताधारी नेता ने अभी तक इजराइल का नामोल्लेख नहीं किया हो, लेकिन जिस तरह का कानूनी संशोधन प्रस्तावित किया गया है, वह काफी कुछ इजराइल के नक्शेकदम पर है.
दरअसल, इजराइल पूरी दुनिया के यहूदियों को अपनी धरती पर शरण देने या वहां आकर स्थायी रूप से नागरिक बन कर बसने का आह्वान करता रहता है. उसके आह्वान का असर भी देखा गया. कई मुल्कों के यहूदी वहां जाकर बसे भी हैं. भारत सरकार की तरफ से नागरिकता कानून-1955 में जिस तरह के संशोधन प्रस्तावित किये गये हैं, वे भी कुछ इसी तर्ज पर पड़ोसी देशों के ‘धार्मिक-अल्पसंख्यकों’ तक सीमित हैं. पाकिस्तान या बांग्लादेश के हिंदू, जैन या सिख आदि जैसे धार्मिक अल्पसंख्यक अगर भारतीय नागरिकता लेना चाहेंगे, तो कानूनी संशोधन के पारित होने की स्थिति में भारतीय नागरिकता कानून उनका पूरा साथ देगा. लेकिन, म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों, अफगानी, बांग्लादेशी या पाकिस्तानी मुसलमानों को यह सुविधा नहीं मिलेगी. भारत में फिलहाल लगभग 36,000 रोहिंग्या मुसलिम शरणार्थी की तरह रहते आ रहे हैं. इनमें ज्यादातर भारत में स्थायी निवास यानी नागरिकता चाहते हैं. लेकिन, नया संशोधन पारित हो जाने की स्थिति में भी बांग्लादेशी मुसलमानों या म्यांमार के रोहिंग्या को नागरिकता पाने का अधिकार नहीं हासिल होगा.
नागरिकता पाने की पात्रता वालों की श्रेणियां कानूनी संशोधन में साफ तौर पर उल्लिखित हैं. नागरिकता का यह कानूनी-संशोधन चूंकि धार्मिक-पृष्ठभूमि पर आधारित है, इसलिए इसकी आलोचना हो रही है. आलोचकों का मानना है कि भारत की स्थिति इजराइल से बिल्कुल अलग है. इजराइल एक धार्मिक-पृष्ठभूमि आधारित नागरिकता का देश है, जबकि भारत आज भी संवैधानिक तौर पर एक धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक देश है, हिंदू राष्ट्र नहीं है. ऐसे में धार्मिक-पृष्ठभूमि के आधार पर किसी को भारतीय नागरिकता का अधिकार कैसे दिया जा सकता है! इस तरह के भेदभाव-मूलक कानूनी संशोधन को भारत जैसे एक लोकतांत्रिक और सेक्यूलर गणतंत्र में कैसे अमलीजामा पहनाया जा सकता है?
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
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